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जॉन रस्किन, जिनकी किताब पढ़कर बदल गई महात्मा गांधी की जिंदगी

रस्किन बाजार को ईश्वर-प्रदत्त सच्चाई मानकर चलने वाली राज्यार्थिकी के आलोचक थे और रस्किन के इसी आलोचक व्यक्तित्व का प्रभाव गांधी पर पड़ा

Updated On: Feb 08, 2019 04:34 PM IST

Ashish Mehta

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जॉन रस्किन, जिनकी किताब पढ़कर बदल गई महात्मा गांधी की जिंदगी

कुछ खास ना था- रेलवे स्टेशन पर वो दिन भी वैसे ही गुजर रहा था जैसे बाकी दिन गुजरते हैं. एक सज्जन रेलगाड़ी के डिब्बे में बैठे हैं. उनका एक मित्र प्लेटफार्म पर खड़ा है. ट्रेन अब बस खुलने ही वाली है, इंजन से धुएं का धधका निकला और वही जानी-पहचानी सीटी बजी. दोस्त अपने झोले से एक किताब निकालता है, डिब्बे में बैठे सज्जन को थमा देता है कि किताब के सहारे सफर का वक्त आसानी से कट जाएगा. ‘आपको ये किताब जरूर ही पसंद आएगी’- दोस्त कहता है. लेकिन इसके बाद जो हुआ वो बड़ा नाटकीय है.

'एक बार पढ़ना शुरू किया तो फिर किताब ने जैसे मुझे जकड़ लिया.' इसके बाद, 'उस रात मुझे फिर नींद नहीं आई.' तो क्या किताब रहस्य-रोमांच की कथाओं की थी ? ना. 'मैंने तय कर लिया कि अब अपनी जिंदगी को किताब में बताए आदर्शों पर ढालना है.'

साल 1904 में, 8 जून से 25 जून के बीच मोहनदास करमचंद गांधी दो दफे जोहान्सबर्ग से डरबन गए. ऊपर का वाकया इन्हीं दो यात्राओं में से किसी एक का है- क्रिटिकल एडिशन ऑफ ऑटोबायोग्राफी( संपादक त्रिदिप सुहृद, प्रकाशक-पेंग्विन, 2018) में ये बात लिखी मिलती है. किताब देने वाले वो दोस्त थे हेनरी पोलक और किताब थी जॉन रस्किन की लिखी ‘अन टू द लास्ट’- 8 फरवरी के दिन इन्हीं जॉन रस्किन के जन्म की 200वीं वर्षगांठ है.

गांधी ने अपनी आत्मकथा के एक अध्याय द ‘मैजिक स्पेल ऑफ ए बुक’ में ऊपर के वाकये का जिक्र किया है. वे लिखते हैं कि ये ही वो किताब है ‘जो मेरी जिंदगी में तत्काल व्यावहारिक बदलाव’ का कारण बनी. वजह रही कि किताब में महात्मा गांधी को ‘अपने कुछ गहरे विश्वासों की झलक’ मिली.

mahatma gandhi

महात्मा गांधी

तो फिर उस किताब में लिखा क्या था ? गांधी ने किताब की शिक्षा को इन तीन बिन्दुओं में समझाया है::

'सबकी भलाई में ही अपनी भलाई है.'

'वकील का काम भी उतना ही मूल्यवान है जितना कि नाई का काम क्योंकि सबको अपने काम के सहारे जीविका कमाने का समान अधिकार है.'

'मेहनतकश की जिंदगी यानी खेत जोतते किसान और सामान बनाते कारीगर की जिंदगी ही, वास्तव में जीने लायक है.'

रस्किन की किताब अन टू द लास्ट का सार-संक्षेप महात्मा गांधी ने गुजराती में ‘सर्वोदय’ शीर्षक से किया था

रंगभेद के आधार पर रेलगाड़ी के प्रथम श्रेणी के डिब्बे से गांधी को बाहर फेंक दिया गया था- कहा जाता है, यही घटना महात्मा गांधी की जिंदगी में बदलाव का निर्णायक मोड़ बनी. रिचर्ड एटनबरो की फिल्म ने भी इस किंवदंति के निर्माण में अपना योग दिया है. बेशक वो घटना नाटकीय है लेकिन गांधी का सफर उस घटना के अगले रोज भी जारी रहा और इस सफर में गांधी को नस्लीय भेदभाव का कहीं ज्यादा सामना करना पड़ा. लेकिन रस्किन की किताब को पढ़कर गांधी एक दिन का भी इंतजार ना कर पाए( ‘मैं सुबह उठा और इन सिद्धांतों पर अमल करने के लिए एकदम तैयार था’). एक दिन के भीतर फैसला हो गया कि फीनिक्स आश्रम बनाना है, वहां मेहनतकश वाली जिंदगी जीने के प्रयोग करने हैं. तो फिर यों कहें कि गांधी की जिंदगी में बदलाव का निर्णायक क्षण पीटरमारित्जबर्ग के स्टेशन पर नहीं बल्कि उसी रेललाइन के एकदम आखिर में बने पार्क स्टेशन(जोहान्सबर्ग) पर आया था.

गांधी अभी 34 साल के थे, अध्यात्म की शिक्षा की राह पर नौसिखुआ! और, फीनिक्स का आश्रम वैकल्पिक अर्थशास्त्र की दिशा में एक प्रयोग से ज्यादा ना था लेकिन बाद के वक्त में वैकल्पिक आर्थिक जीवन के जो गहरे प्रयोग हुए, जैसे कि टॉल्स्टॉय फॉर्म, साबरमती का सत्याग्रह आश्रम और वर्धा का सेवाग्राम- उनकी आधारशिला भी फानिक्स आश्रम ही बना.

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अपनी चिट्ठियों, भाषणों और साक्षात्कारों में महात्मा ने लगातार जिक्र किया है कि कॉनिस्टन के संत (जॉन रस्किन) का उनपर स्थायी प्रभाव पड़ा था.

साल 1906 में कुछ स्थानीय लोगों ने ब्रिटिश सरकार में औपनिवेशिक मामलों के मंत्री लार्ड एल्गिन से ‘इंडियन ऑपिनियन’ के बाबत शिकायत की तो गांधी ने अपने बचाव में लिखा कि उनका अखबार टॉल्स्टॉय और रस्किन की खींची लकीर पर चल रहा है. उन्होंने अन टू द लास्ट का सार-संक्षेप गुजराती में ‘सर्वोदय’ शीर्षक से किया. यह इंडियन ओपिनियन में 1908 के मई-जुलाई के बीच नौ किश्तों में छपा. इसके अतिरिक्त, सिर्फ सुकरात के एपोलॉजी (प्लेटो कृत) का ही सार-संक्षेप उन्होंने गुजराती में किया था. बेशक गांधी ने गुजराती में वही लिखा जो उन्होंने किताब से समझा था : मिसाल के लिए, किताब के चार लेखों में पहले का शीर्षक है ‘ द रुटस् ऑफ ऑनर’; गांधी ने इसे द ‘रुटस् ऑफ ट्रूथ’ (सत्य के मूल) के रुप में लिखा है.

साल 1907 में छगनलाल गांधी को लिखी चिट्ठी में एक पंक्ति की सलाह दर्ज है: 'कृपया रस्किन की किताब पढ़िए.' पुत्र मणिलाल को 1909 में गांधी ने जेल से चिट्ठी में लिखा: 'मैं इमर्सन, रस्किन और मैजिनी को पढ़ता आ रहा हूं.' 'मैंने जेल में क्या पढ़ा' शीर्षक से गांधी ने अपने पाठकों को 'महान रस्किन' और 'महान थोरो' का नाम सुझाया जिनके 'लेखन में हमें सत्याग्रह के सिद्धांत मिलते हैं.इन सबको पढ़ने से सत्याग्रह में मेरा विश्वास दृढ़ हुआ है.'

john ruskin

महात्मा गांधी की मनोभूमि के निर्माण में ‘अन टू द लास्ट’ का प्रभाव किस हद तक रहा इसकी बेहतर समझ बनाने के लिए हमें ‘सर्वोदय’ के आखिरी अध्याय को पढ़ना चाहिए जिसमें रस्किन के संदेशों को भारतीय परिवेश के अनुकूल ढालकर पेश करने की कोशिश की गई है और इसके बाद पढ़ना चाहिए हमें महात्मा गांधी की सबसे महत्वपूर्ण किताबों में एक हिन्द-स्वराज को: एक बेलचक निरंतरता जान पड़ेगी आपको. हिन्द-स्वराज में रस्किन के योगदान की स्वीकृति में परिशिष्ट के रुप में संकलित 'सम अथॉरिटिज' के अंतर्गत उनकी दो पुस्तकों के नाम लिखे मिलते हैं.

और, अगर गांधी की लिखी दूसरी महत्वपूर्ण कृति यानी उनकी आत्मकथा पर नजर दौड़ाएं, जिसका ऊपर विस्तार से हवाला दिया गया है, तो हमें दिखेगा कि गांधी मानो अपनी एक निजी देवमाला बनाकर उसमें रस्किन का नाम शामिल कर रहे हैं : 'नए जमाने के तीन लोगों ने मेरे ऊपर गहरा असर डाला है और एक तरह से मुझे अपनी गिरफ्त में ले रखा है : रायचंद भाई [अध्यात्म गुरु श्रीमद् राजचंद] जिनसे स्नेहिल संपर्क रहा, टॉल्स्टॉय ने अपनी किताब 'द किंगडम ऑफ गॉड इज वीदिन यू' से असर डाला तो 'रस्किन ने 'अन टू द लास्ट' से.'

‘अन टू द लास्ट’ ने मुझे ‘अपने बाहरी जीवन को पूरी तरह बदल देने’ की प्रेरणा दी

आज की भाषा में इसे एक 'क्रमसूचिका' (लिस्टिकल) कहा जाएगा लेकिन इस लिस्टिकल को गांधी ने कई अवसरों पर दोहराया : श्रीमद् राजचंद्र के अभिनंदन ग्रंथ में, उनपर मॉडर्न रिव्यू में छपी श्रद्धांजलि में, साबरमती आश्रम में 1928 में हुई बैठक में टॉल्स्टॉय की शतवार्षिकी के मौके पर. साबरमती आश्रम में शिक्षक का दायित्व निभा रही प्रेमबहन कंटक को 1931 की एक चिट्ठी में लिखा : 'नायक वह होता है जिसपर श्रद्धा-बुद्धि जगे, माने समझो कि एक तरह का भगवान. मेरे जीवन पर आमतौर पर जिन व्यक्तियों का असर रहा वे हैं टॉल्स्टॉय, रस्किन और थोरो तथा रायचंदभाई. शायद, थोरो को मैं इस सूची से हटा भी दूं.' एक साल बाद उन्होंने मीराबहन को रस्किन की कृति ‘फोरस् क्लावाइज्रा’ पढ़ने के अनुभवों बारे में लिखा: ‘गहरी मानवीय संवेदनाओं का दस्तावेज’ है यह किताब. लेखक(रस्किन) को बारे में लिखा: ‘अपने लेखन में अत्यंत ईमानदार.’

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साल 1931 में, ब्रिटिश मैगजीन स्पेक्टेटर के संपादक एवलिन रेंच ने उनसे पूछा था(और शायद जानते-बूझते पूछा) कि क्या आपके ऊपर किसी किताब का बहुत गहरा असर रहा है या फिर आपके जीवन को कोई निर्णायक क्षण आया है? इसके जवाब में गांधी ने तुरंत ही आत्मकथा में लिखी बातों(जिनका हवाला ऊपर इस लेख में आया है) को नए मुहावरे में ढालते हुए कहा कि ‘अन टू द लास्ट’ ने मुझे ‘अपने बाहरी जीवन को पूरी तरह बदल देने’ की प्रेरणा दी है.

सिर्फ अपने जीवन पर ही नहीं, गांधी चाहते थे कि आजादी हासिल करने जा रहे हिन्दुस्तान के जीवन पर भी रस्किन के विचारों का असर हो. बंबई सूबे के वित्त एवं ग्रामीण उद्योग मंत्री वैकुंठलाल मेहता ने 1946 की जुलाई में पुणे में सूबाई उद्योग मंत्रियों की एक बैठक आयोजित की. इस बैठक में बोलते हुए गांधी ने एक बार फिर से अन टू द लास्ट के जादुई असर को याद किया और देश के औद्योगिक भविष्य का खाका खींचने जा रहे मंत्रियों से कहा:

' मुझे साफ दिख रहा है कि अगर मानवता को प्रगति करना और समानता तथा बंधुता के आदर्श को साकार करना है तो उसे अन टू द लास्ट में बताए सिद्धांतों पर चलना होगा, मानवता इस राह पर अपने साथ सबसे निस्सहाय जन को भी साथ ले चले.

' आजादी की जिस तस्वीर के भीतर सबसे कमजोर जन की जगह नहीं, आजादी की उस तस्वीर को मैं अपना नहीं कह सकता. इसके लिए जरुरी होगा कि हमारे पास जितना भी मानवीय श्रम मौजूद है, हम पहले उसका इस्तेमाल करें और इसके बाद ही मशीन की ताकत के इस्तेमाल के बारे में सोचें.'

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कलाकार और कारीगर में कोई अंतर नहीं मानते थे रस्किन

जॉन रस्किन [8 फरवरी 1819 – 20 जनवरी 1900] अपनी उम्र के तीसरे दशक के शुरुआती सालों में इंग्लैंड के अग्रणी कला-समीक्षक तथा निबंध-लेखकों में शुमार हो चले थे. बाईबल से प्रेरित रस्किन ने कला-समीक्षा को एक नैतिक आयाम दिया. मार्शेल प्रूस्त नाम का एक नौजवान रस्किन के निबंधों पर इतना मुग्ध हुआ कि अंग्रेजी की टूटी-फूटी जानकारी के बावजूद उसने रस्किन की दो किताबों का फ्रेंच भाषा में अनुवाद किया. किसी प्रशिक्षु के भाव से किया यह काम प्रूस्त के लिए बड़े फायदे का रहा- उसने इन ‘सर्च ऑफ लॉस्ट टाइम’ की रचना की जिसे बीसवीं सदी की कालजयी कृतियों में शुमार किया जाता है.

रस्किन कलाकार और कारीगर में कोई अंतर नहीं मानते थे. हाल के वक्त में कुछ लोग विशाल पैमाने के मशीनी उत्पादन की विचारधारा तथा संस्कृति की काट में हस्तशिल्प का रुख कर रहे हैं- रस्किन इस आंदोलन के एक तरह से प्रणेता हैं.

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रस्किन बाजार को ईश्वर-प्रदत्त सच्चाई मानकर चलने वाली राज्यार्थिकी के आलोचक थे और रस्किन के इसी आलोचक व्यक्तित्व का प्रभाव गांधी पर पड़ा. अदम स्मिथ से लेकर जॉन स्टुअर्ट मिल तक की आलोचना करने वाले रस्किन ने कहा कि अर्थव्यवस्था के नियम वैसे नहीं होते जैसे कि भौतिकी के नियम और अर्थव्यवस्था के नियमों को हमें अपनी नैतिकता की कसौटी पर जांचकर ही अपनाना चाहिए. इस विचार के सूत्र रस्किन ने बाइबल की एक कथा से लिए हैं जो कामगारों से संबंधित है.

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किताब का शीर्षक 'अन टू द लास्ट' भी उस कथा से ही लिया गया है. इसका संदेश है : काम चाहे किसी ने कम किया हो या ज्यादा लेकिन मजदूरी का भुगतान सबको समान हो. कई विचारक यह भी मानते हैं कि लोक-कल्याणकारी राज्य का विचार जिसे पूंजीवादी देशों तक में एक आदर्श के रुप में बरता जाता है- दरअसल रस्किन का ही है.

जीवन के अंतिम दशक में रस्किन उम्र के हाथों अशक्त हो चले थे लेकिन उनके जीवन और लेखन से फूटती नैतिक आभा तबतक चतुर्दिक फैल चुकी थी- वे औद्योगीकरण की राह अपनाते युरोप के ‘अंतरात्मा की आवाज’ बनकर स्वीकृत हो चले थे. अचरज नहीं कि टॉल्स्टॉय ने उन्हें उन विरले लोगों में एक माना जो अपने हृदय से सोचते हैं और ठीक इसी कारण उन्होंने ना सिर्फ अपना देखे और जाने हुए को वाणी दी बल्कि उस सबको भी जो आने वाले वक्तों में हर कोई सोचेगा और कहेगा.'

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