फैज़ अहमद फैज़ उर्दू शायरी का एक ऐसा नाम है जिसकी शायरी आज भी मजलूमों के लिए हिम्मत का काम करती है. फैज़ का जन्म 13 फरवरी, 1911 को अविभाजित भारत के सियालकोट (अब पाकिस्तान) में हुआ था. फैज पहले सूफी संतों से प्रभावित थे. 1936 में वे सज्जाद जहीर और प्रेमचंद जैसे लेखकों के नेतृत्व में स्थापित प्रगतिशील लेखक संघ में शामिल हो गए. फैज़ इसके बाद एक प्रतिबद्ध मार्क्सवादी हो गए.
उर्दू शायरी और नज्म में प्रेम या इश्क का बड़ा जोर रहता है. फैज भी पहले इश्किया शायरी ही किया करते थे, जिसपर सूफीवाद का गहरा प्रभाव देखा जा सकता है. प्रगतिशील लेखक संघ का नारा था- ‘हमें हुस्न के मयार को बदलना होगा’ यानी कविता और शायरी में प्रेम-मोहब्बत की जगह आम लोगों, मजलूमों और मजदूरों के बारे में लिखने की अपील की गई.
फैज़ ने भी अपनी शायरी के मिजाज को बदला और शायरी में आम लोगों के दुख-दर्द को जगह दी. फैज़ ने बिल्कुल शायराना अंदाज में प्रेम-मोहब्बत की शायरी न लिखने की घोषणा की. फैज़ ‘मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग’ में लिखते हैं-
लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मग़र क्या कीजे और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
यानी प्रिय से मिलन की खुशी के अलावा और भी ऐसी चीजें हैं जिन्हें करने से खुशी मिलती है. फैज़ यह स्वीकार करते हैं कि उनकी प्रेमिका का हुस्न अभी भी खूबसूरत है लेकिन जमाने में जो दुख हैं शायर के लिए वो अब ज्यादा मायने रखते हैं. फैज़ ने अपनी शायरी से उर्दू शायरी के सूरत को बदल कर रख दिया. ‘इंतिसाब’ नामक नज्म तो पूरी की पूरी आमलोगों को समर्पित है. यह महिलाओं, कामगारों और सताए हुए लोगों को समर्पित है.
क्रांति का शायर
फैज़ अहमद फैज़ क्रांति में विश्वास करने और जगाने वाले शायर थे. फैज़ की शायरी सताए हुए लोगों के लिए है और उनकी उम्मीदों और सपनों को आवाज देने वाली है. भारत-पाकिस्तान विभाजन से मिलने वाली आजादी से फैज खुश नहीं थे. उन्होंने साफ-साफ लिखा:
ये दाग़-दाग़ उज़ाला, ये शब गज़ीदा सहर वो इंतज़ार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं
फैज़ सिर्फ शायरी में ही क्रांति की बात करने वाले शायर नहीं थे. उन्होंने पाकिस्तान की सरकार के खिलाफ खुलेआम बगावत भी की. इसका खामियाजा कभी उन्हें जेल जाकर तो कभी देश निकाला द्वारा सहना पड़ा. लेकिन क्रांति में और जनता में उनका भरोसा कभी भी कम नहीं हुआ. फैज़ क्रांति में अगाध विश्वास रखने वाले शायर हैं वो लिखते हैं:
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे वो दिन कि जिसका वादा है जो लौहे-अज़ल में लिक्खा है जब ज़ुल्मों-सितम के कोहे-गरां रूई की तरह उड़ जाएंगे सब ताज उछाले जाएंगे सब तख़्त गिराए जाएंगे…
कुछ इसी तरह की बात उन्होंने ‘चंद रोज़ और मेरी जान फ़क़त चंद ही रोज़’ में भी कही है. इसी तरह ‘कुत्ते’ नामक अपनी नज्म में फैज़ ने सर्वहारा की ताकत के बारे में लिखा है. फैज़ का मानना है कि जिस दिन सर्वहारा को अपनी ताकत का एहसास हो जाएगा उस दिन वे दुनिया को बदलकर रख देंगे. फैज़ बोलने की आजादी के हिमायती थे. क्रांति के लिए जागरण जरूरी है और बिना अपनी आवाज को बुलंद किए बगैर न किसी को जगाया जा सकता है और न ही कोई बदलाव किया जा सकता है. फैज़ लिखते हैं:
बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे बोल ज़बां अब तक तेरी है
इसी तरह तानाशाही के खिलाफ फैज़ लिखते हैं:
निसार मैं तेरी गलियों के में ए वतन, कि जहां चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले
लेकिन इसके साथ वे यह भी कहते हैं:
यूं ही हमेशा उलझती रही है ज़ुल्म से ख़ल्क़ न उनकी रस्म नई है, न अपनी रीत नई यूं ही हमेशा खिलाए हैं हमने आग में फूल न उनकी हार नई है न अपनी जीत नई
फैज़ न सिर्फ भारतीय उपमहाद्वीप की जनता के दर्द को आवाज देते हैं बल्कि फिलिस्तीन, अफ्रीका और ईरानी जनता के दर्द को भी अपनी शायरी में आवाज देते हैं. फैज़ इस मायने में एक अंतरराष्ट्रीय शायर हैं जिसकी शोषित-पीड़ित जनता के पक्ष में खड़ी है.
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