'जो भरा नहीं है भावों से जिसमें बहती रसधार नहीं. वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं.'
मैथिलीशरण गुप्त यानी राष्ट्रकवि. दद्दा के नाम से ख्यात मैथिलीशरण गुप्त सच में भारतीय साहित्यजगत 'बड़े भाई' थे. जिस भाषा में आज लिखते-पढ़ते हैं, उसे हिंदी की काव्य की भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने में उनका सबसे बड़ा योगदान रहा.
12 दिसंबर को उनकी पुण्यतिथि है. उनका निधन 1964 में हुआ. लेकिन 1914 में छपी 'भारत-भारती' और 1931 में आई 'साकेत' जैसी रचनाएं आज भी उतनी ही सटीक हैं, जितनी उस समय रही होंगी.
गुप्त राष्ट्रकवि केवल इसलिए नहीं हुए कि देश की आजादी के पहले राष्ट्रीयता की भावना से लिखते रहे. वह देश के कवि बने क्योंकि वह हमारी चेतना, हमारी बातचीत, हमारे आंदोलनों की भाषा बन गए.
यह भी अद्भुत है कि जिस राष्ट्रकवि को हमारी पीढ़ी ने सदा एक वरिष्ठ-वयोवृद्ध शख्सियत की तरह देखा है, उन्होंने 12 साल की उम्र में कविताएं लिखनी शुरू कर दी थीं. मैथिलीशरण गुप्त का जन्म 3 अगस्त 1886 को उत्तर प्रदेश के झांसी जिले के चिरगांव में हुआ था.
उन्होंने ब्रज भाषा में 'कनकलता' नाम से कविताएं लिखनी शुरू कीं. फिर महावीर प्रसाद द्विवेदी के संपर्क में आने के बाद वह खड़ी बोली में कविताएं लिखने लगे.
शुरुआत में कविताएं ‘सरस्वती’ में छपती रहती थीं.
व्यक्तिगत सत्याग्रह के कारण उन्हें 1941 में जेल जाना पड़ा. तब तक वह हिंदी के सबसे प्रतिष्ठित कवि बन चुके थे.
पहला काव्य संग्रह 'रंग में भंग' और उसके बाद 'जयद्रथ वध' प्रकाशित हुआ. 'भारत-भारती' 1914 में आई. यह गुलाम भारत में देशप्रेम और निष्ठा की सर्वश्रेष्ठ कृति थी. इसमें भारत के अतीत और वर्तमान का चित्रण तो था ही, भविष्य की उम्मीद भी थी. भारत के राष्ट्रीय उत्थान में भारत-भारती का योगदान अद्भुत है.
'साकेत' और 'पंचवटी' 1931 में छप कर आए. साकेत में उर्मिला की कहानी के जरिए गुप्त जी ने उस समय की स्त्रियों की दशा का सटीक चित्रण किया. राम, लक्ष्मण और सीता की कहानी तो हम सुनते ही आए थे, लेकिन यह गुप्त जी थे जो उर्मिला के त्याग के दर्द को सामने लाए. 1932 में 'यशोधरा' का प्रकाशन हुआ. यह भी महिलाओं के प्रति उनकी गहरी संवेदना दिखाता है.
मैथिलीशरण गुप्त की कुछ कालजयी पंक्तियां:
1 नर हो न निराश करो मन को कुछ काम करो कुछ काम करो.
2 जो भरा नहीं है भावों से जिसमें बहती रसधार नहीं, वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं.
3 यही पशु-प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे, वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे.
4 विचार लो कि मर्त्य हो न मृत्यु से डरो कभी, मरो परन्तु यों मरो कि याद जो करे सभी.
5 अबला जीवन हाय! तुम्हारी यही कहानी आंचल में है दूध और आंखों में पानी!
(ये लेख पहले भी प्रकाशित हो चुका है)
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