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धारा 377: LGBTQ की लड़ाई लड़ने वाले कब सिर्फ 'संबंध बनाने' से आगे बढ़ेंगे?

दो लोगों के बीच संबंध या प्रेम एक निजी मुद्दा है, इसे अपराध करार देना गलत है लेकिन सिर्फ इसी को एक वर्ग की सारी मुश्किलों का हल मान लेना भी सही नहीं है

Updated On: Jul 14, 2018 04:10 PM IST

Animesh Mukharjee Animesh Mukharjee

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धारा 377: LGBTQ की लड़ाई लड़ने वाले कब सिर्फ 'संबंध बनाने' से आगे बढ़ेंगे?

सुप्रीम कोर्ट में सेक्शन 377 को लेकर सुनवाई चल रही है. आसान शब्दों में कहें तो एलजीबीटीक्यू समुदाय के अधिकारों और समलैंगिक संबंधों पर पुनर्विचार चल रहा है. एलजीबीटीक्यू समुदाय ऐसा समयुदाय है जिसकी पहचान उसकी लैंगिकता और उसके यौन संबंध बनाने के तरीकों और क्षमता से बनती है. ध्यान दें, इस तरह की पहचान समाज में अक्सर गालियां देने में ही इस्तेमाल होती है और जब हम समाज की बात कर रहे हैं तो दुनिया का हर समाज इसमें शामिल है. इस पूर्वधारणा में मत रहिए कि ऐसा सिर्फ भारतीय या तीसरी दुनिया के समाज में होता है.

पश्चिमी मीडिया अक्सर इन अधिकारों के लिए 'गे राइट्स' और 'सेम सेक्स मैरिज' शब्द इस्तेमाल करता है. ये शब्द कहीं न कहीं ये दर्शाते हैं कि सारी लड़ाई समान लिंग वाले लोगों के बीच संबंध बनाने और उनकी शादी को जायज़ ठहराने की है. जबकि एनाल्सा जजमेंट के तहत ट्रांसजेंडर एक वर्ग है. इसके अंदर ट्रांसमेल, ट्रांसफीमेल, क्रॉस ड्रेसर और तमाम दूसरे प्रकार आते हैं. वहीं किसी भी व्यक्ति के लिए शादी और सेक्स जीवन का एक पहलू है, पूरे जीवन की धुरी नहीं. ट्रांसजेंडर समुदाय के अधिकारों की बात करते समय कहीं न कहीं बाकी वर्ग पीछे छूट जाते हैं.

इतिहास और अन्याय

दुनिया के अलग-अलग समुदायों में होमोसेक्सुअलटी को लेकर अलग-अलग स्तर पर क्रूरता रही है. ईसाई मिशनरी इसे अपराध मानती हैं. ये सोच इतनी क्रूर है कि किसी भी शख्स की बड़ी से बड़ी उपलब्धि सिर्फ उसके गे-लेस्बियन होने से छिन सकती है. ब्रिटेन के प्रोफेसर एलन ट्यूरिंग दुनिया के इतिहास में बड़ा मुकाम रखते हैं. उन्होंने द्वितीय विश्वयुद्ध के समय एनिग्मा कोड को तोड़ने वाली मशीन बनाई. एनिग्मा कोड को तोड़े बिना जर्मनी और हिटलर को हराना संभव नहीं था. प्रोफेसर ट्यूरिंग की मशीन ही आज के इलेक्ट्रॉनिक कंप्यूटर का आधार है. इन सबके बाद भी प्रोफेसर ट्यूरिंग को जेल जाना पड़ा, उन्हें नपुंसक बना दिया गया. इस पूरे अत्याचार और अपमान का कारण उनका समलैंगिक होना था. इसी तरह वियतनाम युद्ध में दो अवॉर्ड जीत चुके अमेरिकी एयरफोर्स के सार्जेंट लिओनार्ड मैट्लोविच को सेना से उनके सेक्सुअल ओरिएंटेशन के चलते निकाल दिया गया था. लंबी लड़ाई के बाद सार्जेंट मैट्लोविच की वापस बहाली हुई थी. वर्तमान में सभी पश्चिमी देशों में सेम सेक्स मैरिज की वकालत ज़ोर शोर से चल रही है.

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इस्लामिक मुल्कों में एलजीबीटी मामलों को लेकर सबसे ज्यादा विरोधाभास हैं. इस्लामिक मान्यताओं में यह अपराध है. लेकिन मध्यकाल से ये इस्लामिक रहन-सहन का मान्य हिस्सा रहा है. खुसरो से लेकर खिलजी तक कई उदाहरण हैं. आज की तारीख में अफगानिस्तान, नाईजीरिया, ईरान और ब्रुनेई जैसे देशों में होमोसेक्सुअलटी मौत की सज़ा वाला अपराध है. वहीं इराक़, तुर्की, इंडोनेशिया के ज़्यादातर हिस्सों और जॉर्डन में ये कानूनी रूप से स्वीकृत है. कुवैत, तुर्कमेनिस्तान और उज़बेकिस्तान में महिलाओं का महिला से संबंध बनाना कानूनी तौर पर जायज़ है मगर पुरुषों के लिए ये अपराध है. कह सकते हैं कि दुनिया भर का इस्लामिक तबका इस मुद्दे पर दो हिस्सों में बंटा हुआ है.

भारत में ट्रांसजेंडर और समलैंगिकता से जुड़े कई कथानक पौराणिक और दंत कथाओं में मिलते हैं. लेकिन पोस्ट कोलोनियल (ब्रिटिश उपनिवेश से मुक्त होने के बाद) भारत में सेक्स पर बात करना ही अघोषित प्रतिबंध के दायरे में है. ऐसे में समलैंगिक संबंधों की बात तो दूर की कौड़ी है.

भारतीय एलजीबीटीक्यू समुदाय की एलीटनेस और समस्याएं

इस बात में कोई दो राय नहीं कि ट्रांसजेंडर समाज के हर आर्थिक वर्ग में हैं. लेकिन भारतीय एलजीबीटीक्यू आंदोलन का बड़ा हिस्सा अपने ही समाज से कटा हुआ है. 2016 की दिल्ली की प्राइड परेड के दौरान इस आंदोलन को करीब से देखने का मौका मिला. उस अनुभव से समझ आया कि एलजीबीटी समुदाय में भी दो वर्ग हैं.

एक वर्ग एलीट, उच्च मध्यमवर्गीय लोगों का है. इनमें गे, लेस्बियन, क्रॉस ड्रेसर, ट्रांसजेंडर सभी हैं. इनकी सबसे बड़ी समस्या है कि आंदोलन से जुड़े इनके सारे मुद्दे सेम सेक्स शादी से आगे नहीं बढ़ते. अगर आप इनमें से किसी के लिए अपनी अज्ञानता में हिजड़ा कह दें तो लोग किसी पितृसत्तात्मक सोच वाले पुरुष से ज्यादा आहत हो जाएंगे. उन स्थितियों में भी जहां व्यक्ति एलजीबीटी समुदाय के साथ सकारात्मक तरीके से बात करना चाहता हो लेकिन उनके वर्गीकरण के बारे में न जानता हो.

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दूसरा वर्ग इनके मूल अधिकारों की बात करता है. ट्रांसजेंडर होना सिर्फ अलग तरीके से सेक्स करना नहीं है. ऐसे लोगों को नौकरी मिलना बहुत मुश्किल है. हिजड़ों के पैसे मांगने के आक्रामक तरीकों, सेक्स रैकेट और ड्रग्स में फंसने की बात हर कोई करता है. उनके लिए नौकरी होने न होने की बात कहीं नहीं है. कितने निजी दफ्तर हैं जहां ट्रांस समुदाय सहज रूप से नौकरी करता दिखता है? हमारे आसपास अगर कोई क्रॉस ड्रेसर नौकरी का इंटरव्यू देने आए तो कितने प्रतिशत संभावना है कि उसे नौकरी मिलेगी? टीवी, रेडियो, तमाम 'प्रगतिशील' यूट्यूब चैनलों में कोई ट्रांसजेंडर काम करते दिखा हो? पाकिस्तान इस मामले में हमसे बहुत आगे है.

वर्ग और अंतर यहां भी

दरअसल भारत में एलजीबीटी अधिकारों की लड़ाई मुख्य रूप से धारा 377 के आस-पास सिमट गई है. इसमें स्थानीय और रोज़मर्रा के मुद्दे छूट गए हैं. किसी भी प्राइड परेड में जाने पर ऐसे कई लोग मिलते हैं जो एक अच्छा सामाजिक जीवन जी रहे थे मगर, जिन्हें अपनी सेक्सुअलटी के चलते सामाजिक जीवन में परेशानी देखनी पड़ी. उदाहरण के लिए आप हंसल मेहता की फिल्म अलीगढ़ देख सकते हैं. ऐसा भी वर्ग मिलता है जो किसी अपने के लिए लड़ रहे हैं. लेकिन समाज के निचले तबके में सड़कों पर पैसे मांगकर जी रहा ट्रांस समुदाय इससे लगभग पूरी तरह बाहर है. ये भेदभाव वैसा ही है जैसा कथित ऊंची जाति के गरीब और कथित नीची जाति के किसी परिवार की सामाजिक स्वीकृति के बीच होता है. जैसा किसी गोरी चमड़ी और सुनहरे बालों वाली लड़की की फेमिनिस्ट मांगों और एक अश्वेत अफ्रीकी लड़की की बराबरी की मांगों के बीच होता है. आप मार्क्स से सहमत हों या न हों. समाज के दो वर्ग और उनका अंतर हर जगह होता है यहां भी है.

अगर सिस्टम की बात करें तो, 377 को लेकर सरकार का कथन स्पष्ट नहीं है. अंतर्राष्ट्रीय और समाजिक दवाब ऐसा है कि एलजीबीटी अधिकारों के खिलाफ बोलना, मानवाधिकारों के खिलाफ बोलने जैसा है. जबकि वर्तमान सरकार का पारंपरिक वोटर कहीं न कहीं समलैंगिकता को बीमारी मानता है. इन सबके बीच देश में कई राज्यों में ट्रांडजेंडरों के लिए अलग से बाथरूम या उनकी पुलिस वगैरह में नौकरी सुनिश्चित करने के उदाहरण सामने आए हैं. ट्रांसजेंडर समुदाय को लेकर इस स्तर पर सकारात्मक कदम उठाए जाने की ज़रूरत है, जिनमें अभी भी कमी है.

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दो लोगों के बीच संबंध या प्रेम एक निजी मुद्दा है, इसे अपराध करार देना गलत है लेकिन सिर्फ इसी को एक वर्ग की सारी मुश्किलों का हल मान लेना भी सही नहीं है. याद रहे जिन गिल्बर्ट बेकर ने एलजीबीटी का रेनबो झंडा बनाया था उनकी लड़ाई भी हार्वे मिल्क के साथ शुरू हुई थी. मिल्क कैलिफोर्निया से चुने गए पहले राजनीतिक प्रतिनिधि थे, जिनकी बाद में परंपरावादियों ने हत्या कर दी थी. भारत में भी सेम सेक्स मैरिज से जुड़े अधिकारों की बात करना ज़रूरी है लेकिन उससे भी ज़रूरी इस आंदोलन को व्यापक बनाना है.

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