कश्मीर के भविष्य पर भारत सरकार के साथ बातचीत का किसी भी अलगाववादी नेता पर बड़ा असर पड़ सकता है. पिछले तीन दशकों से कश्मीर के हालात में तमाम ऐसे नेताओं ने नई दिल्ली के साथ बातचीत की कीमत अपनी जान से चुकाई है. लेकिन एक बार हालात अलग थे.
हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के नेता मीरवाइज उमर फारूक के साथ तबकी एनडीए सरकार से मिले थे. 22 जनवरी 2004 को बातचीत का पहला दौर हुआ था. इस ग्रुप की उम्मीद थे अटल बिहारी वाजपेयी. पहले दो राउंड की बातचीत उप प्रधानमंत्री एलके आडवाणी के साथ हुई. उसके बाद सीधे वाजपेयी के साथ मीटिंग हुई.
हुर्रियत के नरमपंथी हिस्से का प्रतिनधित्व करने वाले वरिष्ठ नेता प्रोफेसर अब्दुल गनी भट ने कहा, ‘जब मैं पहली बार हुर्रियत दल के साथ उनसे मिला, तो उन्होंने सीधे मेरी तरफ देखा और कहा- प्रोफेसर साहिब, इस गुत्थी को सुलझाना पड़ेगा.’
सीधे प्रधानमंत्री से मिलना चाहती थी हुर्रियत कॉन्फ्रेंस
वाजपेयी कश्मीरी अलगाववादियों से जनवरी 2004 में मिले. हालांकि पाकिस्तान इस बातचीत के पक्ष में नहीं था. इस बातचीत की नींव तब पड़ी जब एनडीए सरकार ने रमजान के महीने में कॉम्बैट ऑपरेशन को रोक दिया था. वो दिसंबर 2000 की बात है. पिछले दिनों भी रमजान में ऐसी कोशिश की गई, लेकिन नाकामयाब रही. सरकार ने तब यह फैसला हिंसा की घटनाओं को कम करने और शांति वार्ता शुरू करने के लिए सही माहौल बनाने को लेकर लिया था.
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2001 में वाजपेयी ने कश्मीर पर राजनीतिक बातचीत की घोषणा की. इसके बाद 2001 में ही केसी पंत को बातचीत के लिए नियुक्त किया. फरवरी 2003 में वाजपेयी ने पंत की जगह एनएन वोहरा को नियुक्त किया, जो अब राज्य के गवर्नर हैं. वोहरा भी अपने से पहले के लोगों की तरह हुर्रियत के साथ बातचीत में नाकाम रहे थे. हुर्रियत के नेता इस बात पर अड़े थे कि वे सीधे प्रधानमंत्री से बात करेंगे.
दो महीने की बैकचैनल डिप्लोमैसी और 2004 की सार्क समिट के समय भारत-पाक की कामयाब बातचीत के बाद हुर्रियत कॉन्फ्रेंस उप प्रधानमंत्री आडवाणी और पीएम वाजपेयी से बात करने को राजी हुई. प्रोफेसर भट्ट कहते हैं, ‘पहली बार मैं जब अटल बिहारी वाजपेयी से मिला, तो उनको सुनकर बहुत खुश हुआ. वो दूरदर्शी व्यक्ति थे. दक्षिण एशिया में हर किसी के लिए शांत और खुशहाल भविष्य चाहते थे. उसके लिए वो चाहते थे कि कश्मीर का मसला सुलझ जाए. प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने इसकी भरसक कोशिश की.’
वह कहते हैं कि वाजपेयी ने पाकिस्तान के साथ सार्थक बातचीत की प्रक्रिया शुरू की. लेकिन उस वक्त के पाकिस्तानी राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने पूरे मामले को खराब कर दिया. वो कहते हैं, ‘वाजपेयी समझते थे कि विवादों पर बात करनी पड़ेगी. उन्हें सुलझाना पड़ेगा. हम कश्मीर समस्या को सुलझाने के करीब थे. उस वक्त के पाकिस्तानी विदेश मंत्री के शब्दों में कश्मीर समस्या सुलझाने से हम महज एक दस्तखत दूर थे.’
इससे अलग कश्मीरी नेताओं के साथ बात हुई. बातचीत का पहला दौर दिल्ली में आडवाणी और चार अलगाववादी नेताओं के ग्रुप के बीच हुआ. बातचीत का दूसरा दौर 27 मार्च 2004 को हुआ था. उसमें मानवाधिकार और राजनीतिक कैदियों के मुद्दे पर बातचीत हुई. इन दो मीटिंग के बाद कोई मीटिंग नहीं हुई, क्योंकि दिल्ली में सरकार बदल गई.
लेकिन 2005 के बाद स्थिति संभल गई
कांग्रेस ने 5 सितंबर 2005 को एक शुरुआत की. इसमें पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने हुर्रियत नेताओं से वादा किया कि वे कश्मीर से आर्मी कम करेंगे. लेकिन कुछ नहीं हुआ. उसके बाद बातचीत खत्म हो गई. भट कहते हैं, ‘अगर भारत का कोई प्रधानमंत्री वाजपेयी को श्रद्धांजलि देना चाहता है, तो उसे उनकी सोच को हकीकत में बदलना होगा. भारत और पाकिस्तान के नेताओं को सार्थक बातचीत करनी होगी. राजनीति की खूबसूरती बातचीत ही है.’
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हुर्रियत के नरमपंधी नेता मीरवाइज उमर फारूक कहते हैं कि समस्या बातचीत नहीं, उसके नतीजे में है. उनके मुताबिक हुर्रियत ने लोगों की नाराजगी के बावजूद नई दिल्ली से बात करना शुरू किया. लेकिन वाजपेयी के बाद इसे आगे नहीं बढ़ाया गया.
फारूक ने कहा, ‘उनका रुख इंसानियत पर आधारित था. उनका मानना था कि पूरे दक्षिण एशिया में शांति का रास्ता कश्मीर से होकर जाता है. मैं कहूंगा कि वो ऐसे दुर्लभ भारतीय राजनेता थे, जो कश्मीरियों के दर्द को काफी हद तक समझते थे. उनकी मौत से दक्षिण एशिया ने महान नेता खो दिया है.’
कश्मीरियों की जुबां पर वाजपेयी का नाम
देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के बाद अगर कश्मीर में किसी नेता का नाम लोगों को जुबां पर होता है, तो वो वाजपेयी हैं. इसकी मुख्य वजह उनका सबको साथ लेकर चलने का अंदाज है. अप्रैल 2003 में श्रीनगर में दिए भाषण में उन्होंने पाकिस्तान की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया. नवंबर 2003 में उन्होंने लाइन ऑफ कंट्रोल पर सीजफायर किया. उसी समय दोनों कश्मीर को जोड़ने वाली बस सेवा और व्यापार शुरू किया.
कश्मीर की समस्या को वाजपेयी इंसानियत, कश्मीरियत और जम्हूरियत के इर्द-गिर्द सुलझाना चाहते थे. यहां तक कि चरमपंथी हुर्रियत नेता सैयद अली शाह गिलानी भी पिछले साल इन तीन शब्दों से जुड़ी रणनीति का बात कश्मीर समस्या को सुलझाने के लिए करने लगे.
वाजपेयी की मानवता और उनका स्टेट्समैन वाला अंदाज ही था, जिससे 2014 में बीजेपी के सत्ता में आने के बाद उम्मीदें फिर जगीं. पीएम मोदी भारी बहुत से लोकसभा इलेक्शन जीते. तब लोगों को लगा कि कश्मीर के सवाल पर स्थायी समाधान का रास्ता बनेगा. यह भरोसा यहां की सड़कों पर भी नजर आया. लेकिन पिछले चार सालों में वाजपेयी युग की झलक तक नहीं दिखी है.
कई दशकों से कश्मीर के मुद्दे कवर कर रहे वरिष्ठ पत्रकार मोहम्मद सैयद मलिक कहते हैं, ‘यहां के तमाम लोग मानते हैं वाजपेयी की सोच को वर्तमान बीजेपी सरकार ने खारिज कर दिया है. उसका सम्मान नहीं किया. उन्हें सम्मान देते हुए कम से कम पार्टी इतना तो कर ही सकती है कि बातचीत शुरू करे. लेकिन अब इलेक्शन करीब हैं. ऐसे में यह होता नहीं दिख रहा.’
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