live
S M L

शास्त्रीजी पुण्यतिथि विशेष: उज्बेकों की ज़ुबान पर आज भी है, फिर हम कैसे भूले शास्त्रीजी का नाम

ताशकंद में लगा लाल बहादुर शास्त्री स्ट्रीट का बोर्ड और उसके पास चौराहे पर लगी शास्त्रीजी की मुस्कुराती प्रतिमा आज भी पर्यटकों को दुनिया में दूसरे सबसे ज्यादा आबादी और प्राचीनतम सभ्यता वाले देश भारत के इतिहास के अहम पन्ने से रूबरू करवाते हैं

Updated On: Jan 11, 2019 08:28 AM IST

Ira Jha, Anant Mittal

0
शास्त्रीजी पुण्यतिथि विशेष: उज्बेकों की ज़ुबान पर आज भी है, फिर हम कैसे भूले शास्त्रीजी का नाम

जय जवान-जय किसान का कालजयी नारा देने वाले लालबहादुर शास्त्री की उज्बेकिस्तान के मशहूर शहर ताशकंद में शहादत की आज 53वीं पुण्यतिथि है. इकहरी कद-काठी के बावजूद संकल्प के धनी शास्त्रीजी आजादी के नायक और भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के देहांत के बाद 1964 में भारत के प्रधानमंत्री बने थे.

देश की सेनाओं ने उनके नेतृत्व में पाकिस्तान द्वारा थोपे गए 1965 के युद्ध में बड़ी जांबाजी से दुश्मन के दांत खट्टे किए थे. युद्धविराम के बाद जनवरी 1966 में शास्त्रीजी पाकिस्तान से शांति समझौता करने सोवियत संघ में शामिल उज्बेकिस्तान के ताशकंद शहर गए थे. और वहीं रहस्यमय परिस्थिति में उनका देहांत हुआ.

शास्त्री जी पर क्या था दबाव?

समझौते के दौरान वहां पाकिस्तान के तत्कालीन फौजी तानाशाह अयूब खां भी थे. ताशकंद में दोनों देशों के बीच सोवियत संघ के राष्ट्रपति अलेक्सी कोसीगिन मध्यस्थता कर रहे थे. सोवियत संघ उन दिनों अमेरिका और उसके साथी NATO देशों की महाशक्ति के मुकाबले खुद महाशक्ति था.

अंदाजा यह है कि शास्त्रीजी पर समझौते में पाकिस्तान का जीता हुआ इलाका छोड़ने का बड़ा दबाव था. इसलिए उन्होंने अनमनेपन से समझौते के दस्तावेज पर दस्तखत किए थे. उसके बाद वे रात को सोए तो 11 जनवरी 1966 की सुबह नींद से कभी नहीं जागे.

ताशकंद में हुए पोस्टमार्टम के अनुसार उनका देहांत दिल के दौरे से हुआ था. लेकिन भारत में शास्त्रीजी की पत्नी ललिता शास्त्रीऔर उनके बेटों ने इसे मानने से इनकार कर दिया था. उनके मुताबिक उन्हें शास्त्रीजी के पार्थिव शरीर पर नील पड़े दिखे थे. बहरहाल परिवार की मांग पर शास्त्रीजी की मौत के कारणों की जांच भी हुई मगर किसी नए अंजाम तक नहीं पहुंच सकी.

इस विवाद के बावजूद शास्त्रीजी को पूरे देश ने उमड़ कर अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की थी. उनकी अस्थियां जब इलाहाबाद और हरिद्वार ले जाई गईं तो पूरे रास्ते देशवासियों ने कदम-कदम पर अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की. शास्त्रीजी की समाधि दिल्ली के शांति वन के पीछे आज भी मौजूद है, लेकिन उनकी मौत पर संशय भी कायम है.

शास्त्रीजी द्वारा किए गए ताशकंद समझौते की प्रमुख बातें ये थींः

-भारत और पाकिस्तान एक-दूसरे के खिलाफ शक्ति का प्रयोग नहीं करेंगे और आपसी विवाद बातचीत से हल करेंगे. -दोनों देश 25 फरवरी 1966 तक अपनी अपनी-अपनी सेना सीमा से हटा लेंगे. -भारत और पाकिस्तान किसी भी हालत में एक-दूसरे के आंतरिक मामलों में दखल नहीं देंगे. -भारत और पाकिस्तान अपने-अपने देश से आए शरणार्थियों पर विचार-विमर्श जारी रखेंगे और एक-दूसरे की संपत्ति लौटाने पर विचार करेंगे.

ऐसा माना जाता है कि शास्त्री जी को संपत्ति लौटाने की शर्त, जिसमें पीर पंजाल का हमारी सेना द्वारा जीता गया इलाका भी शामिल था- हजम नहीं हुई. उसी सदमे में उनकी जान गई. उनकी मौत पर अब भी सवाल उठते रहते हैं. उन दिनों भारत में सोवियत संघ और उज्बेकिस्तान जिस तरह सवालों के घेरे में थे उस हिसाब से शास्त्री जी का ताशकंद में शायद नाम-ओ-निशां भी नहीं बचता.

उज्बेकिस्तान

उज्बेकिस्तान

दिल्ली में हमारी औरंगजेब रोड का नाम बदलने जैसी ही हरकत करके उज्बेकिस्तान चाहता तो इसे सोवियत संघ की विरासत मान कर शास्त्री जी के नाम वाली सड़क का नाम बदल सकता था. उसने, ऐसा करने के बजाए उनकी यादों को सहेजकर रखा. शास्त्रीजी का सम्मान बरकरार रखा.

उज्बेकिस्तान की यादों में आज भी बसे हैं शास्त्री जी

1992 में सोवियत संघ के विघटन के बाद से उज्बेकिस्तान अब स्वतंत्र देश है. भारतवासियों का वहां तहेदिल से स्वागत किया जाता है. इसीलिए वहां लोग अब भी यह जानते हैं कि शास्त्री जी की मृत्यु ताशकंद में हुई थी. यह जानने वाले लोग कि 11 जनवरी 1966 को हुई शास्त्री जी की मृत्यु कितनी विवादास्पद थी, नई पीढ़ी में तो लगभग नहीं हैं.

ताशकंद में लगा लाल बहादुर शास्त्री स्ट्रीट का बोर्ड और उसके पास चौराहे पर लगी शास्त्रीजी की मुस्कुराती प्रतिमा आज भी पर्यटकों को दुनिया में दूसरे सबसे ज्यादा आबादी और प्राचीनतम सभ्यता वाले देश भारत के इतिहास के अहम पन्ने से रूबरू करवाते हैं.

क्यों बदल रहे हैं हम?

ताज्जुब यह है कि उज्बेकिस्तान जैसे मुस्लिम बहुल देश में तो हमारे मरहूम प्रधानमंत्री शास्त्रीजी की नामपट्टी को भारत से भावनात्मक सद्भाव और मैत्री के नाते बदला नहीं गया. मगर दुनिया को ‘सम धर्म-सम भाव’ और ‘अहिंसा परमो धर्मः’ का संदेश देने वाले भारत में शहरों और सड़कों के मुगलकालीन नाम बदलने का सिलसिला सरपट दौड़ रहा है.

सोवियत संघ से अलग होने के बाद उज्बेकिस्तान के शहरों में लगी लेनिन की मूर्तियां तक ढहा दी गई थीं. सोवियत क्रांति से जुड़ी सभी महत्वपूर्ण शख्सियतों से जुड़ी यादों का नामोनिशान ध्वस्त कर दिया गया था. यह बात दीगर है कि भारत के सुदूर त्रिपुरा राज्य में जब भगवा परचम लहराया तो वहां भी विधानसभा चुनाव में जीत से बौराई दक्षिणपंथी भीड़ के हाथों लेनिन की मूर्ति को जमींदोज़ होना पड़ा. इसके बावजूद शास्त्रीजी की याद ताशकंद में आज तक बरकरार है.

यह तो पूरी दुनिया ने देखा कि 1992 में सोवियत संघ के ऐतिहासिक विघटन के बाद उज्बेकिस्तान जब अलग देश हो गया तो उज्बेकों ने सोवियत प्रतीकों पर डटकर अपना गुस्सा निकाला. क्योंकि उज्बेकों को लगता था कि सोवियत काल में उनकी संस्कृति को तहस-नहस कर दिया था.

भारत को मिल रहा है प्यार

सोवियत संघ के दिनों को उज्बेक आज भी हिकारत से भूलने की बात करते हैं. जबकि लालबहादुर शास्त्री ही नहीं बल्कि ‘आवारा’ राजकपूर को भी वे भारत का नाम लेते ही चहक कर याद करते हैं. सोवियत संघ के प्रति उस घृणा के माहौल में जब उन्माद हरेक भावना को नेस्तनाबूत कर देता है, उज्बेकों ने शास्त्री जी की याद वाले चौराहे को जस का तस रखा.

अपने देश में लगभग भुलाए जा चुके लालबहादुर शास्त्री, उज्बेकियों की यादों में आज भी जिंदा हैं. हमारे देश की तीसरी या चौथी पीढ़ी भले शास्त्रीजी का नाम महज प्रतियोगी परीक्षाओं की खातिर उनका नाम रट ले, पर ज्यादातर उज्बेक जानते हैं कि लाल बहादुर शास्त्री भारत के प्रधानमंत्री थे और ताशकंद में उनकी मृत्यु हुई थी. इसके पीछे लालबहादुर शास्त्री के नाम पर ताशकंद में मौजूद उस संस्थान की भी अहम भूमिका है जो उनका जन्मदिन और पुण्यतिथि बदस्तूर मनाता आ रहा है.

शास्त्री जी को भूल नहीं सकते

शास्त्रीजी भले 19 महीने ही भारत के प्रधानमंत्री रहे हों पर 1965 में पाकिस्तान से युद्ध में उनका योगदान अविस्मरणीय है. भारत-पाक समझौते के लिए जनवरी 1966 में ताशकंद गए शास्त्रीजी के देहांत की जांच कई बरस चलती रही. फिर भी उस मुसलमान बहुल देश ने हमारी तरह इलाहाबाद, मुगलसराय, फैज़ाबाद जैसे ऐतिहासिक शहरों तथा राजधानी दिल्ली में औरंगज़ेब रोड का नाम बदलने की तर्ज पर शास्त्रीजी का नाम मिटाने के बजाए उनकी याद को सहेजने और सम्मान को बरकरार रखने को तवज्जो दी.

भारत में सड़कों ,शहरों और संस्थानों का नाम बदलने की पहली आंधी आजादी के तुरंत बाद चली थी. तब राजधानी दिल्ली सहित देश के तमाम शहरों में अंग्रेज लाटसाहबों की मूर्तियां बड़े पैमाने पर हटाई गई थीं. अंग्रेजों के नाम वाले चौराहों और सड़कों के नामपट्ट बदले गए थे. दिल्ली विश्वविद्यालय के पास कोरोनेशन पार्क में ब्रिटिश सम्राट जॉर्ज पंचम और महारानी विक्टोरिया की मूर्तियां मुंह के बल पड़ी धूल खा रही हैं.

उसके बाद 1977 में इंदिरा गांधी और कांग्रेस की ऐतिहासिक हार के बाद बने जनता पार्टी के पहले गैरकांग्रेसी शासन काल में फिर नाम बदलो मुहिम चली. तब दिल्ली के अस्पतालों तक के नाम बदल कर समाजवादी और जनसंघ के नेताओं के नाम पर कर दिए गए थे. मसलन विलिंगडन अस्पताल रातोंरात राम मनोहर लोहिया अस्पताल और इरविन अस्पताल भी लोकनायक जयप्रकाश अस्पताल हो गया.

यह सिलसिला तो चुनिंदा संस्थानों या सड़कों के नाम बदलने तक सीमित रहा. पर मौजूदा निजाम धार्मिक आधार पर ऐसा करके भारत जैसे सहिष्णु देश में नया रिकॉर्ड बना रहा है. दूसरी तरफ जबरदस्त राजनीतिक बदलाव और भीषण आर्थिक संकट से जूझने के बावजूद उज्बेकिस्तान जैसा मुस्लिम बहुल देश अपनी मित्रता की खातिर भारत के पूर्व प्रधानमंत्री के नाम वाली लालबहादुर शास्त्री स्ट्रीट पर शास्त्री जी की मुस्कुराती प्रतिमा के जरिए दुनिया को अपने सद्भाव और संवेदनशीलता का संदेश दे रहा है.

0

अन्य बड़ी खबरें

वीडियो
KUMBH: IT's MORE THAN A MELA

क्रिकेट स्कोर्स और भी

Firstpost Hindi