अंग्रेजों ने राजाओं को निकम्मा, नौकरशाही को अहमक और जजों को दंभपूर्ण बना कर भारत में साम्राज्यवाद की मजबूत नींव डाली, जिससे आजादी के 70 वर्ष बाद भी मुक्ति नहीं मिली है. सरकार और अन्य संस्थाओं को सुधारने से पहले अदालतों को अपनी व्यवस्था सुधारने की शुरुआत क्यों नहीं करनी चाहिए?
जजों की नियुक्ति प्रणाली को सुधारने के लिए एमओपी में बदलाव क्यों नहीं- मजबूत सरकार के दौर में हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति केंद्र सरकार द्वारा की जाती थी. गठबंधन सरकार के दौर के बाद 1993 से कॉलेजियम प्रणाली के तहत सुप्रीम कोर्ट ने जजों की नियुक्ति पर अधिकार हासिल कर लिया.
मोदी सरकार ने जजों की नियुक्ति पर बदलाव करने के लिए संसद में एनजेएसी कानून पारित किया, जिसे सुप्रीम कोर्ट में 2015 में निरस्त कर दिया. सरकार और सुप्रीम कोर्ट दोनों ने जजों की मौजूदा नियुक्ति प्रणाली को दोषपूर्ण माना, इसके बावजूद मेमोरेंडम ऑफ प्रोसिजर (एमओपी) में बदलाव क्यों नहीं हो रहा?
ब्रिटिश दौर के कानूनों से कैसे आए स्वराज- अंग्रेजों द्वारा 1935 में गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट बनाया गया, जिसके आधार पर भारत का वर्तमान संविधान बना. देश के अधिकांश कानून अंग्रेजों ने 19वीं शताब्दी में बनाए, जिनमें हिंदी और भारतीय भाषाओं के इस्तेमाल की बहुत कम गुंजाइश है. कानून को एक निश्चित समय के बाद खत्म करने के लिए सनसेट का नियम होना चाहिए, जिसका भारत में इस्तेमाल ही नहीं होता.
केंद्र और राज्य में अनेक प्रकार के कानून, नियम, शासकीय आदेश एवं नोटिफिकेशंस हैं पर उनका एक जगह रिकॉर्ड न होने से भ्रष्टाचार और लालफीताशाही बढ़ रही है. पुराने जटिल कानूनों को नए जमाने के अनुरूप बदलाव करने में संसद की विफलता से सुस्त अदालतों में 3 करोड़ से अधिक मुकदमों का ढेर, आज़ाद भारत का सबसे बड़ा नासूर बन गया है.
डिजीटल इंडिया के दौर में नए कानूनों के अभाव से फैलती विषमता- देश में गरीबों पर पुराने कानूनों की मार पड़ रही है और विदेशी कंपनियां कानूनी शून्यता का बेजा फायदा उठा रही हैं. अर्थव्यस्था के उदारीकरण और डिजिटल इंडिया के दौर में सरकार के सामने नई चुनौतियां सामने आई हैं. एनपीए, ई-कॉमर्स, डेटा सुरक्षा, बिट क्वॉइन और शेल कम्पनियों जैसे कुछ जरूरी मामलों को अभी तक कानून में परिभाषित ही नहीं किया गया, तो सरकार उन पर कारवाई कैसे करेगी?
अदालती कारवाई की वीडियो रिकॉडिंग से पारदर्शिता क्यों नहीं- जनता द्वारा आरटीआई के इस्तेमाल से सरकार में पारदर्शिता आई है. फिर न्यायपालिका इस जवाबदेही से क्यों बच रही है? गरीब और आम जनता को कचहरी के चक्कर से मुक्ति मिल जाए, यदि अदालतों में भी संसद की तरह कार्यवाही का सीधा प्रसारण शुरू हो जाए. अदालतों द्वारा ई-मेल तथा इलेक्ट्रानिक माध्यम से नोटिस सर्विस के नियमों के सख्त पालन से मुकदमों का जल्द निपटारा संभव हो सकता है.
अदालतों में भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप के बावजूद जजों के विरुद्ध कारवाई नहीं- पुराने समय में पंच को परमेश्वर माना जाता था और अभी भी जजों को भगवान का दर्जा दिया जाता है. लेकिन हाईकोर्ट के पूर्व जज कर्णन समेत कई अन्य रिटायर्ड जजों ने न्यायिक व्यवस्था पर भ्रष्टाचार के गम्भीर आरोप लगाए हैं.
न्यायिक व्यवस्था में बदहाली पर संसद में भी कई बार गंभीर चिंता व्यक्त की गई है. जजों को असीमित अधिकार तथा पर्याप्त सुविधाएं मिलती हैं फिर अनियमिताओं के लिए जवाबदेही और बर्खास्तगी के साथ कठोर दंड की व्यवस्था क्यों नहीं होनी चाहिए?
सीनियर एडवोकेट की विशिष्ट व्यवस्था और वकीलों में फर्जीवाड़े का आरोप- रसूखदार लोगों के मामलों में बड़े वकील कानून की मनमाफिक व्याख्या करने में सफल हो जाते हैं, वहीं दूसरी ओर कानूनी सहायता न मिलने से लाखों गरीब और अशिक्षित लोग बेवजह जेलों में बंद हैं. बार काउंसिल के चेयरमैन के अनुसार देश में एक तिहाई फर्जी वकील, न्यायिक व्यवस्था में अराजकता और भ्रष्टाचार बढ़ा रहे हैं.
आधार के सही इस्तेमाल और अदालती कारवाई की वीडियो रिकॉर्डिंग से इस पर रोक लगाई जा सकती है. देश की पहली महिला सीनियर वकील इंदिरा जयसिंह ने सीनियर एडवोकेट की व्यवस्था को संविधान के विरुद्ध बताया है, तो क्या इस व्यवस्था में भी अब सुधार का वक्त नहीं आ गया है?
मी लार्ड यदि पंच परमेश्वर बने तभी आएगा सच्चा स्वराज- दोषपूर्ण व्यवस्था में अपारदर्शी तरीके से नियुक्त हो रहे जजों को परंपरानुसार वकील भले ही मी लार्ड संबोधित करें पर जनता जजों को पंच परमेश्वर कैसे माने?
यह समझना मुश्किल है कि न्यायिक सुधारों को अपनाने से बचने और जजों की नियुक्ति प्रक्रिया में पारदर्शिता लाए बिना केवल जजों की संख्या बढ़ाने से आम जनता को जल्दी न्याय कैसे मिलने लगेगा? आजादी के 70 वर्ष के बाद सभी को जल्द और समान न्याय मिलने की शुरुआत हो, तभी तो भारत में सच्चा स्वराज आएगा.
(लेखक सुप्रीम कोर्ट में वकील हैं)
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