चटगांव और कॉक्स बाजार के बीच डेढ़ सौ किलोमीटर का सफर मेरे लिए रोमांच भरा था. यहां से जुड़े कई सवाल मेरे जेहन में थे. पूरे चार घंटे की यात्रा में कहीं कस्बाई हाट-बाजार दिखा तो कहीं धान के पौधों से लदे हरे-भरे खेत. कहीं दूर-दूर तक फैले घने जंगल तो कहीं गांवों की अलग-अलग बसावट. दक्षिणी बांग्लादेश के चटगांव डिवीजन स्थित इस जिले की प्राकृतिक सुंदरता भादो के महीने में दोगुनी हो गई थी. आपने दुनिया में कई समुद्री तटों का सैर किया होगा या फिर उनके बारे में सुना होगा. लेकिन कॉक्स बाजार के समुद्री तट को बगैर देखे आपका तजुर्बा मुकम्मल नहीं कहा जा सकता. कॉक्स बाजार दुनिया का सबसे लंबा समुद्री तट है, जिसकी लंबाई 120 किलोमीटर है. प्रदूषण की वजह से जहां दुनिया कई समुद्री तट अपना सौंदर्य खो रहे हैं, वहीं कॉक्स बाजार के तट इससे महफूज है.
फिलहाल दक्षिणी बांग्लादेश का यह तटीय नगर रोहिंग्या शरणार्थियों की वजह से दुनिया भर में चर्चा में है. म्यामांर से आए रोहिंग्या शरणार्थी शिविरों का दौरा करना मेरी बांग्लादेश यात्रा की प्राथमिकता थी. वैसे तो इन शिविरों में दाखिल होना खासकर किसी विदेशी पत्रकार के लिए आसान नहीं था. लेकिन शरणार्थी शिविरों में इमदाद चला रहे मोहम्मद आमीन और सैफुल इस्लाम की वजह से कोई मुश्किलात पेश नहीं आईं. उनके बांग्ला समेत उर्दू भाषी होने के कारण संवाद की बाकी समस्या भी हल हो गईं. शाम ढलने से पहले मैं कॉक्स बाजार पहुंच गया था. उनके साथ समंदर किनारे कुछ समय गुजारने के बाद एक इलेक्ट्रिक रिक्शा में सवार होकर मैं एक गेस्ट हाउस पहुंचा. उन्होंने हमारे ठहरने का प्रबंध पहले से किया हुआ था.
रात में खाने की मेज पर रोहिंग्या शरणार्थियों के हालात पर थोड़ी-बहुत बातें हुईं. अलबत्ता तय हुआ कि नाश्ते के बाद हम लोग रोहिंग्या शिविरों का दौरा करेंगे. कॉक्स बाजार स्थित बालुखाली-कुटुपालोंग इलाके में रोहिंग्या शरणार्थियों का सबसे बड़ा शिविर है. म्यांमार से आए कुल रोहिंग्याओं की आधी संख्या यहीं मौजूद है. सुबह नौ बजे हमलोग कुटुपालोंग के रोहिंग्या शिविरों की ओर निकल पड़े. जगह-जगह सड़कें जाम होने की वजह से सवा घंटे का सफर ढाई घंटे में पूरा हुआ. मोहम्मद आमीन इस समस्या के बारे में बताते हैं, ‘कॉक्स बाजार की सड़कों पर पहले इतनी गाड़ियां नहीं थीं. म्यांमार से रोहिंग्याओं के आने के बाद यातायात की हालत खराब हुई है. दुनिया भर के एनजीओ यहां रिलीफ में जुटे हैं. टूरिस्ट प्लेस होने के कारण पहले यहां सिर्फ छुट्टियों के समय भीड़ होती थी. लेकिन एनजीओ कर्मियों की वजह से कॉक्स बाजार के ज्यादातर होटल सालों भर बुक रहते हैं. कई विदेशी एनजीओ के दफ्तर होटलों के कमरे से चलता है.
पुराना है रोहिंग्याओं के आने का सिलसिला
कुटुपालोंग पहुंचने पर हमारी मुलाकात रजाउल करीम से हुई. वह रोहिंग्या शरणार्थी शिविरों के चीफ मजिस्ट्रेट हैं. करीम बताते हैं, ‘कॉक्स बाजार में कुल बारह लाख पंजीकृत रोहिंग्या शरणार्थी रह रहे हैं. हालांकि कुछ संख्या गैर-पंजीकृत रोहिंग्याओं की भी है. ओखिया और टेकनॉप थाना क्षेत्रों में रोहिंग्याओं शरणार्थियों के कुल तीस कैंप हैं. हर कैंप में एक मजिस्ट्रेट मुकर्रर किया गया है. कॉक्स बाजार में 1992 से करीब 33,000 रोहिंग्या रह रहे हैं. यूनिसेफ ने इन्हें पंजीकृत किया है. नब्बे के दशक में रोहिंग्याओं के खिलाफ म्यामांर में बड़ी सैन्य कार्रवाई हुई थी. उस वक्त दो लाख रोहिंग्याओं ने कॉक्स बाजार में शरण ली. इनमें पौने दो लाख बाद में वापस चले गए लेकिन 35,000 रोहिंग्या यहीं रह गए. उनके अनुसार 9 अक्टूबर 2016 को तीन लाख रोहिंग्या यहां आए. जबकि 25 अगस्त 2017 को सबसे ज्यादा 8,00000 रोहिंग्याओं ने म्यामांर से हिजरत कर यहां पनाह ली. ‘द रिफ्यूजी रिलीफ एंड रिपैट्रीएशन कमिश्नर’ (आरआरआरसी) और बांग्लादेश सरकार ने रोहिंग्या शरणार्थियों की सुरक्षित वापसी के तहत ‘रिपैट्रीएशन काउंसिल’ गठित की है लेकिन बीते दो वर्षों में एक भी रोहिंग्या की वापसी नहीं हुई है.
राहत कार्यों में लगे एनजीओ
कॉक्स बाजार को ‘एनजीओ का शहर’ कहना गलत नहीं होगा. दुनिया भर के तमाम बड़े एनजीओ यहां राहत कार्यक्रम चला रहे हैं. इनकी कुल संख्या 110 है जिनमें ऑक्सफेम, एक्शन-एड, सेव द चिल्ड्रेन, क्रिश्चियन एड आदि प्रमुख हैं. राहत सामग्रियों के वितरण के लिए बारह केंद्र बनाए गए हैं. अंतराष्ट्रीय एनजीओ की मदद से बारह अस्पताल बनाए गए हैं. फिलहाल कॉक्स बाजार के रोहिंग्या शरणार्थी शिविरों में 51,000 महिलाएं गर्भवती हैं. परिवार नियोजन को लेकर इनमें जागरूकता नहीं है. लेकिन हिंदुओं में थोड़ी-बहुत जागरूकता देखी जा सकती है.
एक एनजीओ से जुड़े मोहम्मद शौकत अजीज बताते हैं, ‘शरणार्थी शिविरों में हर परिवार को वर्ल्ड फूड प्रोग्राम के तहत महीने में 50 किलो चावल समेत अन्य खाद्य सामग्रियां मिलती हैं. शुरू में रोहिंग्याओं को स्थानीय लोग नकदी भी देते थे. लेकिन बांग्लादेश सरकार ने इस पर रोक लगा दी है. शिविरों में रहने वाले रोहिंग्याओं के लिए कुछ पाबंदियां भी हैं. मसलन, उन्हें कैंप से बाहर महज दो किलोमीटर के दायरे में ही घूमने-फिरने की इजाजत है. उससे आगे जगह-जगह पर बांग्लादेशी सेना के चेक पोस्ट हैं. जहां चौबीसों घंटे कड़ा पहरा होता है. हर आने-जाने वालों को यहां सुरक्षा जांच और पहचान से गुजरना होता है. मोहम्मद अजीजुर रहमान का ताल्लुक बारिसाल जिले से है. एक एनजीओ में कार्यरत रहमान डेढ़ सालों से कॉक्स बाजार में हैं. उनके मुताबिक इंटरनेशनल ऑर्गनाइजेशन ऑफ माइग्रेशन की तरफ से कुटुपालोंग समेत सभी तीस शरणार्थी शिविरों में अस्पताल और डॉक्टर मौजूद हैं. अमूमन होने वाली सभी बीमारियों का यहां इलाज होता है. लेकिन मरीजों की हालात गंभीर होने पर रोहिंग्या शरणार्थियों को कॉक्स बाजार और चटगांव के बड़े अस्पतालों में भी दाखिल कराया जाता है.
म्यांमार जाएंगे तो मारे जाएंगे
पैंतीस साल की सनवार बेगम अपने छोटे बच्चों और बूढ़ी सास के साथ कुटुपालोंग कैंप में रहती हैं. सनवार बेगम उन बदनसीबों में हैं जिसके परिवार में कोई पुरुष सदस्य नहीं है. 27 अगस्त 2016 की वह खौफनाक रात जब उनके शौहर अजीजुल्लाह, देवर नजीबुल्लाह और दस साल के बेटे मुबीनउल्लाह को म्यांमार आर्मी ने जिंदा जला दिया. वह रखाइन प्रांत स्थित मोसलिन गांव छोड़कर जाना नहीं चाहती थीं लेकिन अपने करीबी रिश्तेदारों के कहने पर वह बांग्लादेश आ गईं. सनवार बताती हैं कि रखाइन प्रांत में अभी भी दो लाख रोहिंग्या मौजूद हैं. लेकिन वे कब तक सुरक्षित हैं यह कोई नहीं जानता. म्यांमार में रोहिंग्याओं को मोबाइल फोन इस्तेमाल करने की इजाजत नहीं थी. उन्हें एक जगह से दूसरी जगह जाने के लिए टोकन लेना होता था.
शेख इब्राहिम का अराकान प्रांत में छोटा सा व्यापार था. सैनिक कार्रवाई के दौरान उसके घर और दुकान में लूट और आगजनी की गई. ‘अराकान रोहिंग्या सोसायटी ऑफ पीस एंड ह्यूमन राइट्स’ के महासचिव मोहम्मद सईदउल्लाह बताते हैं, ‘25 अगस्त 2017 तक 10,566 रोहिंग्याओं का कत्ल किया गया. मरने वालों में दो हजार बच्चे भी शामिल थे. ढाई हजार महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया. म्यांमार सैनिकों के हवस का शिकार बनी महिलाओं ने 613 बच्चों को जन्म दिया. लेकिन इन बच्चों का पिता कौन है यह कोई नहीं जानता. रोहिंग्या की तरफ से तेरह चार्टर ऑफ डिमांड म्यांमार सरकार को दिए हैं. उनका कहना है कि अगर सरकार इसे मान लेती है तो वे वापस लौट आएंगे.
हिंदुओं पर धर्म परिवर्तन का दबाव
म्यांमार से बांग्लादेश आने वाले बारह लाख रोहिंग्याओं में 110 हिंदू परिवार भी हैं. कुटुपलांग शरणार्थी शिविर में असिसटेंट कैंप इंचार्ज मोहम्मद कमाल हुसैन बताते हैं, हिंदू रोहिंग्याओं की संख्या 630 है जो अराकान और रखाइन प्रांत के गांवों से आए हैं. सभी हिंदुओं को एक साथ कुटुपलांग कैंप में रखा गया है. यहां उन्हें कोई तकलीफ नहीं है और न ही धर्म के नाम पर उनके साथ कोई भेदभाव किया जाता है. उन्हें पूरी तरह धार्मिक आजादी है. इस बार इन्होंने दुर्गा पूजा मंडप स्थापित करने की योजना बना रहे हैं. रखाइन से आए मनोहर बर्मन अपने परिवार के साथ शरणार्थी शिवर में रहते हैं. वह बताते हैं कि बांग्लादेश सरकार की तरफ से उन्हें पूरी राहत दी जा रही है. लेकिन कैंप में रहने वाले कई मौलवी उन पर धर्म परिवर्तन का दबाव बनाते हैं. इस बाबत कैंप मजिस्ट्रेट से इसकी शिकायत की लेकिन असुरक्षा की भावना बनी रहती है.
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आपसी झगड़े में अस्सी हत्याएं
मुसीबत के मारे लोगों को आपसी एकता कायम रखनी चाहिए ऐसा कहा जाता है. लेकिन कॉक्स बाजार के रोहिंग्या शरणार्थी शिविरों का किस्सा इससे उलट है. म्यांमार में सैन्य कार्रवाई से अपनी जान बचाकर बांग्लादेश आए रोहिंग्या आपस में एक दूसरे का खून बहा रहे हैं. बालुखाली कैंप की इंजार्ज फातिमा नसरीन बताती हैं कि पिछले दो वर्षों के दौरान कुटुपलांग और टेकनॉप कैंप में अस्सी रोहिंग्या की हत्याएं हुई हैं और मरने वाले सभी मुसलमान थे. झगड़े की मुख्य वजह इनकी पुरानी दुश्मनी थी. लेकिन कई हत्याएं बेहद मामूली बातों पर भी हुई है. मसलन चापाकल से पानी भरने को लेकर तो कभी दो बच्चों के बीच हुई कहासुनी को लेकर. ऐसी घटनाओं को बांग्लादेश सरकार और स्थानीय प्रशासन चिंतित है. गैर-मुल्की होने की वजह से दोषियों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करना संभव नहीं है. ऐसी वारदातों को रोकने के लिए संवेदनशील कैंपों में खास एतहियात बरती जा रही है. इस बाबत पीस कमेटियों का गठन किया गया है. जिसमें मौलानाओं व मुअज्जमों को शामिल किया गया है.
रोहिंग्या और बांग्लादेशी के बीच शादियां नहीं
बांग्लादेश सरकार की तरफ से रोहिंग्या महिलाओं का बांग्लादेशी नागरिक से शादी करने की सख्त पाबंदी है. इसके बावजूद यहां कई ऐसी शादियां हुई हैं. इन शादियों के बाद पैदा हुए बच्चों की नागरिकता क्या होगी यह एक बड़ा सवाल है. कैंप इंचार्ज फातिमा नसरीन बताती हैं कि शुरुआत में कुछ रोहिंग्याओं और बांग्लादेशियों के बीच शादियां हुईं. जानकारी मिलने पर सरकार की तरफ से उन रोहिंग्या परिवारों को चिन्हित किया गया जिन्होंने अपनी बेटियों की शादी की.
कुटुपलांग शिविर में रहने वाले शाह आलम यहां बने एक मस्जिद में इमाम हैं. उनका कहना है कि बेशक हम मुसलमान हैं लेकिन हमारे तौर-तरीके बांग्लादेशियों से अलग हैं. हमारे कैंप में चोरी-छिपे कुछ ऐसी शादियां हुई हैं. एक बाप जिसकी बेटियां शादी के लायक हो चुकी हैं. अगर उसने ऐसा किया तो इंसानी तकाजा कहता है वह सही है. लेकिन किसी मुल्क का कानून और उसकी आईन इसकी इजाजत नहीं देता है. लिहाजा अपनी जगह एक बाप भी सही है और सरकार भी खुद अपनी जगह दुरुस्त है. कैंप इंचार्ज फातिमा नसरीन के मुताबिक ऐसी शादियों को वैधता नहीं मिल सकती. रोहिंग्या एक शरणार्थी की हैसियत से यहां हैं. हालात सही होने पर उन्हें म्यांमार जाना होगा.
कॉक्स बाजार के वनों पर संकट
रोहिंग्या शरणार्थियों के आने से पहले कॉक्स बाजार की जनसंख्या 22,89,990 थी. लेकिन म्यांमार से आए बारह लाख रोहिंग्याओं के कारण इस जिले पर काफी दबाव बढ़ गया है. कॉक्स बाजार में जहां रोहिंग्याओं के लिए शिविर बनाए गए हैं. वे संरक्षित वन क्षेत्र हैं जिसका कुल रकबा दस हजार एकड़ है. कैंप बनाने के लिए लाखों पेड़ काटे गए और यह सिलसिला बदस्तूर जारी है. स्थानीय प्रशासन भी इसे पर्यावरण के लिए गंभीर खतरा मान रहे हैं. इससे भूक्षरण का खतरा भी बढ़ गया है. अगर एक-दो वर्षों तक यहां रोहिंग्याओं का वास रहा तो कॉक्स बाजार के जंगल समाप्त हो जाएंगे. गौरतलब है कि कॉक्स बाजार बंगाल की खाड़ी के तट पर बसा है. इस इलाके में समय-समय पर समुद्री चक्रवात आते रहते हैं. यहां वनों की बहुतायत होने से भू-स्खलन का खतरा कम रहता है. लेकिन पिछले दो वर्षों के दौरान कॉक्स बाजार में बड़े पैमाने पर जगलों का सफाया हुआ. जो भविष्य में गंभीर पर्यावरणीय संकट उत्पन्न करेगा.
रोहिंग्याओं को उर्दू बोलने से गुरेज नहीं
कॉक्स बाजार के रोहिंग्या शरणार्थी शिविरों में जाने से पहले मैं पसोपेश में था. उनसे संवाद कैसे कायम हो यह मुख्य वजह थी. लेकिन मुझे हैरानी हुई जब कुटुपालोंग शिविर में रहने वाले रोहिंग्या बेहिचक अच्छी उर्दू बोल रहे थे. यहां मदरसे में पढ़ाने वाले मौलाना अबुल हसन बताते हैं कि 'रोहिंग्या मुसलमान इस्लाम की हनफी परंपरा पर अमल करते हैं. वैसे हमारा सिलसिला हिंदुस्तान के दारूल-उलूम-देवबंद से भी रहा है. जब हिंदुस्तान आने-जाने में कोई दिक्कत नहीं थी. तब हमारे बाप-दादा तालीम हासिल करने सहारनपुर जाते थे.' भारत के बंटवारे से पहले बिहार,उत्तर-प्रदेश और राजस्थान आदि जगहों से लोग बर्मा में काम करते थे. वे सभी हिंदी-उर्दू में बातें करते थे. धीरे-धीरे रंगून समेत कई सूबों में उर्दू समझी और बोले जाने लगी. लेकिन इसके बरक्स ज्यादातर रोहिंग्या महिलाएं बर्मी जबान में बातें करते दिखीं.
शरणार्थी शिविरों में रहने वाली लगभग सभी महिलाएं बुर्कानशीं थीं. वे कितनी तालीमयाफ्ता हैं इस बारे में अब्दुल शकूर बताते हैं, 'लड़कियों को सिर्फ मदरसे में दीनी तालीम दी जाती है. म्यांमार में इसे लेकर भी सरकार से हमारा विरोध रहा. रोहिंग्या मुसलमान शरियत के मुताबिक तालीम हासिल करते हैं. लेकिन सरकार की शिक्षा नीति हमारे मजहब के लिए मुफीद नहीं है. इसलिए हम लोग औरतों को मदरसे या घर में तालीम देते हैं.'
कहानी एक रोहिंग्या जमींदार की
सत्तर साल के हुसैन अली और उनका परिवार कुटुपलांग शरणार्थी शिविर में टीन और तिरपाल से बने घर में रहते हैं. अराकान प्रांत के नाजिदम गांव के रहने वाले हुसैन अली खुद को तीन सौ बीघे के बड़ा काश्तकार बताते हैं. म्यांमार से उन्होंने अपने जमीनों के कुछ कागजात भी साथ लाए हैं. लेकिन ज्यादातर दस्तावेज म्यांमार सेना द्वारा लगाई गई आग में जल गई.
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अपनी नागरिकता प्रमाण-पत्र दिखाते हुए वह कहते हैं, 'रोहिंग्या म्यांमार के नागरिक हैं इससे सरकार इनकार नहीं कर सकती. हमें वर्ष 1963 में नागरिकता मिली लेकिन साल 2010 में सभी रोहिंग्याओं की नागरिकता छीन ली गई.' उनके मुताबिक कॉक्स बाजार में रहने वाले सभी रोहिंग्या गरीब नहीं हैं. ऐसे लोगों की तादात करीब तीस फीसद है जिनकी माली हालत ठीक है. रोहिंग्याओं को अराकान से भगाने की वजह अराकान में चीन के सहयोग से बनने वाला गैस पाइपलाइन परियोजना है. इन कैंपों में हुसैन अली जैसे और कई बड़े किसान हैं जिनकी जमीनों पर सरकार ने कब्जा कर लिया. जिन किसानों ने इसका विरोध किया उनकी हत्या कर दी गई. पूरे म्यांमार में कुल तीस लाख रोहिंग्या मुसलमान रहते हैं. जिनमें ज्यादातर बेदखली और फर्जी कानूनी मुकदमे झेल रहे हैं.
अवामी लीग सरकार पर विपक्षी हमला
रोहिंग्या शरणार्थियों को म्यांमार से आए ढाई साल हो गए. लेकिन उनके लिए सुरक्षित अपने मुल्क वापसी की राह आसान नहीं हुई है. बांग्लादेश और म्यांमार के बीच ढाका में कई दौर की बातें भी हुईं लेकिन म्यांमार की तरफ से रोहिंग्याओं को वापस बुलाने के कोई संकेत नहीं मिले हैं. वैश्विक मंच पर आंग सान सू की और संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव के बीच राफ्ता भी हुआ. लेकिन रोहिंग्याओं के भविष्य पर कोई बात नहीं हुई. भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और आंग-सांग-सू की भी मिले लेकिन इस मुद्दे पर कहीं कोई चर्चा नहीं हुई. जबकि बांग्लादेश के मानवाधिकार कार्यकर्ताओं समेत कई राजनीतिक दलों को कहना है कि रोहिंग्या शरणार्थियों के मुद्दे पर भारत को भी शामिल करना चाहिए.
गौरतलब है कि इस साल दिसंबर में बांग्लादेश में जातीय संसद (नेशनल असेंबली) के चुनाव होने हैं. विपक्षी पार्टियों का आरोप है कि प्रधानमंत्री शेख हसीना शरणार्थी संकट और उससे उपजे हमदर्दी का चुनावी फायदा उठाना चाहती हैं. बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी समेत कई दीगर पार्टियों का कहना है कि प्रधानमंत्री शेख हसीना रोहिंग्याओं की वापसी को लेकर म्यांमार सरकार से गंभीर बातचीत की पहल नहीं कर रही है. उल्लेखनीय है कि संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस और विश्व बैंक के अध्यक्ष जिम योंग किम ने इसी साल जुलाई में कॉक्स बाजार के रोहिंग्या शरणार्थी शिविरों का संयुक्त दौरा किया था. विश्व बैंक की तरफ से बांग्लादेश को करोड़ों डॉलर देने की अनुशंसा की गई. विपक्षी दलों का आरोप है कि अवामी लीग सरकार ने शरणार्थी संकट को एक व्यापार बना दिया है.
इंदिरा की राह पर हसीना
1971 के मुक्ति युद्ध के समय भारत न सिर्फ बांग्लादेश बनाने में ऐतिहासिक मदद की. बल्कि लाखों बांग्लादेशियों की जान-माल की हिफाजत के लिए अपनी सरहदें भी खोल दीं. पाकिस्तानी सेना के जुल्म के मारे लाखों की तादात में बांग्लादेशियों ने असम, पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा आदि राज्यों में शरण ली. पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में भारत की सफल सैन्य कार्रवाई की वजह से प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की एक मजबूत वैश्विक छवि बनी. इस तरह मजहब की बुनियाद पर बना पाकिस्तान चौबीस वर्षों में तकसीम हो गया. इस तरह बांग्लादेशियों में मन में इंदिरा गांधी की करुणामयी छवि बन गई.
खुद प्रधानमंत्री शेख हसीना और उनकी छोटी बहन शेख रेहाना ने भी सात वर्षों तक यूरोप और भारत में शरणार्थी जैसी जिंदगी गुजारी. जब उनके पिता बंगबंधु शेख मुजीबुर्रहमान समेत उनके कई परिजनों की हत्या एक सैन्य साजिश के तहत कर दी गई. शायद इसे अपनों के खोने का गम कहें या सियासत, जब प्रधानमंत्री शेख हसीना ने कॉक्स बाजार के रोहिंग्या शरणार्थी शिविरों के दौरे बाद कहा, ‘हमारी सरकार जब सोलह करोड़ बांग्लादेशियों का पेट भर सकती है तो म्यांमार से आए रोहिंग्या शरणार्थियों को भी भूखा नहीं मरने देगी.'
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प्रधानमंत्री हसीना का यह बयान न सिर्फ अंतरराष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियां बना, बल्कि बांग्लादेश में उनकी मुखालिफ पार्टियां भी इस मुद्दे पर सरकार के साथ दिखीं. वैसे भी विपक्षी पार्टियों के लिए इस फैसले का विरोध करना सियासी खुदकुशी करने जैसा होता. इसकी मूल वजह है रोहिंग्या मुसलमानों के प्रति बांग्लादेशियों की हमदर्दी. रोहिंग्याओं को शरण देकर प्रधानमंत्री शेख हसीना को तीन फायदे हुए- पहला वैश्विक मंच और मानवाधिकारों के हिमायतियों के बीच उनके दखल में इजाफा, दूसरा बांग्लादेशियों की नजरों में उनकी ममतामयी छवि मजबूत हुई, तीसरा भारतीय उपमहाद्वीप में इंदिरा गांधी जैसी लोकप्रियता हासिल करने की महत्वाकांक्षा. हालांकि अगर वह ऐसा चाहती हैं तो उसमें कुछ गलत भी नहीं है. एक गरीब देश होकर भी बांग्लादेश ने म्यांमार से आए बारह लाख रोहिंग्याओं के लिए अपनी सीमाएं खोल दीं. ठीक उसी तरह जब पाकिस्तान के खिलाफ मुक्ति युद्ध में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बांग्लादेशियों के लिए सरहदें खोल दीं.
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