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गोली चली न खून बहा: ‘कांटे से कांटा’ निकालने की ‘कलाकारी’ यूपी पुलिस से सीखिए...!

‘कांटे से कांटा निकालने के फेर में आग से खेलने जा रहा हूं. मैं यह भली भांति जानता-समझता था. बखूबी वाकिफ था कि, बदमाश किसी का सगा नहीं होता

Updated On: Jan 20, 2019 06:49 PM IST

Sanjeev Kumar Singh Chauhan Sanjeev Kumar Singh Chauhan

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गोली चली न खून बहा: ‘कांटे से कांटा’ निकालने की ‘कलाकारी’ यूपी पुलिस से सीखिए...!

कांटे से कांटा निकालने की बात हो या फिर दुश्मन से दोस्त को निपटवा देने की हुनरमंदी. या दांत काटे की दोस्ती में भी दुश्मनी का जहर फैला देने की ‘कलाकारी’. अमूमन यह तमाम खूबियां समाज में किसी एक इंसान में विद्यमान नहीं मिला करती हैं. पेश ‘पड़ताल’ में मगर मैं इस कहावत को सरासर झूठा करार देने वाली सौ फीसदी सच्ची पुलिसिया कहानी बयान कर रहा हूं. हैरतंगेज पुलिसिया तफ्तीश से जुड़ी यह सच्ची घटना है, अब से करीब 41 साल पहले यानी सन् 1978 के आसपास की. तो आईए पलटते हैं इतिहास के पीले-फटे-पुराने हो चुके उन पन्नों को, जिन पर 1970 के दशक में लिखी गई थी यह खुबसूरत और यादगार ‘पड़ताल’. बतौर एतिहासिक तफ्तीशी-दस्तावेज और मिसाल के रूप में. कानून, पुलिस और हमारी आने वाली पीढ़ियों के वास्ते. एक बेहद संजीदा ‘पाठ’ की मानिंद.

जुलाई 1978 में यूपी की आगरा रेंज पुलिस

उन दिनों आगरा के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक (एसएसपी) हुआ करते थे पुलिसिया अक्खड़पन से एकदम परे मगर, दूर-दृष्टि और सूझबूझ वाले आईपीएस बी.एस. बेदी यानी बलबीर सिंह बेदी. बलबीर सिंह बेदी यूपी कैडर के 1961 बैच के दबंग और ईमानदार आईपीएस में शुमार थे. बाद में वह जम्मू-कश्मीर के पुलिस महानिदेशक पद से रिटायर हुए. जुलाई 1978 के आसपास की बात है. उन दिनों थाना मटसेना उत्तर प्रदेश के आगरा जिले में आता था. कालांतर में मटसेना थाना फिरोजाबाद जिले का हिस्सा बना दिया गया. पटरी से उतरे जिस पुलिस वाले को सीधे रास्ते पर लाना होता था. या फिर किसी आला अफसर को मातहत से कोई पुराना हिसाब-किताब बराबर करना होता था. उसकी पोस्टिंग मटसेना थाने में कर दी जाती थी.

थाना जहां दफन हुए होंगे तमाम बहादुरों के ‘अरमान’

सड़क, न बिजली-पानी और न ही आने-जाने के लिए कोई सवारी. मटसेना थाने पहुंचने का रास्ता ऐसा जिस पर मरीज अस्पताल पहुंचने से पहले रास्ते में ही दम तोड़ दे. कुल जमा सस्ते के जमाने में भी मटसेना थाने की पोस्टिंग किसी भी पुलिस वाले के लिए सबसे ‘मंहगी’ साबित होती थी. अगर यह कहूं कि, यूपी पुलिस के बड़े से बड़े ‘हेकड़’ या खुद को तुर्रम अथवा फन्ने-खां समझने वाले पुलिसकर्मियों का हलक सुखाने की जगह थी मटसेना थाना तो मिथ्या नहीं होगा. जिला मुख्यालय से मटसेना थाने की दूरी उन दिनों थी करीब 50 किलोमीटर. थाने में बिजली पानी का कोई इंतजाम नहीं. खाने-पीने की सहूलियत की बात तो दूर की कौड़ी थी. रोशनी के वास्ते रात में लालटेन या फिर मोमबत्ती का ही सहारा था. थानेदार (SHO) को रहने के लिए थाने के ठीक सामने बने मकान की पहली मंजिल पर मौजूद छप्पर वाला कमरा बतौर सरकारी आवास मुहैया कराया जाता था.

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अकाल मौत भला किसे प्यारी लगती है!

4-5 कमरों वाले किराए के मकान में थाना चलता था. और तो और प्रात:काल शौच के लिए जब एक पुलिस वाला बियाबान जंगल की ओर जाता. तो दो-तीन हथियारबंद उसकी हिफाजत के लिए साथ जाकर आसपास पहरा (निगरानी) दिया करते. रात के वक्त अगर थाने में कोई पुलिसकर्मी बीमार पड़ जाए. तो शहर यानी आगरा ले जाने के लिए भोर होने (दिन निकलने का) तक इंतजार करने के सिवाए कोई दूसरा रास्ता नहीं था. वजह रात में पुलिस वाले अगर शहर की ओर कूच करते तो, न मालूम कहां कब अंधेरे का फायदा उठाकर डाकू पुलिस वालों को घेर कर मार-कूट लें! अगर यह कहूं कि, उस जमाने में यूपी जैसे बड़े सूबे की सल्तनत में मटसेना सी घटिया (बदतर और पिछड़े हालात वाली जगह) कोई दूसरी जगह पुलिस की नौकरी के लिए नहीं थी. बल्कि पुलिस वाले तो मटसेना की पोस्टिंग को ‘काला-पानी’ की तैनाती भी बोला करते थे. भले ही वे वहां पहुंचकर पीने के पानी की बूंद के लिए भी तरस जाते हों.

सब वक्त-वक्त की बात है....चार दशक बाद यानि आज का थाना मटसेना

सब वक्त-वक्त की बात है....चार दशक बाद यानि आज का थाना मटसेना

इंस्पेक्टर की सर्विस-बुक (C.R.) SSP ‘हिस्ट्रीशीट’ समझे!

उन्हीं दिनों (जुलाई-अगस्त 1978) के आसपास यूपी पुलिस के एक दबंग एनकाउंटर स्पेशलिस्ट इंस्पेक्टर को मटसेना थाने का प्रभारी बनाकर भेजा गया. जिले में नए-नए पहुंचे इंस्पेक्टर की सर्विस-बुक देखते ही पुलिस कप्तान साहब नवागंतुक मातहत इंस्पेक्टर से बोले, ‘यह सर्विस बुक क्या है? यह तो तुम्हारी हिस्ट्रीशीट सी दिखाई दे रही है. इस सर्विस-बुक के हिसाब से तो ऐसा मालूम पड़ता है जैसे मानों, तुम्हीं ने पूरे यूपी में मौजूद अपराधियों को मारने का ठेका ले रखा हो! कोई बात नहीं. मेरे जिले में आए हो तो, पुरानी ‘सीआर’ कोई मायने नहीं रखती है. तुम्हें यहां (मटसेना थाने की तैनाती) नई परीक्षा पास करनी होगी. मटसेना थाने की तैनाती में अगर पास हो गए तो कहीं फिर तुम पुलिसिया नौकरी में कभी कहीं जिंदगी भर मात नहीं खाओगे.’

उस्ताद’ की चुनौती ने बदल दी जिंदगी

एसएसपी की उस चुनौती को मातहत इंस्पेक्टर यानी मटसेना थाने का वो नया-नया प्रभारी मन में गांठ सी रखकर चुपचाप वापस लौट गया. यह सोचकर कि, जब तक मटसेना की पोस्टिंग में वो कुछ करके नहीं दिखा देगा. तब तक कप्तान (एसएसपी बलबीर सिंह बेदी) के सामने नहीं पड़ेगा. उन दिनों मटसेना और उसके आसपास के थाना-क्षेत्रों में वीरभान, अतिराज औरजोराबर डाकुओं के गैंग का आतंक था. इन डाकू गैंग से इलाके और थाने को सुरक्षित रखने के लिए ही मटसेना थाने में हर वक्त एक प्लाटून पीएसी डेरा डाले रहती थी. नए-नए थाना प्रभारी दबंग इंस्पेक्टर आर. सी. सिंह ने एक दिन मठसेना इलाके में बजरिए मुखबिर, डाकू वीरभान के एक विश्वासपात्र को पकड़वा कर अपने सामने पेश करा लिया. वीरभान के विश्वासपात्र को लगा कि, उसका (वीरभान गैंग) गैंग अब नेस्तनाबूद हो जाएगा. तो उसने वीरभान डाकू की एक गुप्त भेंट इंस्पेक्टर आर.सी सिंह से करवा दी.

कांटे से कांटा निकालने की जुगत काम आई

बकौल रिटायर्ड इंस्पेक्टर आर.सी सिंह, ‘जब मेरे सामने डाकू वीरभान आ गया तो, वो अपनी जिंदगी की ‘भीख’ मांगने लगा. उसे डर था कि कहीं मैं, उसका एनकाउंटर न कर दूं. जब मुझे विश्वास हो गया कि, डाकू वीरभान मुझसे भीषण डरा हुआ है. तो मैंने गरम लोहे पर चोट कर दी. सोचा क्यों न कांटे से कांटा निकाल लिया जाए. सो मैंने वीरभान से कहा कि, मैं तेरा एनकाउंटर नहीं करुंगा. शर्त यह है कि, तुम मेरी पकड़ (रेंज या हद) में डाकू अतिराज और जोराबर को ला दो. मैं जानता था कि, अतिराज और जोराबार गैंग की डाकू वीरभान गैंग से भयंकर दुश्मनी थी. अपनी जान बचती हुई देखकर डाकू वीरभान मेरी शर्त मानने को तैयार हो गया. उस जमाने में यूपी पुलिस का डाकू अतिराज पर 25,000 और जोराबर डाकू के सिर पर 15,000 का भारी-भरकम इनाम था.’

आज के मटसेना थाना परिसर में जनता के सहयोग से तैयार जन-सुनवाई-केंद्र

आज के मटसेना थाना परिसर में जनता के सहयोग से तैयार जन-सुनवाई-केंद्र

शक नहीं विश्वास था इसलिए उसे ही ‘टारगेट’ दिया

‘फ़र्स्टपोस्ट हिंदी’ ने सन् 1978 में आगरा जिले के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक रहे और बाद में जम्मू-कश्मीर के पुलिस महानिदेशक पद से रिटायर होने वाले पूर्व आईपीएस 85 साल के बुजुर्ग बलबीर सिंह बेदी को भी खोज निकाला. पुलिसिया नौकरी में और उससे रिटायर होने के बाद जिंदगी भर मीडिया से दूर रहने वाले बेबाक बेदी ने बताया, ‘वीरभान, जोराबार और अतिराज डाकू गैंग्स ने वाकई उन दिनों पब्लिक की बात छोड़िए, पुलिस की जिंदगी नरक कर रखी थी. तीनों गैंग और उनके सरगना पुलिस या फिर पुलिस के मुखबिर को देखते ही सीधे गोलियों से बात करते थे. उन दुर्दिनों में इंस्पेक्टर आर.सी सिंह का मेरे जिले में पहुंच जाना किस्मत की ही बात थी. अगर उस इंस्पेक्टर की बहादुरी पर मुझे जरा भी शक होता तो मैं उसे कभी भी जोराबार, अतिराज और वीरभान से खूनी-खूंखार डाकुओं से सीधा मुचैटा लेने के लिए मटसेना थाने में तैनाती न देता. आज भी मुझे उस बहादुर इंस्पेक्टर का चेहरा खूब याद है. उसे इतनी बड़ी जिम्मेदारी देते वक्त मैं तो सोच रहा था कि, कहीं कोई अनर्थ न हो जाये. उस इंस्पेक्टर ने तो मगर तीनो गैंग्स को एक ही रात में जिंदा दबोचकर पूरी यूपी पुलिस की ही नाक ऊंची कर दी.’

डाकू डाल-डाल तो पुलिस पात-पात

‘कांटे से कांटा निकालने के फेर में आग से खेलने जा रहा हूं. मैं यह भली भांति जानता-समझता था. बखूबी वाकिफ था कि, बदमाश किसी का सगा नहीं होता. फिर भी जोखिम में ही जीत है. इस उम्मीद के साथ मैंने वीरभान पर विश्वास किया. मगर पूरी सतर्कता बरतते हुए. ताकि वो पुलिस को या मुझे कहीं भी धोखे से नुकसान न दे बैठे. मेरे कहने पर वीरभान डाकू इस बात पर तैयार हो गया कि वो, अपने दुश्मन गैंग यानी जोराबर और अतिराज डाकू और उसके पूरे गैंग को पुलिस की रेंज में ले आएगा. चूंकि मेरी डील उस डाकू वीरभान से हो रही थी जिसने, कभी भी अपने शिकार को जिंदा नहीं छोड़ा था. ऐसे में सतर्कता बरतते हुए मैने वीरभान से कहा कि, जोराबर और अतिराज डाकू गैंग को जंगल में बुला लो, लेकिन यह काम तुम अपने सभी डाकुओं के साथ मिलकर करोगे. क्योंकि मुझे अपने आदमियों (उस जमाने के थाना मटसेना के पुलिसकर्मियों और पीएसी जवानो पर) पर ज्यादा विश्वास नहीं है! हालांकि यह मेरी डाकुओं को ठिकाने लगाने के लिए रचे गए चक्रव्यूह (रणनीति) का हिस्सा और साफ झूठ था. मैं चाहता था कि, किसी तरह भी वीरभान अपने भी सब डकैतों (गैंग-मेंबर्स) को एक ही जगह पर जोराबार-अतिराज गैंग के साथ इकट्ठा कर ले. इससे हमें एक डकैत (वीरभान) की मदद से तीन-तीन डाकू गैंग एक ही जगह पर इकट्ठे मिल जाने का लालच था. हांलांकि साथ ही मैने वीरभान को यह भी बता दिया कि, जोराबार और अतिराज गैंग को दबोचने के वक्त मेरे साथ पीएसी और पुलिस के जवान भी सादा कपड़ों में रहेंगे.’ बताते हैं उस जमाने के मशहूर एनकाउंटर स्पेशलिस्ट रिटायर्ड इंस्पेक्टर आर.सी. सिंह.

1978 और आज की मटसेना पुलिस में जमीन-आसमान का बदलाव आ चुका है....मटसेना (जिला फिरोजाबाद) थाने के मौजूदा थाना प्रभारी नीरज मिश्रा

1978 और आज की मटसेना पुलिस में जमीन-आसमान का बदलाव आ चुका है....मटसेना (जिला फिरोजाबाद) थाने के मौजूदा थाना प्रभारी नीरज मिश्रा

दुश्मन-दोस्त और विश्वासघात का मेला

मटसेना थानाध्यक्ष के कहे मुताबिक और उनके द्वारा रचे गए षडयंत्र से पूरी तरह अनजान, डाकू वीरभान अपने साथी डाकुओं को भी जंगल में खुद ही खुशी-खुशी इकट्ठा करके ले आया. इस उम्मीद में कि, उसके दो कट्टर दुश्मन (डाकू जोराबर और अतिराज गैंग) एक साथ ही पुलिस के हाथों निपटा कर ढेर कर दिए जाएंगे. इसके बाद अपराध की दुनिया में उसका एक-छत्र राज कायम होने से कोई नहीं रोक सकेगा. तय पुलिसिया षडयंत्र (योजना) के मुताबिक, एक ही रात में. डाकू वीरभान के विश्वास में आकर उसके दुश्मन डाकू जोराबार और अतिराज भी अपने सभी डकैतों के साथ जंगल में एक जगह पर पहुंच गए. वहां पहले से ही आसपास घात लगाए हथियारबंद पुलिस और पीएसी पहले से तैयार बैठी हुई थी.’

पुलिस-पीएसी के शिकंजे में सब फंसे

डाकुओं की वेशभूषा में. पुलिस और पीएसी के जवानो को ठेठ गांव वालों की ड्रेस में देखकर जोराबर और अतिराज डाकू सरगना उन्हें, वीरभान गैंग के मेंबर समझकर चुप्पी साध गये. वहां मौजूद मटसेना थाना प्रभारी डाकू वीरभान को इस बात के लिए पहले ही तैयार कर चुका था कि, उसके हर डाकू के साथ बायीं साइड में एक पीएसी या पुलिस का जवान भी बैठेगा. ‘विनाशकाले विपरीत बुद्धि’ वाली कहावत को चरितार्थ करता हुआ खुद की जान बचाने के फेर में. डाकू वीरभान वैसा ही करता गया जैसा, मटसेना थाना प्रभारी इंस्पेक्टर आर. सी सिंह बताते गए. सादा कपड़ों में हर डाकू के बराबर में पीएसी और पुलिस के जवानों को इसलिए बैठाया गया था ताकि, उनके द्वारा दबोचे जाने के वक्त जवानों की पकड़ डाकुओं पर मजबूत रह सके.

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हैरतगेंज ‘पड़ताल’ जो हादसा बनने से बच गई

‘फिर वही हुआ जो पुलिस चाहती थी. जैसे ही वीरभान गैंग, जोराबर और अतिराज गैंग जंगल में एक जगह आकर इकट्ठे हो गए. पहले से तैयार बैठी पुलिस-पीएसी ने उन सब डाकुओं को मय असहला काबू करके ट्रकों में लाद दिया. अगले दिन सुबह-सुबह एक साथ तीन-तीन गैंग के डाकुओं से भरा ट्रक सामने देखकर एसएसपी बलबीर सिंह बेदी की आंखें हैरत से खुली रह गईं.’ सन् 1978 की वो नायाब ‘पुलिसिया-पड़ताल’ की रोंगटे खड़ी कर देने वाली सच्ची कहानी बयान करते-करते आज 41 साल बाद अतीत की खूबसूरत यादों में खो जाता है.

डाकुओं से हमेशा चार कदम आगे चलने वाला कल का दिलेर दारोगा... और आज करीब 78 साल के हो चुके बुजुर्ग पूर्व इंस्पेक्टर आर. सी सिंह. उस अविश्वसनीय वाकिये के बाबत अब 41 साल बाद पूछे जाने पर बलबीर सिंह बेदी बताते हैं कि, ‘अब वो पुलिस नहीं रही है. वक्त के साथ सब कुछ बदल गया है. पुलिस को अगर बदलना ही था समय के साथ. तो कुछ बेहतरी की ओर कदम बढ़ाती. 1970 के दशक में पुलिस के पास संसाधनों का खासा अभाव था. आज संसाधन भरपूर हैं. संसाधनों का मगर कारगर इस्तेमाल करने की सलीका शायद ईजाद नहीं हुआ है अभी तक. हो सकता है कि मैं गलत होऊं!’

1978 और आज के ‘मटसेना’ में जमीन-आसमान का फर्क

इस पूरे मामले पर मटसेना थाने के मौजूदा इंचार्ज सब-इंसपेक्टर नीरज मिश्रा से बात की गयी. उनके मुताबिक इतिहास हमें सिखाता-पढ़ाता है. मटसेना-थाना पुलिस ने भी अतीत से बहुत कुछ सीखा-समझा-देखा है. शायद उसी का प्रतिफल सामने है कि, स्थानीय निवासियों के सहयोग से इस थाने में आज सीमेंटिड ‘जन-सुनवाई-केंद्र’ की स्थापना संभव हो सकी. इस निर्माण कार्य के पूरा हो पाने के पीछे, पुलिस के ईमानदार प्रयास और जनता द्वारा बेइंतहाई खुले-दिल-मन से सहयोग प्रमुख वजह रहे हैं. 1978 और आज के मटसेना में जमीन-आसमान का फर्क सामने है. जो उल्लेखनीय और काबिल-ए-तारीफ है.

(लेखक वरिष्ठ खोजी पत्रकार हैं)

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