अब से कोई सत्तर साल पहले यानी 14 अक्तूबर 1949 का वक्त ! दायित्व-निर्वाह के निर्वाह के मोर्चे पर सरदार पटेल के सामने एक कठिन चुनौती आन खड़ी हुई. एक माह बाद पंडित जवाहरलाल नेहरू के जीवन के साठ साल पूरे होने वाले थे. अवसर हीरक जयन्ती का था और सरदार पटेल को इस मौके पर प्रकाशित हो रहे ‘नेहरू अभिनंदन-ग्रंथ’ के लिए ‘आशीष’ स्वरूप कुछ पंक्तियां लिखनी थी !
पटेल भारी ऊहापोह में थे- कैसे लिखें, क्या लिखें ! एक तरफ दोनों का निजी रिश्ता था- गहरे विश्वास का रिश्ता! पटेल के मन में शंका थी कि लोग इस रिश्ते को ठीक-ठीक समझते भी हैं या नहीं. दूसरी तरफ था एक गृहमंत्री के रूप में अपने सार्वजनिक दायित्व के निर्वाह का बोध ! कुछ लोगों के बीच यह राय बन चुकी थी कि शासन से जुड़ी बातों में गृहमंत्री पटेल के प्रधानमंत्री नेहरु से मतभेद हैं. पटेल को इन दो छोरों के बीच से नेहरू-अभिनंदन ग्रंथ के लिए अपने लिए रास्ता बनाना था.
बात इतनी भर ना थी कि देश के पहले गृहमंत्री को देश के पहले प्रधानमंत्री के बारे में अपनी राय दर्ज करनी थी. ऐसी राय जो अभिनंदन-ग्रंथ की मर्यादा के अनुरूप हो. मुश्किल ये थी कि आजादी के आंदोलन के एक विराट व्यक्तित्व को दूसरे विराट व्यक्तित्व का मूल्यांकन करते हुए लिखना था और इस मूल्यांकन में आपस का रिश्ता आड़े आ रहा था. वह रिश्ता जो बराबरी की जमीन पर बड़े लंबे साथ-सहयोग से पनपा था. स्नेह स्वाभाविक था और आपस का यही 'स्नेह' पटेल के लिए नेहरू के वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन में बाधा बन रहा था. पटेल ने ‘नेहरू अभिनंदन-ग्रंथ’ के लिए लिखे गए अपने 'आशिष' में दर्ज किया, 'घनिष्ठता, आत्मीयता और भातृतुल्य स्नेह के कारण मेरे लिए यह कठिन हो जाता है कि सर्व-साधारण के लिए उनकी (नेहरू की) समीक्षा उपस्थित कर सकूं.'
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लेकिन चुनौतियों से पार पाने का ही नाम सरदार पटेल भी है ! ‘अभिनंदन ग्रंथ’ के लिए उन्होंने 'आशिषः' शीर्षक से कुल 972 शब्द लिखे. ‘थोड़ा कहा-ज्यादा समझना’ की शैली में लिखे गए इस आशिषः में आशीर्वचन के शब्द सबसे आखिर के अनुच्छेद में आते हैं. आखिर का अनुच्छेद बस 34 शब्दों का है. शेष में नेहरू के व्यक्तित्व का मूल्यांकन है और इस मूल्यांकन का लगभग एक चौथाई (972 शब्दों में कुल 214 शब्द) हिस्सा नेहरू से उनके रिश्तों पर केंद्रित हैं. जाहिर है, ‘आशिषः’ के शब्द लिखते वक्त पटेल के मन में आपसी रिश्ते की बात बड़ी अहम रही होगी.
कैसे याद किया था सरदार पटेल ने पंडित नेहरू को अभिनंदन-ग्रंथ के ‘आशिषः’ में? क्या कहा था नेहरू के साथ अपने मतभेदों को लेकर लोगों में प्रचलित किस्से-कहानियों के बारे में? गांधी के अनुयायी, आजादी के आंदोलन, कांग्रेस के सदस्य और देश के शासन-प्रबंध चलाने के लिहाज से नेहरू के बरक्स अपने को किस जमीन पर देखते थे पटेल- ऊंचा मानते थे या एक-दूसरे को एक बराबर? क्यों नेहरु का ही प्रधानमंत्री बनना ठीक था ? ‘अभिनंदन-ग्रंथ’ में दर्ज ‘आशिषः’ आश्चर्यजनक तौर पर इन सारे सवालों के उत्तर देता है. ‘आशिषः’ के वचनों को लिखने के बस चौदह माह बाद (15 दिसंबर 1950) पटेल दुनिया के रंगमंच से विदा हो गए. सो, इसे नेहरू के प्रति उनका अंतिम प्रमाणिक सार्वजनिक वक्तव्य मानकर भी पढ़ा जा सकता है.
आशिषः
जवाहरलाल और मैं साथ-साथ कांग्रेस के सदस्य, आजादी के सिपाही, कांग्रेस की कार्यकारिणी और अन्य समितियों के सहकर्मी, महात्माजी के- जो हमारे दुर्भाग्य से हमें जटिल समस्याओं के साथ जूझने को छोड़ गए हैं- अनुयायी, और इस विशाल देश के शासन-प्रबन्ध के गुरुतर भार के वाहक रहे हैं. इतने विभिन्न प्रकार के कर्मक्षेत्रों में साथ रह कर और एक दूसरे को जान कर हम में परस्पर स्नेह होना स्वाभाविक था. काल की गति के साथ वह स्नेह बढ़ता गया है और आज लोग कल्पना भी नहीं कर सकते कि जब हम अलग होते और अपनी समस्याओं और कठिनाइयों का हल निकालने के लिए उन पर मिल कर विचार नहीं कर सकते, तो यह दूरी हमें कितनी खलती है. परिचय की इस घनिष्ठता, आत्मीयता और भातृतुल्य स्नेह के कारण मेरे लिए यह कठिन हो जाता है सर्व-साधारण के लिए उनकी समीक्षा उपस्थित कर सकूं. पर देश के आदर्श, जनता के नेता, राष्ट्र के प्रधानमंत्री और सबके लाडले जवाहरलाल को, जिनके महान कृतित्व का भव्य इतिहास सब के सामने खुली पोथी-सा है, मेरे अनुमोदन की कोई आवश्यकता नहीं है.
दृढ़ और निष्कपट योद्धा की भांति उन्होंने विदेशी शासन से अनवरत युद्ध किया. युक्त प्रांत के किसान-आंदोलन के संगठन-कर्ता के रूप में पहली ‘दीक्षा’ पाकर वह अहिंसात्मक युद्ध की कला और विज्ञान में पूरे निष्णात हो गए. उनकी भावनाओं की तीव्रता और अन्याय या उत्पीड़न के प्रति उनके विरोध ने शीघ्र ही उन्हें गरीबी पर जिहाद बोलने को बाध्य कर दिया. दीन के प्रति सहज सहानुभूति के साथ उन्होंने निर्धन किसान की अवस्था सुधारने के आंदोलन की आग में अपने को झोंक दिया. क्रमशः उनका कार्यक्षेत्र विस्तीर्ण होता गया और शीघ्र ही वह उस विशाल संगठन के मौन संगठनकर्ता हो गए जिसे अपने स्वाधीनता-युद्ध का साधन बनाने के लिए हम सब समर्पित थे. जवाहरलाल के ज्वलंत आदर्शवाद, जीवन में कला और सौन्दर्य के प्रति प्रेम, दूसरों को प्रेरणा और स्फूर्ति देने की अद्भुत आकर्षण-शक्ति और संसार के प्रमुख व्यक्तियों की सभा में भी विशिष्ट रूप से चमकने वाले व्यक्तित्व ने, एक राजनीतिक नेता के रूप में, उन्हें क्रमशः उच्च से उच्चतर शिखरों पर पहुंचा दिया है. पत्नी की बीमारी के कारण की गई विदेश-यात्रा ने भारतीय राष्ट्रवाद संबंधी उनकी भावनाओं को एक आकाशीय अन्तरराष्ट्रीय तल पर पहुंचा दिया. यह उनके जीवन और चरित्र के उस अन्तरराष्ट्रीय झुकाव का आरंभ था जो अंतरराष्ट्रीय अथवा विश्व-समस्याओं के प्रति उनके रवैये में स्पष्ट लक्षित होता है. उस समय से जवाहरलाल ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा; भारत में भी और बाहर भी उनका महत्व बढ़ता ही गया है. उनकी वैचारिक निष्ठा, उदार प्रवृत्ति, पैनी दृष्टि और भावनाओं की सचाई के प्रति देश और विदेशों की लाख-लाख जनता ने श्रद्धांजलि अर्पित की है.
तएव यह उचित ही था कि स्वातंत्र्य की उषा से पहले के गहन अंधकार में वह हमारी मार्गदर्शक ज्योति बनें और स्वाधीनता मिलते ही जब भारत के आगे संकट पर संकट आ रहा हो तब हमारे विश्वास की धुरी हों और हमारी जनता का नेतृत्व करें. हमारे नए जीवन के पिछले दो कठिन वर्षों में उन्होंने देश के लिए जो अथक परिश्रम किया है, उसे मुझसे अधिक अच्छी तरह कोई नहीं जानता. मैंने इस अवधि में उन्हें अपने उच्च पद की चिन्ताओं और अपने गुरुतर उत्तरदायित्व के भार के कारण बड़ी तेजी के साथ बूढ़े होते देखा है. शरणार्थियों की सेवा में उन्होंने कोई कसर नहीं उठा रखी, और उनमें से कोई कदाचित् ही उनके पास से निराश लौटा हो. कॉमनवेल्थ की मंत्रणाओं में उन्होंने उल्लेखनीय भाग लिया है, और संसार के मंच पर भी उनका कृतित्व अत्यंत महत्वपूर्ण रहा है. किन्तु इस सब के बावजूद उनके चेहरे पर जवानी की पुरानी रौनक कायम है और वह संतुलन, मर्यादा ज्ञान और धैर्य, मिलनसारी, जो आंतरिक संयम और बौद्धिक अनुशासन का परिचय देते हैं, अब भी ज्यों के त्यों है. निस्संदेह उनका रोष कभी-कभी फूट पड़ता है, किन्तु उनका अधैर्य, क्योंकि न्याय और कार्य-तत्परता के लिए होता है और अन्याय या धीमा-धीमी को सहन नहीं करता, इसलिए ये विस्फोट प्रेरणा देनेवाले ही होते हैं और मामलों को तेजी तथा परिश्रम के साथ सुलझाने में मदद देते हैं ये मानो सुरक्षित शक्ति हैं जिनकी चमक से आलस्य, दीर्घसूत्रता और लगन या तत्परता की कमी पर विजय प्राप्त हो जाती है.
आयु में बड़े होने के नाते मुझे कई बार उन समस्याओं पर परामर्श देने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है जो शासन-प्रबंध या संगठन के क्षेत्र में हम दोनों के सामने आती रहती हैं. मैंने सदैव उन्हें सलाह लेने को तत्पर और मानने को राजी पाया है. .कुछ स्वार्थप्रेरित लोगों ने हमारे खिलाफ भ्रांतियां फैलाने का यत्न किया है और कुछ भोले व्यक्ति उनपर विश्वास भी कर लेते हैं किन्तु वास्तव में हमलोग आजीवन सहकारियों और बंधुओं की भांति साथ काम करते रहे हैं. अवसर की मांग के अनुरूप हमने परस्पर एक-दूसरे के दृष्टिकोण के अनुसार अपने को बदला है और एक-दूसरे के मतामत का सर्वदा सम्मान किया है जैसा कि गहरा विश्वास होने पर ही किया जा सकता है. उनके मनोभाव युवकोचित उत्साह से लेकर प्रौढ़ गम्भीरता तक बराबर बदलते रहते हैं और उनमें वह मानसिक लचीलापन है जो दूसरे को झेल भी लेता है और निरुत्तर भी कर देता है. क्रीड़ारत बच्चों में और विचार-संलग्न बूढ़ों में जवाहरलाल समान भाव से भागी हो जाते हैं. यह लचीलापन और बहुमुखता ही उनके अजस्र यौवन, उनकी अद्भुत स्फूर्ति और ताजगी का रहस्य है.
उनके महान और उज्ज्वल व्यक्तित्व के साथ इन थोड़े से शब्दों में न्याय नहीं किया जा सकता. उनके चरित्र और कृतित्व का बहुमुखी प्रसार अंकन से परे है. उनके विचारों में कभी-कभी वह गहराई होती है जिसका तल ना मिले, किन्तु उनके नीचे सर्वदा एक निर्मल पारदर्शी खरापन, और यौवन की तेजस्विता रहती है, और इन गुणों के कारण सर्व-सामान्य- जाति-धर्म-देश पार कर- उनसे स्नेह रखते हैं.
स्वाधीन भारत की इस अमूल्य निधि का हम आज, उनकी हीरक जयन्ती के अवसर पर, अभिनन्दन करते हैं. देश की सेवा में, और आदर्शों की साधना में वह निरन्तर नई विजय प्राप्त करते रहें.
14 अक्तूबर, 1949
वल्लभभाई पटेल
(अभिनंदन-ग्रंथ 14 नवंबर 1949 को जवाहरलाल नेहरू को भेंट किया गया. यह अंग्रेजी और हिन्दी में एक साथ प्रकाशित हुआ. फ़र्स्टपोस्ट पर प्रकाशित आशिषः के वचन अभिनंदन ग्रंथ के हिन्दी संस्करण से लिए गए हैं. इस संस्करण के प्रकाशक के रूप में विश्वनाथ मोर, आर्यावर्त प्रकाशन गृह, 47 मुक्ताराम बाबू स्ट्रीट, कलकत्ता का नाम दर्ज है और मुद्रक के रूप में जीवनकृष्ण शर्मा, इलाहाबाद लॉ जर्नल प्रेस (इलाहाबाद) लिखा है)
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