पाकिस्तान फिल्मों की अगर बात करें तो मोटे तौर पर वहां उर्दू और पंजाबी फिल्मों का चलन रहा. हालांकि प्रादेशिक फिल्में जैसे पश्तो, सिंधी और सरायिकी, बलोची, गुजराती फिल्में भी बनी मगर वह इक्का दुक्का ही रहीं. बंटवारे के बाद कुछ अच्छे फनकार सरहद पार लाहौर फिल्म इंडस्ट्री जमाने में लग गए. देश नया था तो कुछ कर दिखाने का जुनून भी था. सहयोग मिला तो सफलता भी मिली. आजादी के बाद पहले दशक में कुछ 150 फिल्में बनी तो दूसरे दशक में यह संख्या 1100 के पास पहुंच गई.
यह बड़ी सफलता थी और मनोरंजन का यह उद्योग ठीक ठाक फल फूल रहा था. नायकों मे सुधीर (शाहज़मान खान), संतोष (सय्यद मूसा रज़ा) एजाज़ दुर्रानी और नायिकाओं में मैडम नूरजहां, स्वर्णलता (सईदा बानो) तथा सबीहा का जो कुछ सरहद पर छूट गया था उसे ही फिर से बनने की तमन्ना ने मनोरंजन के इस उद्योग को सही और लाभकारी दिशा दे दी थी.
बताने वाली बात यह है कि उन वर्षों में उन दो दशकों में पाकिस्तान में देशभक्ति फिल्मों का सर्वथा अभाव रहा. यह नहीं कि तब देशभक्ति फिल्में नहीं बनी. बनीं. मगर तब मुद्दा भारत नहीं था. नीलो की फिल्म ‘जरका’ जहां इज़राइल-फिलिस्तीन की कहानी कहते हुए मुजाहिदों को जगाने की बात करती हैं वहीं ‘छीन ले आजादी’ जैसी फिल्म मुसलमानों पर तार्तारी अत्याचार की कहानी कहती है. गौरतलब बात यह है कि इस वक्त तक पाकिस्तान, हिंदोस्तान के साथ दो-दो युद्ध कर चुका था मगर सिनेमाई स्तर पर हिन्दोस्तान से घृणा की भावना पर्दे पर नहीं आई थी. हां! सैनिकों का मनोबल बढ़ाने के लिए मैडम नूर जहां, मेहदी हसन साहब के ओज गीत जरूर लोगों की जुबान पर थे. इसमें नूर जहां का गाया गीत ‘ए वतन के सजीले जवानो’ तो सचमुच बड़ा कर्णप्रिय गीत था.
कब शुरू हुई समस्या?
सिर्फ फिल्मी दृष्टिकोण से बात करें तो समस्या सन 71 के युद्ध के बाद से शुरू हुई. जनरल याहया खान के मार्फत आम जन मानस में यह बात घर कर गई कि हिन्दोस्तान ने उनके अंदरूनी मामलों मे दखल दी है. कहानियां इस तरह बुनी जाने लगीं जैसे हिन्दोस्तान पाकिस्तान का नहीं बल्कि इस्लाम का विरोधी है. फिर जनरल जिया आए और फिल्मों का बनना लगभग रुक गया. सुल्तान राही की वहशी जट्ट, मौला जत्था मार्का फिल्में जरूर पंजाबी सर्किट में दिखती रहीं.
पाकिस्तानी फिल्मों में जो दूसरी पीढ़ी आई उसका हिंदोस्तानी जमीन से कोई कोई सीधा जुड़ाव न था और जो इस तरह की विषबोल सुनती-बोलती जवान हुई थी. शान शाहिद और बाबर अली जैसे नायक उसी पीढ़ी से आए दे जिस पीढ़ी के पैरोकार सरहदपार सनी देओल और अक्षय कुमार थे. कश्मीर अबतक सरहद पार की देशभक्ति का सहज चूर्ण था. जिसे इस दौर में खूब भुनाया गया. बात कश्मीर की समस्या दिखाने और बताने तक भी रहती तो ठीक थी. पाकिस्तानी फिल्मों का एक सूत्री एजेंडा धर्म के प्रति विष वमन हो गया. 90 के बाद बाढ़ की तरह आई देशभक्ति फिल्मों ने यह तय किया की शत्रु हिन्दोस्तान न होकर हिन्दू दिखाए जाएं.
काली कलूटी मद्रासन, तिलक वाले, गाय का पिशाब पीने वाले जैसे संवादों का प्रयोग जानबूझ कर किया जाने लगा. भारतीय खलनायक को अक्सर ‘हिन्दू’ खलनायक कहा गया. पृथ्वी को खत्म करने गौरी ही आता है जैसे संवाद जबर्दस्ती ठूसने के लिए खलनायक का नाम पृथ्वी और सेना के अफसर का नाम गौरी रखा गया.
मुसलमान, जिहाद, घर कब आओगे जैसी फिल्मों में भावनाओं से खेलने के लिए हास्यास्पद हो जाने की हद तक मूर्खताएं की गईं. सेना के सिपाही को तकिया कलाम की तरह ‘हे काली मैया’ या ‘हे राम’ रटते हुए दिखाया गया. कश्मीर में हर सिपाही को केसरिया टीका लगाकर मुजाहिदों का सामना करते फिल्माया गया. मकसद बस भावनाएं भड़का कर पैसे कमाना ही रहा जिसमें पाकिस्तानी फिल्मोद्योग सफल भी रहा. यह कारण है आज यदि किसी बड़े बजट की पाकिस्तानी फिल्म के बारे में सोचा भी जाता है तो पीछे की कहानी कश्मीर या कश्मीर को लेकर भारतीय दमन तक ही सीमित रहती है. क्योंकि यही खाद है यही पानी. नफ़रतों के सौदों मे फौरी फायदा हो ही जाता है.
पाकिस्तानी फिल्मोद्योग में एक मशहूर कॉमेडियन गुजरे हैं- रंगीला. उन्होंने मौज ही मौज में एक बात कही थी- देश लड़ रहे हैं अवाम देख रही है. सोचता हूं कि कैसी सही बात कही थी उन्होंने.
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