सोशल मीडिया और इंटरनेट ने भारत समेत दुनिया भर के लोकतांत्रिक देशों पर कई सारे सकारात्मक असर डाले हैं. इंटरनेट के आने के बाद नागरिकों के पास सूचना के स्रोतों की बहुलता है. सूचनाओं पर सरकार का एकाधिकार घटा है. अखबारों और टेलीविजन पर भी लोगों की निर्भरता घटी है. जहां टेलीविजन ने सूचना की दुनिया को तेज और समकालीन बनाया था, वहीं इंटरनेट में तेजी और समकालीन होने के अलावा इंटरेक्टिव होने का एक अतिरिक्त गुण भी है. इसमें आप सूचनाओं के लिए चुनिंदा संपादकों, रिपोर्टरों या एंकरों की कृपा पर निर्भर नहीं होते. आप हजारों स्रोत में से अपनी पसंद का समाचार स्रोत चुन सकते हैं या कई स्रोत के जरिए सूचना लेकर अपनी ज्ञान या सूचना की जरूरत पूरी कर सकते हैं. इससे मिली सूचना को बांटना, सहेजकर रखना और अपने चुने हुए समय पर इस्तेमाल करना भी आसान है.
इंटरनेट और सोशल मीडिया ने लोकतंत्र में एक नया पहलू जोड़ा है. संचार के इस मीडियम की वजह से समूह निर्माण का काम भी तेज हो गया है. मिसाल के लिए पहले के समय में यह मुमकिन था कि आपके दिमाग में कोई बात आने पर आप चुप रह जाते थे. यह सोचकर कि शायद सिर्फ आप ही ऐसा सोच रहे हैं या हो सकता है कि यह कोई दिमागी फितूर हो. लेकिन आज आप आसानी से ऐसे लोगों से जुड़ सकते हैं, जो आपके जैसा सोचते हैं.
आप ऐसे लोगों का वर्चुअल ग्रुप बना सकते हैं और रियल लाइफ मे भी उनसे मिलने की संभावना तलाश सकते हैं. यह मीडियम समान राजनीतिक विचार वालों को साथ ला सकता है. मुद्दा आधारित समूहों का निर्माण भी आसान हुआ है. पर्यावरण को लेकर समान चिंता रखने वालों को सोशल मीडिया इकट्ठा कर सकता है. इलाके में ट्रैफिक नियमों के समर्थन या विरोध में या ऐसे ही तमाम मुद्दों पर ग्रुप बन सकते हैं. इंटरनेट ने समूह निर्माण की अनंत संभावनाएं पैदा कर दी हैं.
खासकर वंचित समूहों के लिए, जिनकी मुख्यधारा की मीडिया में पहुंच नहीं है या कम है, इंटरनेट और सोशल मीडिया ने आपसी संवाद के नए रास्ते खोल दिए हैं. भारत जैसे देश में जहां मीडिया का न सिर्फ धार्मिक और लैंगिक बल्कि जातीय चरित्र भी है और वह शहरी तो है ही, मुख्यधारा की मीडिया में उनकी अपनी बोली हुई आवाज कम सुनाई देती है. इस खाली जगह को इंटरनेट और सोशल मीडिया ने भरा है.
अब वंचित या हाशिए के समाज के लोग आपस में सोशल मीडिया पर खूब बात कर रहे हैं और सूचनाएं शेयर कर रहे हैं. एससी-एसटी एक्ट में संशोधन के खिलाफ 2 अप्रैल, 2018 के भारत बंद के बारे में यह भी कहा गया कि इसमें संगठक की भूमिका सोशल मीडिया ने निभाई. इस बंद को किसी स्थापित राजनीतिक दल या संगठन ने आयोजित नहीं किया था, फिर भी यह अभूतपूर्व रूप से सफल रहा.
इंटरनेट और सोशल मीडिया ने लोगों को एक मायने में आजाद भी किया है. अल्पमत ही नहीं, अगर किसी देश में सिर्फ एक आदमी किसी मसले में अलग राय रखता है, तो उसके लिए भी कई लोगों तक पहुंचने की संभावना इस माध्यम ने पैदा की है. कम से कम सैद्धांतिक रूप से तो यह मुमकिन है कि वह अकेला आदमी लाखों लोगों का समर्थन हासिल कर ले.
अक्सर कोई भी मीडियम या उपकरण या टेक्नोलॉजी अपने साथ कुछ खामियां या बुराइयां भी लेकर आती है. सोशल मीडिया और इंटरनेट ने बेशक सूचना स्रोतों की बहुलता और विविधता पैदा की है, लेकिन जरूरी नहीं है कि लोग इस विविधता का इस्तेमाल करें. बल्कि इसका उल्टा हो रहा है. खासकर सोशल मीडिया का अलॉगरिद्म ऐसा है कि यह आपको आपके दोस्तों के दोस्तों से, परिचितों के परिचितों से जोड़ता है.
यहां आपके आसपास वही लोग बार-बार नजर आते हैं, जिनकी बातों को आप लाइक करते हैं या शेयर करते हैं. इस तरह सैद्धांतिक रूप से तो आप फेसबुक पर भारत में 25 करोड़ यूजर्स में से किसी के साथ भी जुड़ सकते हैं, लेकिन आप अक्सर अपने पेशे, ऑफिस, कॉलेज, इलाके, भाषा या जाति या धर्म या विचार के लोगों के समूह में बंध जाते हैं. सोशल मीडिया में बन रहे या मजबूत हो रहे गिरोहों की तुलना आप उन अपार्टमेंट या हाउसिंग सोसायटी से कर सकते हैं, जिसमें एक जैसे लोग रहते हों और मेन गेट पर गार्ड खड़े हों.
भारत जैसे विकसित हो रहे लोकतंत्र में अभी भी आदमी की नागरिक वाली पहचान पूरी तरह बनी नहीं है. यहां व्यक्ति अपनी धार्मिक, जातीय, भाषाई या भौगोलिक पहचान को ही अपना प्राथमिक पहचान मानकर चलता है. दरअसल भारतीय कहा जाने वाला समाज सैकड़ों साल से, असंख्य सामुदायिक गिरोहों में बंटा है. लगभग दर्जन भर धर्म, बीसियों भाषाएं, सैकड़ों परंपरागत पेशे, छह हजार से ज्यादा जातियां और इनके कॉम्बिनेशन में बनने वाले लाखों समूह पहले से हैं.
सोशल मीडिया ने सिर्फ यह किया है कि इस गिरोहों के बीच संवाद का एक बेहतर माध्यम उपलब्ध करा दिया है. इससे गिरोह पहले की तुलना में ज्यादा मजबूत हुए हैं और उनका भौगोलिक विस्तार भी हुआ है. साथ ही नए गिरोह बन भी रहे हैं.
मिसाल के तौर पर अपनी ही जाति में शादी कराने के लिए पहले बिचौलिये कुछ गांवों या पास के जिलों के ही रिश्ते लाते थे. अब कम्युनिटी आधारित मेट्रिमोनी साइट्स देश और विदेश तक से जाति के रिश्ते लेकर आ रहे हैं. इतना ही नहीं, जाति के हितों को लेकर राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय समूह बनने लगे हैं और उनके आंदोलन भी उभरने लगे हैं. लेकिन लोग अपने जैसे लोगों से ही बात करें, यह लोकतंत्र के लिए कोई अच्छी बात नहीं है. खासकर तब जबकि समाज में जाति और धर्म के आधार पर लाइनें खिंची हुई हों, तो संवाद या कहें असंवाद की यह स्थिति समाज को टकराव और हिंसा की ओर ले जा सकती है.
सोशल मीडिया की एक और बड़ी खामी यह है कि आम तौर पर यह आपके विचारों को बदलने का माहौल नहीं देता. बल्कि आप जिस बात पर जिस तरह से सोच रहे हैं, उसी सोच को मजबूत करता है या उस सोच को आक्रामकता प्रदान करता है. लोग इंटरनेट पर अक्सर अपनी पसंद या सोच की पुष्टि करने आते हैं, चूंकि आप इस माध्यम में अपने जैसे लोगों से घिरे हैं, इसलिए यह आपके अंदर समालोचक वाली सोच यानी क्रिटिकल थिंकिंग विकसित नहीं होने देता. इसलिए आप सोशल मीडिया की डिबेट्स में पाएंगे कि किसी राजनीतिक विचार का व्यक्ति उस विचारधारा के दल में आ गई किसी बुराई या दल के किसी गलत फैसले पर आलोचनात्मक रुख नहीं ले पाता.
अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव और क्लिंटन के महाभियोग के दौरान हुए शोध का निष्कर्ष है कि सोशल मीडिया विचारों में संशोधन या सुधार की जगह नहीं है. यह विचारों को पुष्ट और मजबूत करने की जगह है. यहां लोग असंख्य सूचनाओं के बीच से अपने विचार को पुष्ट करने वाली सूचनाएं चुन लेते हैं. हालांकि हर किसी के साथ ऐसा होना जरूरी नहीं है. अमेरिकी स्कॉलर कास सन्सटैन इसे 'इको चैंबर' यानी ऐसी जगह बताते हैं जहां वही-वही आवाजें गूंजती हैं.
इस तरह देखें तो सोशल मीडिया और इंटरनेट ने सूचनाओं की विविधता तो पैदा की है, लेकिन किसी यूजर के लिए इसका कोई मतलब नहीं रह जाता अगर वह विविधता के बीच में से सिर्फ अपना सीमित टुकड़ा ही चुन पाता है. विचारों का लोकतंत्र सफल तभी हो सकता है, जब न सिर्फ सूचनाओं का लोकतंत्र हो, बल्कि सूचनाओं के उस लोकतंत्र की विविधता तक हर किसी की पहुंच भी हो. होना यह चाहिए कि यहां तमाम तरह के विचार आपसे में मिलें-टकराएं. धारणाएं स्थिर न हों. उनका विकास हो. कुछ नई धारणाएं जन्म लें. कुछ आदिम धारणाएं नष्ट हों. कुछ मौके ऐसे जरूर हों, जहां विरोधी विचार वाले आपस में संवाद करें. भारत में सोशल मीडिया पर अभी यह हो नहीं रहा है.
( लेखक वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं )
हंदवाड़ा में भी आतंकियों के साथ एक एनकाउंटर चल रहा है. बताया जा रहा है कि यहां के यारू इलाके में जवानों ने दो आतंकियों को घेर रखा है
कांग्रेस में शामिल हो कर अपने राजनीतिक सफर की शुरूआत करने जा रहीं फिल्म अभिनेत्री उर्मिला मातोंडकर का कहना है कि वह ग्लैमर के कारण नहीं बल्कि विचारधारा के कारण कांग्रेस में आई हैं
पीएम के संबोधन पर राहुल गांधी ने उनपर कुछ इसतरह तंज कसा.
मलाइका अरोड़ा दूसरी बार शादी करने जा रही हैं
संयुक्त निदेशक स्तर के एक अधिकारी को जरूरी दस्तावेजों के साथ बुधवार लंदन रवाना होने का काम सौंपा गया है.