80 के दशक में टेप-रिकॉर्डर ने भारतीय मध्यम-वर्ग में अपनी अच्छी खासी पैठ बना ली थी. मुझे याद है लोगों में रेडियो से ज्यादा इसके लिए दिलचस्पी पैदा हो गयी थी. इसी के साथ गुलाम अली की आवाज से हर गली और नुक्कड़ का रिश्ता बंध गया था.
उस समय जगजीत से ज्यादा मशहूर थे गुलाम अली. जाहिर सी बात है कि गुलाम अली के साथ-साथ वो भी मशहूर हो रहे थे जिन्हें गुलाम अली गा रहे थे. उन्हीं शायरों में एक नाम था इब्ने इंशा का.
अक्सर देखा गया है कि किसी गायक की शोहरत में उसके द्वारा गायी गई गजलों का भी काफी हाथ होता है, फिर भी, ये जरूरी नहीं कि आप लिखने वाले के नाम से वाकिफ हो जाएं. इसके लिए आपके अंदर साहित्यिक दिलचस्पी का होना जरूरी होता है. वर्ना आम श्रोता को बोल भाते हैं या आवाज, शायर से उसे क्या लेना-देना.
मक्ता की शुरूआत इब्ने के साथ
लेकिन इब्ने इंशा के साथ ये बात नहीं थी, वो गायक के साथ ही मशहूर हुए और इसकी एक खास वजह थी. दरअसल उनकी शायरी का अंदाज ही कुछ ऐसा था जो उन्हें सबसे जुदा करता था. वो अपने नाम का इस्तेमाल जैसे करते थे उनसे पहले या उनके बाद किसी ने वैसे उसका इस्तेमाल नहीं किया. कई बार तो किसी गीत या गजल की शुरुआत ही उनके नाम से होती थी इसीलिए लोगों की जबान पर उनका नाम तैरता दिखाई देता था.
इंशा जी उठो अब कूच करो
इस शहर में दिल का लगाना क्या
वहशी को सुकूं से क्या मतलब
जोगी का नगर में ठिकाना क्या
या फिर –
बेदर्द सुननी हो तो चल, कहता है क्या अच्छी ग़ज़ल
आशिक तेरा, रुसवा तेरा, शाईर तेरा, ‘इंशा’ तेरा
या फिर –
चांद किसी का हो नहीं सकता, चांद किसी का होता है?
चांद की खातिर जिद नहीं करते, ऐ मेरे अच्छे ‘इंशा चांद
ऐसे ही शेर इब्ने इंशा की शायरी में जगह-जगह मिल जायेंगे जिसमें उन्होंने अपने नाम का इस्तेमाल बहुत रचनात्मक तरीके से किया है. उर्दू शायरी में इसे तखल्लुस कहा जाता है. और जिस शेर में नाम आता है उसे ‘मक्ता’ कहते हैं जिसका मतलब होता है, ग़ज़ल का अंतिम शेर. लेकिन इंशा जी इस पाबन्दी को नहीं मानते और जहां जी में आता है अपना नाम लेकर, अपनी बात पूरी करते हैं.
इंशा की शायरी का दूसरा खूबसूरत अंग है उनकी जबान. जो ठेठ हिन्दुस्तानी है, पाकिस्तान में रहते हुए भी उसपर बनावटी उर्दू का मुलम्मा नहीं चढ़ा पाया.
पीत करना तो हमसे निभाना सजन
हमने पहले ही दिन था कहा ना सजन
शहर के लोग अच्छे हैं हमदर्द हैं
पर हमारी सुनो हम जहां-गर्द हैं
दागे-दिल मत किसी को दिखाना सजन
ये ज़माना नहीं वो ज़माना सजन
या फिर उनकी इस गजल के कुछ शेर देखिये–
देख हमारे माथे पर ये दश्ते-तलब कि धूल मियाँ
हमसे अजब तेरा दर्द का नाता देख हमें मत भूल मियाँ
खेलने दें उन्हें इश्क की बाज़ी, खेलेंगे तो सीखेंगे
'क़ैस’ की या ‘फ़रहाद’ कि खातिर खोलें क्यों स्कूल मियाँ
रेडियो, किताब और शायरी
इब्ने इंशा की पैदाइश 1927 में, जालंधर में हुई. मां-बाप ने तो उनका नाम शेर मुहम्मद खान रखा था लेकिन 12-15 साल की उम्र से ही उन्होंने खुद को इंशा जी कहलवाना और इब्ने इंशा लिखना शुरू कर दिया था. लुधियाना में उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई और विभाजन से पहले वो ऑल इंडिया रेडियो में कार्यरत रहे, विभाजन के बाद कराची चले गए और पकिस्तान रेडियो में मुलाजिम हो गए. लिखने-पढ़ने और किताबों से उनके इश्क ने उन्हें पकिस्तान के कौमी किताब-घर का डायरेक्टर बनाया और यूनेस्को में भी उन्होंने कुछ अरसा अपने सेवाएं दीं.
फिर व्यंग्य
लेकिन जिन चीज़ों के लिए इंशा जी हमेशा याद किये जायेंगे वो है उनके मिजाज का अलबेलापन. उनकी एक किताब ‘उर्दू की आखिरी किताब’ व्यंग्य-साहित्य का बेजोड़ नमूना है. इसे भारत में अब्दुल बिस्मिल्लाह ने अनूदित किया है. वो इस किताब के बारे में लिखते हैं.
'इंशा जी के व्यंग्य में जिन बातों को लेकर चिढ़ दिखाई देती है वो छोटी-मोटी चीजें नहीं हैं. मसलन विभाजन, हिन्दुस्तान-पकिस्तान की अवधारणा, मुस्लिम बादशाहों का शासन, आजादी का छद्म, शिक्षा व्यवस्था, थोथी नैतिकता, भ्रष्ट राजनीति आदि. अपनी सारी चिढ़ को वो बहुत गहन गंभीर ढंग से व्यंग्य में ढलते हैं ताकि पाठकों को लज्जत भी मिले और लेखक की चिढ़ में वो खुद को शामिल महसूस करें.'
उदाहरण के लिए, इसी किताब में एक जगह इंशा जी एक सवाल को अपने पाठकों के साथ किस अनूठे तरीके से साझा करते हैं उसकी एक बानगी देखिये. सवाल ये है कि हमने जिस हिन्दुस्तान-पाकिस्तान कि कल्पना की थी क्या हमें वो मिला?
इंशा जी लिखते हैं, 'अंग्रेजों के जमाने में अमीर और जागीरदार ऐश करते थे. ग़रीबों को कोई पूछता भी नहीं था. आज अमीर लोग ऐश नहीं करते और ग़रीबों को हर कोई इतना पूछता है कि वे तंग आ जाते हैं.'
(ये लेख हम दोबारा प्रकाशित कर रहे हैं)
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