‘इनसाइक्लोपीडिया ऑफ हिन्दी सिनेमा’ सत्तर के दशक को खास महत्व देती है और उसके साथ ही इस बात पर भी ज़ोर देती है कि इस दशक के मध्य में आई फिल्म ‘शोले’ ने आगामी खलनायकों की दिशा और दशा तय की. किस्सा कोताह, कहने का अर्थ यह कि खलनायक अब अतिकल्पित हो गए. असाधारण गेट-अप. संवाद अदायगी में चीख. आवाजों में बुलंदी. अभिनय में अति नाटकीयता खलनायकी का पर्याय बन गई.
इसी वक्त ठीक मराठी सिनेमा में एक बदलाव हो रहा था. बदलाव सिनेमाई गढ़ का. मराठी सिनेमा जिसका गढ़ कोल्हापुर था, अब पुणे के बरास्ते मुंबई (तब की बॉम्बे) शिफ्ट हो रहा था.
उपरोक्त दोनों बातों में साम्य क्या है? उपरोक्त दोनों बातों में साम्य का नाम है- नीलकंठ कृष्णाजी फुले उर्फ नीलु भाऊ फुले; जिन्हें हिन्दी सिने दर्शक नीलु फुले के नाम से जानते हैं. मराठी फिल्मों को नया गढ़ मिला-मुंबई और हिन्दी फिल्म उद्योग को नया खलनायक- नीलु फुले.
वक्त बीतने के साथ-साथ दर्शकों को डकैतों और अंग्रेजी कॉमिक्स सरीखे खलनायक से ऊब होने लगी. निर्देशकों की एक नई खेप भी आई जिसे इसी धरती के, अपने बीच के लोग चाहिए थे जो अपने अभिनय से अपने भीतर के ग्रे शेड को उभारें. नीलु फुले इस पहली खेप के सबसे सशक्त अदाकार थे. अपने वरिष्ठों की चीखते संवादों के उलट नीलु फुले की खामोशी भय पैदा करती थी. पर्दे पर उनकी उपस्थिति मात्र ही अपनी बात कह जाती थी. उनकी क्षण भर की खामोशी दर्शकों के शरीर में सिहरन पैदा कर देती थी.
महान समाज सुधारक ज्योतिबा फुले के खानदान से आने वाले नीलु फुले भी युवावस्था से उनके विचारों से प्रभावी थे. सत्रह साल की उम्र में आर्म्ड फोर्स मेडिकल कॉलेज पुणे में माली की नौकरी करने वाले नीलु फुले तब भी अपनी अस्सी रुपए की मासिक तनख्वाह में से दस रुपए राष्ट्रीय सेवा दल को दान करते थे. नीलु अपनी खुद की नर्सरी खोलना चाहते थे. मगर पैसे की तंगी के चलते वह सपना पूरा न हो सका और वह आगे बढ़ गए.
रवीन्द्र नाथ ठाकुर की एक कहानी से प्रभावित होकर नीलु ने अपने नाटक उद्यान का मंचन तब किया जब वे मंचन और नाटकों से सर्वथा अनभिज्ञ थे. मगर उनकी अदाकारी का ही यह जादू था कि उन्होने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा. विजय तेंदुलकर की सखाराम बाइंडर दरअसल मंचन के वक्त नीलु फुले की सखाराम बाइंडर हो जाती प्रतीत होती है. फिल्म सारांश के लिए अभिनीत नेता गजानन चित्रे की उनकी भूमिका ठीक वही बात कहती है जो उस किरदार की मांग थी.
एक आश्चर्य जनक सत्य यह भी है कि सामंती व्यवस्था के धुर विरोधी नीलु फुले ने ज़्यादातर भूमिकाएं सामंत, जमींदार, नेता इत्यादि की ही निभाईं. इस व्यवस्था की क्रूरता को करीब से जानने वाले नीलु फुले को इसे अभिनय में उतारने में ज्यादा दिक्कत नहीं हुई. उनकी अदाकारी का ईश्वरप्रदत्त एक गुण यह भी था कि उनके साथ साथ उनके चेहरे की मांसपेशियां भी हरकत करती थीं जो उनके अभिनय को बाकियों से अलग ला खड़ा करती थीं. अपनी जीभ को गाल के भीतर घुमाकर वह जो कामुकता अपने चेहरे पर लाते थे वह बाद के वक्त तक अतुलनीय है. अपने समाज सेवी कार्यों के लिए वह जब कभी जनसभा को संबोधित करते तब भी औरतें उनसे दूर दूर ही रहती. यह प्रभाव उनकी अचूक अदाकारी का था.
नीलु ने हिन्दी में कम फिल्में कीं. इसका कारण उनकी हिन्दी संवाद अदायगी में परेशानी रही. वह मराठी में जितने सहज रहे उतने सहज हिन्दी में नहीं रहे. मराठी फिल्मों में उन्हें जितनी विविधता मिली वह हिन्दी फिल्मों में नहीं मिली. हिन्दी फिल्मों में भी वह मराठी टोपी पहने मराठी माणूस की भूमिका में कैद होने लगे. मगर कारण सिर्फ यही नहीं रहा. नीलु फुले एक साथ चार चार मंचों पर काम करते रहे. हिन्दी फिल्मों के अलावा, मराठी फिल्म, मराठी थियेटर, लावणी और तमाशा नृत्यों के विकास कार्य के साथ-साथ वह समाज सेवा को भी बराबर वक्त देते रहे. वह आजीवन अंधविश्वास निर्मूलन समिति के सदस्य बने रहे.
स्वभाव से नास्तिक और दलित चिंतक नीलु भाऊ फुले अपने अंतिम दिनों में फिल्मों से थोड़े विमुख हुए तो उसका कारण स्वास्थ्य ही रहा. फोर्ब्स पत्रिका ने जब सार्वकालिक 25 अभिनयों को सूचीबद्ध किया तो नीलु फुले द्वारा फिल्म ‘सामना’ में की गई अदाकारी ने निर्विवाद रूप से अपनी जगह बनाई. अभिनेता जिसने मेथड एक्टिंग को हिन्दी फिल्म खलनायकों के लिए पुनर्जीवित किया का सन 2009 में कैंसर की बीमारी से निधन हो गया. यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि मराठी फिल्मों का इतिहास प्रारम्भ कहीं से भी हो, नीलु फुले की योगदान के चर्चा के बिना समाप्त नहीं हो सकता.
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