कांशीराम दूसरे नेताओं की तरह सफेद खादी के कपड़े नहीं पहनते थे. संघर्ष के दिनों में सेकेंड हैंड बाजार से खरीदे पैंट शर्ट और बाद में सफारी सूट उनका पहनावा बना. दूसरे नेताओं से उनका ये फर्क सिर्फ कपड़ों तक नहीं था. कांशीराम के जीवन का हर पहलू राजनीति के दूसरे धुरंधरों से अलहदा था.
जाति के भेदभाव में गले तक डूबे समाज और नेता जहां जाति उन्मूलन की बात करते रहे कांशीराम ने खुलकर जाति की बात की. वो भी बड़े तल्ख तेवर के साथ. 'तिलक, तराजू और तलवार, इनके मारो जूते चार' या ठाकुर बामन बनिया चोर, बाकी सब हैं डीएसफोर' जैसे नारे हों या आर्यावर्त को चमारावर्त बनाने की बात, कांशीराम नें ठीक वहीं पर चोट की जहां सबसे ज्यादा दर्द हो.
1992 में राम मंदिर आंदोलन के समय बीजेपी जहां हिंदुत्व कार्ड खेल रही थी, कांशीराम की बहुजन समाज पार्टी बहुत खुरदुरे तरीके से दलितों को समझा रही थी कि उसकी अपनी बिरादरी से भी कोई मुख्यमंत्री बन सकता है, ऐसा मुख्यमंत्री जो किसी बड़े पावर ग्रुप का नाम मात्र चेहरा न हो अपनी ताकत और तेवर दिखाने वाला दलित नेता हो.
1995 में कांशीराम इसमें कामयाब हो गए, जब मायावती यूपी की मुख्यमंत्री बनी. हालांकि इन तेवरों को सही से आगे न ले जाने के चलते मायावती जिस तेजी से यूपी में आईं, उसी तेजी से यूपी में सिर्फ एक जाति की नेता बनकर रह गई. दलित आंदोलन देखते ही देखते सोशल इंजीनियरिंग बनकर रह गया.
ये कांशीराम का दुर्भाग्य है कि उनकी विरासत को लोग सिर्फ मायावती तक समेट कर देखने लगते हैं. मगर कांशीराम राजनेता नहीं हैं. उनका बड़ा योगदान सबआल्टर्न इतिहास के जरिए दलितों में विद्रोह की चेतना जगाना है. कांशीराम की दलित आंदोलन में कितनी आस्था थी ये उनके अपने घरवालों को लिखे गए 24 पन्नों के खत में दिखता है. कांशीराम ने अपने खत में लिखा कि
अब कभी घर नहीं आऊंगा. कभी अपना घर नहीं खरीदूंगा. सभी रिश्तेदारों से मुक्त रहूंगा. किसी के शादी, जन्मदिन, अंतिम संस्कार में शामिल नहीं होऊंगा. कोई नौकरी नहीं करूंगा. जब तक बाबा साहब अंबेडकर का सपना पूरा नहीं हो जाता, चैन से नहीं बैठूंगा.
कांशीराम ने इन प्रतिज्ञाओं का पालन किया. वह अपने पिता के अंतिम संस्कार में भी शामिल नहीं हुए.
इसके अलावा कांशीराम ने ज्योतिबा फुले, सावित्री बाई, झलकारीबाई और ऊदा देवी जैसे प्रतीकों को दलित चेतना का प्रतीक बनाया. उन्हें वो मान दिलाया कि किसी भी डिसकोर्स में प्रमुखता से याद किया जाए. हालांकि इसे कांशीराम की गलती या दुर्भाग्य जो भी कहा जाए कि उनकी चुनी हुई वारिस मायावती ने इन प्रतीकों को मूर्ति बनाकर सियासत चमकाने का फॉर्मूला मान लिया. सत्ता के लिए बीएसपी का मूवमेंट सत्ता में आने के दस सालों के अंदर ही ब्राह्मण शंख बजाएगा और हाथी नहीं गणेश है जैसे नारों की भेंट चढ़ गया.
ये बात बिलकुल सच है कि कांशीराम के योगदान को सिर्फ बहुजन समाज पार्टी के सफलता और विफलता से नहीं नापा जा सकता. बहुजन समाज पार्टी उनके द्वारा किए गए बड़े बदलाव का एक हिस्सा भर है. फिर भी एक समय पंजाब, मध्य प्रदेश, बिहार, राजस्थान जैसे समूचे हिंदी पट्टी में तेजी से फैली यह पार्टी की गति दो दशकों के अंंदर ही सिमटती चली गई.
अगर कांशीराम आज देश की सियासत को देख रहे होते तो शायद बीएसपी को यही समझा रहे होते कि सामाजिक आंदोलन त्याग और जिद से चलते हैं, इंजीनियरिंग के फॉर्मूलों से नहीं.
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