वर्तमान में बॉलीवुड की वैश्विक छवि कुछ भारतीयों के जुनून का नतीजा है. इन्हीं जुनूनी नामों में से एक है महबूब खान. महबूब खान को गुजरे पांच दशक से ज्यादा बीत चुके हैं पर उनका महत्व आज भी पूरी दुनिया के सामने, उनकी मैग्नम ओपस 'मदर इंडिया' के तौर पर है. भारतीय इस पर गर्व करते हैं और करते रहेंगे. आज महबूब की 53वीं बरसी पर उनकी इसी सर्वश्रेष्ठ फिल्म के जरिए उन्हें याद करते हैं -
देश में लोकप्रियता और हर तरह की तारीफों के ढेर लगाने के बाद मदर इंडिया की लोकप्रियता सरहदों के पार ही नहीं गई थी, बल्कि सात समंदर पार पहुंच गई थी. इसका ऑस्कर से चूकना राष्ट्रीय निराशा का विषय रहा. साथ ही इससे जुड़े तमाम किस्से महबूब को एक डायरेक्टर के तौर पर समझ पाने के लिए जरूरी हैं.
'मदर इंडिया' के रूप में महबूब खान ने अपनी ही फिल्म 'औरत' का रीमेक बनाया था. औरत 1940 में महबूब के ही निर्देशन में आई ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म थी.
'मदर इंडिया' का महत्व ये भी है कि तीन भारतीय फिल्में हीं हैं जो ऑस्कर के सबसे करीब आकर चूकी हैं - 'लगान', 'सलाम बॉम्बे' और 'मदर इंडिया'. पर इसमें सबसे करीब से ऑस्कर चूकने वाली फिल्म 'मदर इंडिया' ही है.
प्रोड्यूसर - डायरेक्टर महबूब खान की ये फिल्म भारतीय विधवा राधा की एक तीन घंटे लंबी कहानी है. इसमें उसकी जिंदगी के संघर्षों और बलिदानों को दिखाया गया है. जिसका अंत उसके खुद के बेटे को ही मारने से होता है जो डाकू बन जाता है.
निम्मी पल्लू में नोट का बंडल दबाए आईं और मैनेजर को थमा गईं
इस फिल्म के निर्माण की कहानी भी किसी फिल्म की कहानी से कम नहीं है. इसमें बहुत सी परेशानियां और मुश्किलें पेश आईं थीं. मसलन बजट को ही ले लीजिए. उस वक्त फिल्म बनाने में 40 लाख रुपये से ज्यादा का खर्च आया था, जिसके चलते महबूब खान जैसे स्थापित डायरेक्टर को भी पैसों की कमी हो गई.
जब एक दौरान फिल्म का काम पैसों की कमी के चलते रुका हुआ था उस दौरान महबूब खान की हितैषी एक्ट्रेस निम्मी अपने साड़ी के पल्लू में नोटों का मोटा सा बंडल दबाए हुए उनके ऑफिस पहुंचीं और उनके मैनेजर को वो नोट थमाते हुए बोलीं, 'ये मदद फिल्म को पूरी करने के लिए है पर प्लीज ये बात महबूब साहब को मत बताइएगा.'
फिल्म के शीर्षक से फूल गए थे सरकारी महकमों के हाथ-पांव
फिल्म का शीर्षक अमेरिकन लेखिका 'कैथरीन मायो' की 1927 में भारत पर इसी नाम से आई किताब से लिया गया था. इस किताब में भारत के समाज, धर्म और संस्कृति पर प्रहार किया गया था. भारत की स्वशासन की मांग और अंग्रेजों से स्वतंत्रता की मांग का भी इस किताब में मजाक उड़ाया गया था.
इस किताब का भारत में कड़ा विरोध हुआ. लोगों ने किताब के साथ ही मायो का भी पुतला फूंका. 'महात्मा गांधी' ने किताब की आलोचना करते हुए कहा, 'ये किताब एक नाली सफाई इंस्पेक्टर की रिपोर्ट की तरह लगती है, जिसे देश की नालियां खोलकर उनका परीक्षण करने और रिपोर्ट बनाने का काम सौंपा गया हो.'
मृणालिनी सिंहा 2006 में आई अपनी किताब, स्पेक्टर्स ऑफ मदर इंडिया में एक रोचक किस्से का जिक्र करती हैं. चूंकि महबूब खान के दिमाग में आजादी के पांच साल बाद फिल्म और टाइटल का आइडिया आया था और 1955 में भारत सरकार के विदेश विभाग और सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को इस बात की जानकारी मिली कि फिल्म का शीर्षक बखेड़ा खड़ा करने वाली उसी कैथरीन मायो की किताब पर आधारित है.
इसपर उन्होंने फिल्म निर्माताओं से फिल्म की स्क्रिप्ट रिव्यू के लिए मांगी. क्योंकि उनका मानना था कि ऐसी फिल्म देशहित के लिए खतरा हो सकती है. 17 सितंबर, 1955 को फिल्म की टीम ने स्क्रिप्ट के साथ ही दो पन्ने का एक लेटर भी मंत्रालयों को भेजा. जिसमें लिखा था: 'हमारे प्रोडक्शन की फिल्म और मायो की किताब को लेकर बहुत से कंफ्यूजन और गलतफहमियां हो चुकी हैं. दोनों अलग ही नहीं बल्कि विरोधी हैं. हमने इसका नाम जानबूझकर 'मदर इंडिया' रखा है क्योंकि फिल्म उस किताब के लिए एक चुनौती है. ये लोगों के दिमाग को मिस मायो की किताब के अभद्र काम को मिटा देने का एक प्रयास है.'
महबूब खान ने भारत को ऑस्कर तक पहुंचाया पर अपनी विचारधारा को किनारे रखकर
आखिरकार फिल्म 1957 में रिलीज हुई और जैसी आशा थी बहुत बड़ी हिट साबित हुई. जो कि एक साल तक थिएटरों में चढ़ी रही. जब ये सब हो रहा था, उससे ठीक एक साल पहले एकेडमी अवॉर्ड्स यानि ऑस्कर ने अवॉर्ड्स की एक नई कैटेगरी बेस्ट फॉरेन लैंग्वेज फिल्म की शुरुआत की थी और महबूब जाहिर तौर पर इस ऑस्कर को अपनी सर्वश्रेष्ठ कृति के लिए पाने को लालायित थे.
इसलिए मदर इंडिया की उस साल के ऑस्कर्स के लिए एंट्री कराई गई. इस कूटनीतिक प्रयास में इस बात का भी ख्याल रखा गया कि फिल्म के ओरिजनल प्रिंट पर जो हथौड़ा और हसिए का निशान था, उसे हटा दिया गया, जिससे ऑस्कर अवॉर्ड की कमेटी शीत युद्ध के एंटी कम्युनिस्ट दौर में महबूब खान के कम्युनिस्ट झुकाव को जानकर नाराज न हो.
प्रतिद्वंदी भी धाकड़ थे
मदर इंडिया ने पांच सर्वश्रेष्ठ विदेशी फिल्मों में भी जगह बना ली. वास्तव में, उस वक्त जो खबरें हॉलीवुड से आ रही थीं, उनके अनुसार तो मदर इंडिया को ऑस्कर के लिए चुन लिया गया बताया जा रहा था.
एक हद तक ये रिपोर्ट इतनी विश्वसनीय हो गईं कि महबूब खान ने आखिरी वक्त में लॉसएंजेल्स जाकर खुद ऑस्कर लेने का फैसला कर लिया. हालांकि तब के जमाने में ऐसा कर पाना आसान काम नहीं था.
मदर इंडिया ने एकेडमी में फिल्मों के लिए वोट करने वालों को केवल अपनी कहानी, फिल्म की संरचना और एक्टिंग से ही प्रभावित नहीं किया बल्कि इसलिए भी बेस्ट फॉरेन लैंग्वेज फिल्म कैटेगरी की फिल्म बनकर उभरी क्योंकि इसने भारत की वही छवि दर्शकों के सामने पेश की जो दर्शक इंडिया के बारे में सोचते हैं.
हालांकि मदर इंडिया को लोगों ने बहुत पसंद किया पर इस साल टक्कर बहुत कड़ी थी. क्योंकि 'मदर इंडिया' के साथ दौड़ में जर्मन-अमेरिकन डायरेक्टर 'रॉबर्ट सियोडमैक' की 'द डेविल केम एट नाइट', फ्रेंच डायरेक्टर 'रेन क्लेयर' की 'द गेट्स ऑफ पेरिस' और मजबूत दावेदार इटली के मशहूर डायरेक्टर 'फेडरिको फैलिनी' की 'नाइट्स ऑफ कैबिरिया' भी थीं. फैलिनी ने पिछले साल भी बेस्ट फॉरेन फिल्म कैटेगरी में अपनी फिल्म 'ला स्ट्राडा' के लिए ऑस्कर जीता हुआ था.
महबूब को पड़ा दिल का दौरा और अफवाहों से पट गया बाजार
कांटे की टक्कर थी और मदर इंडिया जो शुरुआत से ही भारी पड़ती दिख रही थी पर आखिरी वक्त में वो 'फैलिनी' की 'नाइट्स ऑफ कैबिरिया' से हार गई. इससे भी ज्यादा दुखद बात है, मात्र एक वोट से. लेकिन ये वाकया यहीं तक नहीं रुका. क्योंकि जैसे ही महबूब खान को ये बात पता चली, उन्हें हार्ट अटैक पड़ गया और आनन-फानन में वो हॉस्पिटल ले जाए गए.
जब ये खबर भारत पहुंची तो भारत में जनता की निराशा गुस्से में बदलने लगी. इसी दौरान हार के बारे में कई थ्योरीज का जन्म हुआ. एक आलोचना करने वाली प्रचलित थ्योरी के अनुसार कहा गया कि अनैतिक अमेरिकी कभी नहीं समझ सकते कि संस्कारी राधा ने क्यों लाला के पैसे अपने और बच्चों के लिए नहीं स्वीकारे?
उन्होंने 'राधा' का 'सुक्खी लाला' से संबंध ना बनाकर बुरी स्थिति में बने रहना गलत समझा. क्योंकि उनके हिसाब से अगर 'राधा' ये समझौता कर लेती तो उसकी जिंदगी आसान हो जाती.
पर महबूब समझ रहे थे, कहां रह गई गलती
हालांकि इस मामले में महबूब खान का एनलिसिस ज्यादा सही लगता है. उन्होंने अपने साथियों से कहा था कि ऑस्कर जीतने के लिए फिल्म को जितनी पब्लिसिटी की जरूरत होती है वो उन्होंने नहीं की थी. और अगर उन्हें ये बात पहले पता होती तो उन्होंने इस खेल को दूसरी तरह से खेला होता.
महबूब ने बिल्कुल सही प्वाइंट पकड़ा था. बेहतरीन मार्केटिंग स्किल आज भी ऑस्कर जीत के लिए एक महत्वपूर्ण फैक्टर बना हुआ है. इसे भी भारतीय फिल्मों के ऑस्कर न जीत पाने की एक महत्वपूर्ण वजह माना जाता है.
हालांकि इस मामले में भी लगान एक अपवाद है. जिसने अपने प्रचार पर 20 लाख डॉलर खर्च किए थे और इससे उसे सीमित सफलता मिलती भी दिखी थी.
इसके बाद महबूब खान ने 1958 में फिर से शपथ ली कि वो मदर इंडिया फिल्म का सीक्वल बनाएंगे. और इस तरह से अपने खोए हुए ऑस्कर को फिर से पा के दिखाएंगे. चार साल बाद उन्होंने 'सन ऑफ इंडिया' नाम की एक फिल्म बना भी ली. पर उस वक्त तक उनका वक्त बदल चुका था. दुर्भाग्य से फिल्म बिना कोई प्रभाव छोड़े फ्लॉप हो गई. और फिर महबूब खान ने दोबारा कोई फिल्म नहीं बनाई.
महबूब का ये जुनून उनकी दूसरी फिल्मों के लिए भी था. उन्होंने जो भी काम किया उसमें जान लगा दी. लोग अपने दौर में उनके साथ काम करने को तड़पा करते थे. यहां तक कि स्थापित नाम वाले दिलीप कुमार ने भी महबूब की मदर इंडिया में डबल रोल के लिए महबूब साहब को राजी करने के लिए बहुत कोशिशें की थीं पर सफल नहीं रहे थे.
महबूब साहब की मेहनत का ही नतीजा है कि 'मदर इंडिया' सिनेमा के चाहने वाले को अभी सालों-साल आकर्षित करती रहेगी.
चलते-चलते
कहा जाता है कि महबूब साहब जिस भी एक्ट्रेस पर नजरें इनायत कर देते थे, उसका करियर चमक जाता था. मधुबाला, मीना कुमारी और नूरजहां का करियर बनाने का श्रेय महबूब साहब को ही दिया जाता है. पर एक वक्त ऐसा भी आया कि मीना कुमारी के पास महबूब साहब की फिल्म के लिए वक्त नहीं था.
दरअसल, उस वक्त हिरोइनों के रोल उनके पिता ही तय किया करते थे. ऐसे में एक बार मीना कुमारी के पिता जी ने महबूब साहब को उनकी फिल्म 'अमर' की शूटिंग के लिए मीना कुमारी की डेट्स दे दी थीं. और जब ये बात मीना कुमारी को उन्होंने बताई तो मीना कुमारी ने मना कर दिया.
मीना कुमारी ने कारण बताया कि वो पहले ही वो तारीखें कमाल अमरोही साहब को दे चुकी थीं. इसके बाद से मीना कुमारी के संबंध पिता से और बिगड़ते चले गए जो आगे कभी नहीं सुधरे. और मीना कुमारी ने आगे चलकर अपना घर छोड़ दिया.
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