एक ज़माना था जब मियां नवाज़ शरीफ बड़े फख्र के साथ खुद को जिया-उल-हक़ का वारिस कहते थे. लेकिन अब शायद वो बात नहीं रह गई है क्योंकि अगर ऐसा होता तो कहीं कोई दिक्कत ही नहीं होती. वह अभी भी प्रधानमंत्री होते और अपने 5 वर्षों के कामों का बखान करते हुए अपनी अवाम से समर्थन के वोट मान रहे होते. लेकिन हो इसका उल्टा रहा है. तो क्या नवाज़ शरीफ बदल गए हैं?
आखिर ऐसा क्या हुआ कि नवाज़ शरीफ लंदन की आज़ाद फिजाओं से निकल कर खुद जेल की तरफ बढ़ गए? शुक्रवार रात जैसे ही नवाज़ शरीफ और उनकी बेटी मरियम नवाज़ का हवाईजहाज लाहौर की हवाईपट्टी पर रुका उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. शुक्रवार 13 जुलाई को हुई गिरफ्तारी से ठीक 2 महीने और 2 दिन पहले यानी 12 मई को नवाज़ शरीफ ने पकिस्तान के चर्चित समाचारपत्र ‘डॉन’ को दिए एक इंटरव्यू में पहली बार यह कबूल किया था कि 26/11 के मुंबई हमले को पाकिस्तान की सरजमीन से संचालित किया गया था, इसमें 166 भारतीय नागरिकों की मौत हुई थी. यही वह इंटरव्यू था जिसके बाद करीब-करीब यह तय हो गया था कि नवाज़ की सियासत को फौजी हुक्मरान अब बर्दाश्त नहीं करेंगे.
‘डॉन’ समाचार पत्र के एक सीनियर जर्नलिस्ट से बात करते हुए जो 2 महत्त्वपूर्ण सवाल नवाज़ शरीफ ने किए वो थे- मुंबई केस की कार्रवाई मुकम्मल क्यों नहीं हो सकी? क्या हमें सरहद पार जाकर लोगों के कत्ल की इजाजत देनी चाहिए? कहते हैं कि व्यंग और राजनीति में सारा खेल टाइमिंग का होता है. जो बात नवाज़ शरीफ कर रहे थे उसे पहले भी कह सकते थे. इसलिए पकिस्तान में यह बहस चल पड़ी कि 3 बार प्रधानमंत्री की भूमिका निभाने वाले नवाज़ शरीफ के सामने आखिर वह कौन सी मजबूरी थी जिसके तहत उन्होंने इस सच को जाहिर किया.
पिछले दिनों जब जवाबदेही अदालत ने उन्हें 10 वर्ष की सजा सुनाई तो वो लंदन में अपनी बीमार पत्नी बेगम कुलसूम के पास थे. अदालत के फैसले पर उन्होंने वहीं से फिर बयान दिया कि ‘उन्हें सजा देने का फैसला अदालत में नहीं बल्कि कहीं और हुआ है’. साथ ही यह भी कहा कि ‘चाहे अब जेल जाना पड़े या फांसी दे दी जाए, उनके कदम अब नहीं रुकेंगे.’
फौजी व्यवस्था की आंख में नवाज़ शरीफ कंकड़ की तरह खटकने लगे हैं
कुल मिलाकर यह एक खुला चैलेंज है पाकिस्तान की फौजी व्यवस्था के खिलाफ जिसकी आंख में नवाज़ शरीफ कंकड़ की तरह खटकने लगे हैं. 14 जुलाई को पकिस्तान लौटने का फैसला करने से पहले उन्होंने संवाददाताओं से फिर कहा ‘मेरे बारे में जो अफवाहें फैलाई जा रही हैं कि मैं अदालत के फैसले से डरकर राजनीतिक शरण ले लूंगा- वह कान खोल कर सुन लें- मैं पाकिस्तान आ रहा हूं.’
नवाज़ शरीफ को पता था कि वो जैसे ही वो पकिस्तान की सरमीन पर पहुंचेंगे, उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाएगा. इसलिए एक बयान में उन्होंने यह भी कहा कि ‘जेल की तरफ जाते हुए सोच रहा हूं कि पूरा मुल्क जेल बन चुका है’. लेकिन इस जेल में यानी इस आफत में खुद को डालने की ऐसी क्या मजबूरी थी मियां साहब (पाकिस्तान में लोग उन्हें इसी नाम से बुलाते हैं) के सामने. खुद नवाज़ शरीफ तो यह कहते हैं कि ‘इरादे मजबूत होंगे तो पकिस्तान मजबूत होगा’, तो सवाल यह उठता है कि इरादों की दुहाई अब क्यों? पहले भी कई ऐसे मौके आए हैं जब उन्हें अपने मजबूत इरादों की नुमाइश करनी चाहिए थी.
आज जो कुछ नवाज़ शरीफ कर रहे हैं या कह रहे हैं उसमें पकिस्तान के पहले निर्वाचित प्रधानमंत्री ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो जैसे तेवर हैं. पकिस्तान पहुंचने से पहले उन्होंने अपने बयानात से यह तय कर दिया की उनका इरादा क्या है. उन्होंने कहा कि ‘मैं इक्तेदार (सत्ता) की नहीं इक्दार (मूल्यों) की सियासत का कायल हूं. पाकिस्तान के हर इदारे (संस्थान) का एहतेराम करता हूं. लेकिन जीहुजूरी कर के इक्तेदार (सत्ता) में रहना एक लम्हे के लिए मंजूर नहीं है.’
उनका एक बयान यह भी आया कि वो चाहते हैं कि ‘अवाम की राय को अहमियत दी जाए. उन्हें भेड़-बकरियां न समझा जाए.’ यह बयानात ऐसे तो नहीं हैं जिन्हें जिया-उल-हक़ के किसी वारिस का बयान समझा जाए. यह तो लोकतंत्र को मजबूत करने वाले बयान हैं. आखिर कैसे खुद को जिया-उल-हक़ का वारिस कहने वाला शख्स, ऐसे बयान दे सकता है.
पकिस्तान की फौजी व्यवस्था, अदालत के खिलाफ खुलकर बगावत कर दी है
पिछले 35-40 वर्षों से पकिस्तान की सियासत में एक अहम रोल निभाने वाले मियां नवाज़ के यह तेवर बिलकुल नए हैं. उन्होंने पकिस्तान की फौजी व्यवस्था और अदालत के खिलाफ खुलकर बगावत कर दी है. इसके अंजाम क्या हो सकते हैं, इसका उन्हें अंदाजा न हो, यह मानना बेवकूफी होगी. 1971 में ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने भी इन्हीं तेवरों के साथ हुकूमत की लगाम को पकड़ा था लेकिन उनका अंजाम क्या हुआ यह सबको मालूम है.
तो क्या पकिस्तान में लोकतांत्रिक हितों की रक्षा के लिए एक और जुल्फ़िकार अली भुट्टो और पैदा हो गया है जो फौजी हुकूमत से दो-दो हाथ कर लेना चाहता है? या फिर उसे यह मालूम है कि पकिस्तान की फौज में जिया-उल-हक़ या परवेज़ मुशर्रफ के नेतृत्व वाली ताकत अब नहीं रह गई है. दूसरी तरफ उनके साथ साए की तरह उनकी बेटी मरियम हैं जो खुद को बेनज़ीर भुट्टो का रोल मॉडल समझती हैं.
जुल्फिक़ार अली भुट्टो को जब फांसी हुई थी तो बेनज़ीर बच्ची थीं, उनका साथ नहीं दे सकतीं थीं लेकिन नवाज़ जब जेल गए हैं तो उनकी बेटी न सिर्फ समझदार हैं बल्कि बाप के शाने से शाना मिलाकर चल रही हैं. लेकिन पकिस्तान में फौज का साथ दे रही कट्टरपंथी जेहनियत एक औरत को सियासत की बुलंदी पर न कल देखना चाहती थी और यकीनन उसे आज भी यह व्यवस्था बर्दाश्त नहीं है.
ऐसे में 69 साल के मियां नवाज़ शरीफ और 44 बरस की मरियम नवाज़ शरीफ ने पकिस्तान को वह सब कुछ दिलाने की सियासत का आगाज कर दिया है जो उसे विभाजन के बाद से अब तक नहीं मिल सका है. जिसके लिए एक बाप (ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो) और एक बेटी (बेनज़ीर) भी अपनी कुर्बानियां पेश कर चुके हैं. तो क्या नवाज़ शरीफ जो भुट्टो परिवार के धुर विरोधी हैं, उनके ही नक्शे-कदम पर चलने की सोच चुके हैं.
अगर ऐसा है तो यह पकिस्तान और पकिस्तान की उस अवाम के लिए एक राहत भरा संदेश है जो विभाजन के बाद से अब तक सिर्फ खामोशी के साथ फौजी हुकूमत द्वारा किया जाने वाला लोकतंत्र का बलात्कार देखती आई है.
नवाज़ शरीफ का यह कदम पकिस्तान के भविष्य का निर्णायक मोड़ साबित होगा
अगर सियासी प्रायश्चित की राह पर निकल पड़े नवाज़ शरीफ ने सचमुच इस अवाम को अपने नेक इरादों का भरोसा दिला दिया तो मियां साहब का यह कदम पकिस्तान के भविष्य का निर्णायक मोड़ साबित होगा. क्योंकि पकिस्तान में होने वाले आम चुनाव के मतदान में अभी भी 10 दिन बाकी हैं, और बकौल इंग्लैंड के पूर्व प्रधानमंत्री हेराल्ड विल्सन राजनीति में एक हफ्ता बहुत लंबा अर्सा होता है और यहां तो अभी 10 दिन बाकी हैं.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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