आप कहां के रहने वाले हैं? क्या करते हैं? रवींद्र कालिया को कैसे जानते हैं? अच्छा मुझसे इंटरव्यू क्यों करना चाहते हैं? जैसे कुछ सवालों के बाद उस रोज कृष्णा जी ने मुझसे पूछा था 'बीयर तो आप पीते होंगे?' मैंने कहा- जी नहीं.
फिर मैंने उन्हें बताया कि मैं इलाहाबाद से हूं. पत्रकारिता की पढ़ाई कर रहा हूं. रवींद्र कालिया मेरे लिए साहित्यकार बाद में और अंकल पहले हैं क्योंकि उनका बेटा प्रबुद्ध और मैं साथ में पढ़ते थे. ममता जी (प्रख्यात लेखिका और रवींद्र कालिया की पत्नी) मेरी मां की तरह हैं. कालिया जी अगर दिल्ली आ रहे हों तो वो मेरे लिए पराठे बनाकर भेजती हैं.
इतना सब जानने के बाद कृष्णा जी ने हंसकर कहा- चाय तो पीते हैं. मैंने कहा-जी. फिर वो बड़ी नफासत से चाय की केतली लेकर आईं. उबली चाय अलग. दूध अलग. शक्कर अलग. चाय पीने और साहित्य अकादमी से उस वक्त हुए उनके विवाद पर बातचीत करने के बाद मैं चला आया. इसके बाद कुछ ऐसा संयोग रहा कि 18 साल तक मुझे कृष्णा सोबती से मिलने का मौका नहीं मिला. बीच में एक छोटी सी मुलाकात 2000-2001 के आस पास हुई. जिसका जिक्र करना इसलिए जरूरी है क्योंकि उससे कृष्णा जी की शख्सियत का एक और पेज खुलता है.
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ये उन दिनों की बात है जब मैं एक ‘टीवी ब्रेकफास्ट शो’ की टीम में था. शो में हर गुरुवार को एक लेखक को स्टूडियो बुलाया जाता था. उस लेखक से उनसे रचना संसार पर बातचीत होती थी. शो 7.30 से 8.30 लाइव जाता था. उस सेगमेंट की जिम्मेदारी मुझे इसलिए दी गई थी क्योंकि अव्वल तो मुझे हिंदी की किताबों को पढ़ने का थोड़ा बहुत शौक था. दूसरा मेरे पास बड़े से बड़े लेखक से बात करने के लिए कालिया जी का ‘रेडी रेफरेंस’ था.
कालिया जी का नाम मैं इस विश्वास से लेता था कि अगर कभी किसी ने उनसे पलट कर पूछ भी लिया कि क्या आपने शिवेंद्र को मुझसे बात करने के लिए कहा था तो वो मना नहीं करेंगे. हालांकि ज्यादातर मौकों पर वो चिट्ठी लिखकर भी दे दिया करते थे. हुआ यूं कि हमारे बॉस चाहते थे कि उस सेगमेंट के लिए कृष्णा सोबती को मेहमान के तौर पर बुलाया जाए. मैंने अपनी पुरानी मुलाकात के आधार पर उन्हें बुलाने की जिम्मेदारी ले ली. लेकिन आसान सा लगने वाला ये काम बहुत टेढ़ा था. बहुत ही टेढ़ा.
दरअसल, कृष्णा जी ज्यादातर रात के वक्त लिखती थी. लगभग भोर होने पर सोती थीं. ऐसे में सिर्फ 2-3 घंटे की नींद के बाद स्टूडियो आने को वो तैयार नहीं थीं. मैंने बड़ी मुश्किल से उन्हें तैयार किया था. जहां तक मुझे याद है कि वहां भी कालिया जी का ही ‘ट्रंपकार्ड’ मैंने चला था. चूंकि कुछ दिन पहले ही वो उसी शो पर उन दिनों अपनी चर्चित किताब ‘गालिब छूटी शराब’ के लिए आए थे.
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खैर, अब वापस लौटते हैं पिछले साल की अपनी मुलाकातों पर. पिछले साल मैं उनसे मिला. पहले तो मैंने इतने बरस गायब रहने के लिए माफी मांगी. मैं दावे से नहीं कह सकता कि उन्होंने 18-19 साल पहले की मेरी मुलाकात को याद कर लिया था लेकिन उन्होंने ये भी नहीं कहा कि उन्हें वो मुलाकात याद नहीं. इस बार मेरी मुलाकात का मकसद एक कॉलम लिखना था. जो मैं एक हिंदी अखबार के लिए लंबे समय से कर रहा हूं. इस बार फिर औपचारिक शुरुआती सवालों के बाद कृष्णा जी ने पूछा-'बीयर तो आप पीते होंगे?' मैंने कहा- जी. बाद में मैंने गौर किया कि जो बीयर हम पी रहे थे वो सुपर स्ट्रॉन्ग थी.
कृष्णा जी खुद बड़ी दिलचस्पी से वो किस्सा बताती थीं जब उन्होंने साहित्य अकादमी के चेयरमैन से कह दिया था कि साहित्य अकादमी में एक कॉफी हाउस या बार होना चाहिए. उन दिनों उमाशंकर जोशी साहित्य अकादमी के चेयरमैन थे. उन्होंने कहा- कृष्णा बहन मैं गांधीवादी व्यक्ति हूं मैं ये कैसे कर सकता हूं. मैंने भी पलट कर जवाब दिया कि भाई साहब मैंने आजतक दूध पीकर किसी को अच्छा लिखते नहीं देखा है.
अपने कॉलम के इंटरव्यू के लिए कृष्णा जी को तैयार करने के लिए मैंने काफी मशक्कत थी. उन्हें लगता था कि अब वो साफ बोल नहीं पातीं. फिर उन्हें ‘मिसकोट’ किए जाने का भी डर था. मैंने उनसे वायदा किया कि मैं लिखने के बाद पूरा इंटरव्यू उन्हें दिखाऊंगा और उसे पढ़ने और दुरुस्त करने का पूरा समय भी दूंगा.
आजकल लगभग सभी फोन में ऑडियो रिकॉर्डर होते हैं. फोन पर ही उनका ऑडियो रिकॉर्ड हो गया. मैंने लगातार पांच रविवार को छपने वाले इंटरव्यू को लिख लिया. इसके बाद प्रिंट आउट लेकर उन्हें इंटरव्यू देखने को दिया. इंटरव्यू को देखने में उन्हें वक्त लगा. जिसके लिए वो लगातार खेद जताती रहीं. उनके अंदाज में ‘सॉरी’ और ‘यू नो’ बोलना कुछ दिनों में मैंने भी सीख लिया था. थोड़े बहुत मामूली बदलाव के बाद उन्होंने इंटरव्यू ‘ओके’ कर दिया.
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उन्हीं दिनों उनकी राजकमल प्रकाशन से एक किताब आने वाली थी- गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान. इंटरव्यू छपना शुरू हो उससे सिर्फ तीन दिन पहले उन्होंने फोन करके मुझसे क हाकि मैं इंटरव्यू अभी ना छापूं. चूंकि वो इंटरव्यू पांच हफ्ते तक चलता है इसलिए मैंने अगले किसी व्यक्ति से बात भी नहीं थी. मेरे लिए आफत यूं थी कि सिर्फ 2 दिन में मुझे किसी बड़ी शख्सियत को पकड़ना था. मैंने उस रोज उनसे कहा कि मैं पूरी कोशिश करूंगा लेकिन अगर कोई नहीं मिला तो इंटरव्यू रोकना शायद संभव ना हो सके. उन्होंने मेरी परेशानी को समझते हुए कहा कि मैं संपादक का नंबर और पता उन्हें दूं वो खुद जाकर उनसे मिलेंगी. मैं ये ‘पैनिक’ बटन दबाना नहीं चाहता था.
वो इंटरव्यू एक बार रूका तो फिर कई महीने रूका रहा. मैं हर तीन-चार हफ्ते पर उन्हें फोन करता. उनसे उनकी सेहत के बारे में बात करता और दरखास्त करता कि इंटरव्यू छपने की इजाजत दे दें. करीब चार पांच महीने बाद उन्होंने इजाजत दी. वो इंटरव्यू छपा. उसके बाद उनसे एक बार ही मुलाकात हुई. वो मुलाकात भी यूं हुई जब मैंने उनकी किताब की समीक्षा एक पाक्षिक पत्रिका के लिए लिखी थी.
कृष्णा सोबती आज अगर होतीं तो 94 बरस की होतीं. अभी एक महीना ही तो बीता है जब उन्होंने आखिरी सांस ली थी. उनके बचपन से लेकर अब तक के दर्जनों किस्से मेरे पास रिकॉर्ड हैं. उनके जाने के बाद एकाध बार वो इंटरव्यू सुना. किसी बात को सलीके से कहने का ढंग कोई उनसे सीख सकता था. नाराज होने पर या किसी बात के विरोध में उनके स्वर खासे तीखे भी हो जाते थे. उनके जैसे बेखौफ लेखक अब शायद ही होंगे.
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