अहिंसा, स्वावलंबन, ग्राम स्वराज और मानवों के बीच बराबरी की हिमायत के कारण शहीद हुए महात्मा गांधी की 72वीं पुण्यतिथि से ऐन पहले भारत में अमीर और गरीब के बीच की खाई और भी गहरी तथा चौड़ी होने का डरावना आंकड़ा नमूदार हुआ है. मानव जगत का दुर्भाग्य यह है कि धरती की समूची दौलत चंद मुट्ठियों में कैद होते जाने की यह कुप्रवृत्ति सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि दुनिया के तमाम मुल्कों पर अपना शिकंजा कस रही है.
भारत जैसे देशों के लिए देश के 50 फीसद लोगों की संपत्ति के बराबर दौलत महज तीन फीसद हाथों में सिमट जाना कहीं अधिक चिंताजनक है. इसकी वजह है हमारी लगातार बढ़ रही आबादी के कारण रोजगार के लिए उठते हाथों और भूख से बिलबिलाते पेटों की बढ़ती संख्या. भारत में हर साल करीब डेढ़ करोड़ नए रोजगार पैदा करने की जरूरत है मगर आर्थिक संसाधनों के चंद हाथों में सिमटने से देश में आज एक तिहाई आबादी दो जून की रूखी रोटी से भी महरूम है.
महात्मा गांधी के पैदा होने के डेढ़ सौवें मुबारक साल में बेरोजगारी की दर साढ़े छह फीसद के पार जाने को बेताब है. देश का अन्नदाता यानी किसान, मजदूर, महिलाएं और नौजवान सभी बेजार हैं जबकि बापू ने देश की तरक्की की इबारत समाज के आखिरी आदमी को मद्देनजर करके बनाने की तजवीज की थी.
गांधी जी ने अपनी हत्या से चंद दिन पहले भी अपनी प्रार्थना सभा में किसानों और मजदूरों को भरपेट रोटी दिलाने के लिए भारत सरकार से विकेंद्रित अर्थव्यवस्था को अपनाने की अपील की थी. ग्राम स्वराज की उनकी अवधारणा दरअसल रोजमर्रा जरूरत की वस्तुओं का उत्पादन स्थानीय स्तर पर करने के ग्राम गणतंत्र के सिद्धांत पर आधारित थी.
उनका कहना था कि गांव की जरूरत पूरी करने के लिए गेहूं का आटा वहीं लगी किसी चक्की पर पीसा जाना चाहिए. इसी तरह जरूरत का कपड़ा भी स्थानीय कत्तिनों, बुनकरों, रंगसाजों के सामंजस्य से तैयार होना चाहिए न कि प्रदूषण फैलाने वाली बड़ी-बड़ी कपड़ा मिलों में जहां मशीनों की मदद से चंद हाथों के जरिए लाखों मीटर कपड़ा प्रतिदिन बुन-रंग कर अनेक प्रदेशों में बेचा जाए.
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आजादी की लड़ाई के दौरान विदेशी कपड़े एवं वस्तुओं का बहिष्कार तथा जिले-जिले में खादी के उत्पादन एवं ग्रामोद्योगी इकाइयों की स्थापना की मुहिम बापू के स्वावलंबन के सिद्धांत के तहत ही चलाई गई थी.
गांधी जी ने हमेशा इस बात पर जोर दिया कि मनुष्य की बुनियादी जरूरत पूरी करने लायक प्रकृति प्रदत्त संसाधनों की कोई कमी नहीं है मगर लालच का पेट कभी नहीं भरा जा सकता. आज जलवायु परिवर्तन की विकराल होती विभीषिका के बीच बापू की यह नसीहत पूरी दुनिया याद कर रही है. क्योंकि मुनाफा लगातार बढ़ाते जाने तथा आर्थिक संसाधनों पर प्रभुत्व जमाकर पूरी दुनिया को अपनी मुट्ठी में कर लेने की खतरनाक होड़ अंधाधुंध औद्योगीकरण और प्राकृतिक संसाधनों की लूट को बढ़ावा दे रही है.
इसी होड़ के कारण धरती का तापमान बढ़ने, हिमनद यानी ग्लेशियर पिघलने, असाध्य बीमारियां पैदा होने और प्रदूषण से बड़े पैमाने पर लोगों का दम घुटने से मानव जाति का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है. राजधानी दिल्ली इस खतरे की सबसे बड़ी मिसाल है जहां ताजा शोघ के मुताबिक वायु प्रदूषण से लोगों की उम्र समूचे देश की औसत आयु के मुकाबलेे साढ़े तीन साल तक घट रही है.
बापू ने दुनिया को पहली बार बताया कि साल के अंत में तरक्की आंकने का पैमाना सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी की दर में बढ़ोतरी को नहीं बल्कि सामाजिक प्रगति और पर्यावरण में सुधार की दर को बनाया जाना चाहिए.
महात्मा गांधी के राजनीतिक वारिस और आजाद देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू सहित दुनिया के तमाम प्रशासक और अर्थशास्त्री तब उनकी बात पर उंगली उठाते रहे मगर आज आर्थिक विषमता और चौपट होते पर्यावरण के दौर में दुनिया उसी रास्ते पर बढ़ना चाह रही है.
मोहनदास करमचंद गांधी के जन्म के समय से लेकर आज तक तमाम देश ताकत को ही तरक्की से जोड़े हुए हैं. दुर्भाग्य से भारत के नागरिकों के मानस में भी आजकल ताकत को ही सर्वोपरि जरूरत के रूप में पैठाने की मुहिम चल रही है. पिछले 72 साल में ही साढ़े तीन युद्ध लड़ चुके भारत ने जहां शिक्षा, स्वास्थ्य, सूचना, रोजगार और भोजन के संवैधानिक अधिकार नागरिकों को सौंपने में कामयाबी पाई वहीं इन अधिकारों पर अमल के लिए संसाधन देने में सरकार नाकाम साबित हो रही हैं. जबकि दुनिया भर में जनता और पृथ्वी पर हिंसा को नियंत्रित करके वैश्विक आर्थिक प्रणाली को जनोन्मुख बनाने की मुहिम तेज हो रही है.
आखिर 150 साल बाद गांधी जी की सीख पर चलने को दुनिया क्यों तैयार हो रही है. क्यों मशहूर लेखक जॉन रस्किन की पुस्तक 'अनटू दिस लास्ट' की तर्ज पर समाज, सरकार और बाजार को पुन: परिभाषित करने की कोशिश की जा रही है. गांधी जी की विचारधारा को भी इसी पुस्तक ने सबसे अधिक प्रभावित किया था. हालांकि उनके जन्म के आसपास ही भारत में 1857 में आजादी की पहली लड़ाई और रूस में सर्वहारा की तानाशाही को प्रतिपादित करती कार्ल मार्क्स की कृति'दास कपिताल' नमूदार हुई थीं.
इनके बावजूद महात्मा गांधी ने बराबरी और न्याय की लड़ाई अहिंसक साधनों से करने की ठानी. उन्हें यह बखूबी पता था कि मनुष्यों में लालच, परिग्रह और तरक्की की चाहत स्थाई भाव हैं जबकि परस्पर प्रेम और सद्भाव परिस्थितिजन्य हैं. समाज को मजबूत करने के लिए ही उन्होंने स्वावलंबन और जरूरत भर उपजाने तथा उत्पादन करने पर जोर दिया। उनका कहना था कि असल संपदा समाज की भलाई की मद में आंकी जानी चाहिए न कि विनिमय की इकाइयों के रूप में और संपदा अर्जन के साधन भी शुद्ध होने चाहिए.
गांधी जी को जरूरत भर बड़े उद्योगों से भी गुरेज नहीं था मगर उनके मालिकाने को वे समाज के प्रति कर्तव्य निर्वहन की भावना से अपनाने पर जोर देते थे. उनकी राय में औद्योगिक इकाई जिनसे कमाए उन्हीं के कल्याण पर कमाई को खर्च करे और निजी संपत्ति जमा करने का जरिया न बनाए. उनकी मृत्यु के बाद हालांकि भारत भी विकेंद्रित अर्थव्यवस्था के बजाए बड़े उद्योगों और निजी मुनाफे के लिए कारोबार की राह पर चल रहा मगर जलवायु परिवर्तन और सामाजिक गैर-बराबरी की विकराल होती समस्या प्रशासकों को बापू के सुर में ही बोलने को विवश कर रही है.
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साल 1980 के दशक में अमेरिका सहित दुनिया के औद्योगिक महाबली समझे जाने वाले देशों ने जहां वाशिंगटन घोषणा पत्र के जरिए भारत और चीन जैसे देशों की अर्थव्यवस्था के वैश्वीकरण और खगोलीकरण का नारा दिया वहीं उन्हीं की नाक के नीचे से जिम्मेदार से पूंजी निवेश की मांग उभर कर आई. जिम्मेदारीपूर्ण निवेश में उसके पर्यावरण पर पड़ने वाले असर की भरपाई के आंकलन की जरूरत पर जोर दिया गया.
इसके तहत दुनिया भर में करीब 23 खरब डॉलर की राशि जिम्मेदारीपूर्ण निवेश के लिए उपलब्ध कराई जा चुकी है. साथ ही संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रतिपादित जिम्मेदारीपूर्ण निवेश के सिद्धांतों को अपनाने का दुनिया के कुछ सबसे बड़े औद्योगिक कॉरपोरेशनों ने संकल्प किया है. लेकिन बापू के देश भारत में आर्थिक उदारीकरण के बाद से ही अंधाधुंध औद्योगिकरण और खनिजों व प्राकृतिक संसाधनों की जिस तरह से लूट मची है उसने वनवासियों और किसानों को बड़े पैमाने पर उनके प्राकृतिक परिवेश से तोड़कर विस्थापित और पराश्रित कर दिया है.
इसी वजह से देश में साल दर साल आर्थिक विषमता भी बढ़ रही है. अफसोस यह है कि भारत में अरबपतियों और बेरोजगारी की दर बढ़ने में एक-दूसरे से होड़ कर रही हैं. हाईवे, पुल और गगनचुंबी इमारतें बनाने की होड़ में नदियों की गोद उसकी उपजाउ बालू से और पर्वतों के शिखर उनके हरे-भरे पेड़ों से सूने किए जा रहे हैं. गिट्टी और पत्थर की जरूरत पूरी करने के लिए दुनिया की सबसे पुरानी पर्वत श्रृंखला अरावली को भी खोखला किया जा चुका है जिससे मरुस्थल देश की राजधानी दिल्ली की छाती पर दस्तक दे रहा है.
दुनिया की लगभग 16 फीसद आबादी का बोझ ढो रही भारत माता आज जहां बापू के स्वावलंबन और प्राकृतिक संसाधनों के जरूरत भर उपभोग की दुहाई दे रही है वहीं विनोबा के सर्वोदय के सिद्धांतों में उसे अपने पर्यावास को बचाने की उम्मीद दिख रही है. बापू के पहले सत्याग्रही विनोबा ने दुनिया को जय जगत का नारा देकर सबके उदय यानी कल्याण की बात करते हुए भूदान मांगने के लिए पूरा देश्स पैदल ही नाप डाला था.
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सामाजिक बराबरी और सद्भाव की स्थापना के लिए भूदान आंदोलन जैसा और कोई अहिंसक आंदोलन दुनिया के नक्शे पर दिखाई नहीं पड़ता. इसीलिए विनोबा ने उसे भूदान यज्ञ की उपमा दी थी. इससे स्पष्ट है कि देश और दुनिया को सर्वोदय के अहिंसक मार्ग पर चल कर ही जलवायु परिवर्तन की रोकथाम करने और मानवता को बचाने में सफलता मिलेगी. सर्वोदय का अर्थ ही है समूची सृष्टि का आपसी तालमेल से विकास न कि अधिकतर आबादी और पर्यावरण की कीमत पर मुट्ठी भर लोगों अथवा औद्योगिक कॉरपोरेशनों का विकास.
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