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जिंदगी पुलिस पर कुर्बान: जवानी में एअरकंडीशन्ड बंगला, बुढ़ापे में बेजुबानों को कब्र भी मयस्सर नहीं

जुबां वालों के लिए अपनी पूरी जिंदगी लगाने वाले इन बेजुबानों को मरने के बाद कब्र के वास्ते दो गज जमीं भी मयस्सर नहीं

Updated On: Feb 18, 2018 12:34 PM IST

Sanjeev Kumar Singh Chauhan Sanjeev Kumar Singh Chauhan

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जिंदगी पुलिस पर कुर्बान: जवानी में एअरकंडीशन्ड बंगला, बुढ़ापे में बेजुबानों को कब्र भी मयस्सर नहीं

इंसान हो या जानवर...सब किस्मत लिखाकर लाते हैं. कुत्ते भी इससे अछूते नहीं हैं. किस्मत के धनी अगर बहुत सारे कुत्ते आलीशान कोठियों में, बेशकीमती कारों में घूमते मिलते हैं..तो तमाम कुत्ते गली-मोहल्लों में भटकते देखे जा सकते हैं. कुछ कुत्ते शान-ओ-शौकत के साथ सेना-पुलिस में भी ड्यूटी करते देखे जाते हैं. सुरक्षा-बलों और पुलिस के साथ रहने वाले कुत्तों पर इंसान को सर्वाधिक नाज होता है. हम पुलिस में काम करने वाले इन्हीं बेजुबां वफादारों की बात कर रहे हैं, जो उफ्फ किए बिना इंसान के लिए अपनी तमाम जिंदगी ‘होम’ कर जाते हैं. इन्हीं बेजुबानों के दर्द की एक ऐसी बानगी से हम आपको यहां रू-ब-रू करा रहे हैं, जो इंसान के दिल-ओ-दिमाग को झकझोरने के लिए काफी है.

करीब से सच जानने को राजधानी दिल्ली काफी है

इन बेजुबां जाबांजों के दर्द को करीब से देखने के लिए हिंदुस्तान के किसी पिछड़े या ग्रामीण इलाके में या किसी मलिन बस्ती में जाने की जरूरत नहीं है. इनकी जिंदगी के दर्द की बानगी देखने के लिए देश की राजधानी दिल्ली बहुत है, जहां से हुक्मरान हुकूमत अमल में लाते हैं.

जिस दिल्ली में इंसानियत के पाठ लिखे और मिटाए जाते हैं. जिस दिल्ली में पीढ़ियों के इतिहास संजो कर रखे गए हैं. जिस दिल्ली में जमाने भर के उसूलों की दुहाइयां रेवड़ी की मानिंद इंसानों की दुनिया में बांटी जाती हैं. यह बेजुबां वफादार कुत्ते ऐसी दिल्ली में भी बेबस हैं. क्या सिर्फ इसलिए क्योंकि जुबां वालों को यह बेजुबां अपना दर्द कहकर बयां कर पाने में असमर्थ हैं.

असमर्थ हैं तो, फिर जुबां वाले भी भला इनका दर्द समझने की जहमत क्यों उठाएं? इन बेजुबानों के दर्द को करीब से महसूस करने के लिए हम चर्चा करते हैं दिल्ली पुलिस डॉग स्क्वॉड सेंटर में सरकारी ड्यूटी बजा रहे सैकड़ों काबिल कुत्तों की.

दिल्ली पुलिस में डॉग्स सर्विस (भर्ती) की शुरुआत

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ट्रेंड कुत्तों का इस्तेमाल दिल्ली पुलिस में 1960 से पहले नहीं था. 1960 का दशक आते-आते पुलिस को महकमे में ट्रेंड कुत्तों की भर्ती करने की जरूरत महसूस होने लगी. उस जमाने में तीन कुत्तों की पहली भर्ती दिल्ली पुलिस की ड्यूटी के लिए की गई. मंदिर मार्ग और मॉडल टाउन दो डॉग स्क्वॉड सेंटर बनाकर इन्हीं में इन तीनों कुत्तों को रख दिया गया. उस समय पुलिस इन कुत्तों का इस्तेमाल सिर्फ पेट्रोलिंग (गश्त) के लिए ही करती थी. बाद में इन्हीं कुत्तों को ट्रेनिंग दी गई. कभी-कभार अगर किसी विशेष व्यक्ति की जनसभा होनी होती, तो इन कुत्तों को वहां ले जाना शुरू कर दिया गया.

जुबां वालों की उम्मीदें जब बेजुबानों पर बढ़ती गईं

समय के साथ दिल्ली शहर की आबादी बढ़ी तो यहां अपराध बढ़े. 1980 का दशक आते-आते महकमे में ट्रेंड कुत्तों की भर्ती महकमे में करना दिल्ली पुलिस की जरूरत बन गई. आलम यह है कि आज दिल्ली पुलिस के पास 9 जिलों में और दो विशेष पुलिस ब्रांच में डॉग स्क्वॉड सेंटर्स हैं. तीन ट्रेंड डॉग्स के साथ डॉग स्क्वॉड की शुरुआत करने वाले दिल्ली पुलिस डॉग स्क्वॉड सेटंर्स में वर्तमान में 64 ट्रेंड कुत्ते बताए जाते हैं.

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जबकि जरूरत 140 कुत्तों की है. इन डॉग सेंटर्स का संचालन करने के लिए डिप्टी कमिश्नर ऑफ पुलिस (पुलिस उपायुक्त) से लेकर सिपाही तक 145 का स्टाफ नियुक्त है. जरूरत के हिसाब से यह संख्या काफी कम है. पहले आम-सिपाहियों को ही डॉग्स से काम लेने की ट्रेनिंग दी जाती थी. बीते कुछ वर्ष में दिल्ली पुलिस ने बाकायदा ‘डॉग-हैंडलर’ का पद ही सृजित कर दिया है.

दो ट्रेंड डॉग्स से ड्यूटी लेने को चाहिए तीन इंसान

दिल्ली पुलिस के एक आला अफसर के मुताबिक, दो ट्रेंड डॉग्स के साथ तीन पुलिसकर्मी होते हैं. इनमें दो हैंडलर और दोनों हैंडलर्स की मदद के लिए एक असिस्टेंट होना जरूरी है. लेकिन स्टाफ की कमी के चलते ऐसा नहीं हो पा रहा है. अभी 134 डॉग हैंडलर ही हैं. जो कि जरूरत से कम हैं.

सेना और अधिकांश अर्धसैनिक बल ट्रैकर डॉग्स पर डिपेंड

दिल्ली पुलिस ही क्यों? ट्रेंड डॉग्स की मदद पर आज भारतीय सेना सहित तकरीबन सभी अर्धसैनिक/ सुरक्षा बल निर्भर हैं. चाहे वो भारत तिब्बत सीमा पुलिस (आईटीबीपी), सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ), केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल (सीआईएसएफ), केंद्रीय रिजर्व पुलिस फोर्स (सीआरपीएफ) या फिर नेशनल सिक्योरिटी गार्ड (एनएसजी) हो. हर किसी के पास ट्रेकिंग डॉग्स मौजूद हैं.

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करोड़ों का एअरकंडीशन्ड डॉग्स हाउस है लेकिन प्रजनन केंद्र नहीं

दिल्ली पुलिस के पास तमाम संसाधन और करोड़ों रुपए का सालाना बजट है. देश की राजधानी होने की वजह से सबसे ज्यादा ट्रेंड डॉग्स की जरूरत भी दिल्ली पुलिस को ही है. देश की किसी भी राज्य पुलिस के पास इतने ट्रेंड डॉग्स और डॉग्स सेंटर नहीं हैं, जितने दिल्ली पुलिस के पास. दिल्ली के तकरीबन हर जिले में डॉग्स सेंटर हैं.

बीते साल दिल्ली पुलिस आयुक्त अमूल्य पटनायक ने देश का पहला सबसे बड़ा और बहुमंजिला एअरकंडीशन्ड आलीशान होटलनुमा डॉग्स स्क्वॉड सेंटर दिल्ली पुलिस को सौंपा. पुष्प विहार (साकेत) स्थित इस डॉग स्क्वॉड सेंटर के निर्माण पर करीब 8-9 करोड़ का खर्चा हुआ.

यहां हर कमरे में एक ही कुत्ते को रखने की व्यवस्था की गई है. इस सबके बावजूद दिल्ली पुलिस के पास अपना डॉग प्रजनन केंद्र नहीं है. मजबूरी में दिल्ली पुलिस कुत्तों के बच्चों को पहले तो टेकनपुर ग्वालियर स्थित बीएसएफ सेंटर या भारतीय सेना से खरीदती है. उसके बाद सेना के ही ट्रेनिंग सेंटर में ट्रेंड कराती है. यही वजह है कि एक कुत्ते को दिल्ली पुलिस में भर्ती के काबिल बनाने पर डेढ़ से 2 लाख रुपए का खर्चा आता है.

स्पेशल डाइट मगर खास हिदायतों के बाद

एक ट्रेंड कुत्ते की डाइट का भी पहले से तय चार्ट होता है. 24 घंटे कुत्ते के स्वास्थ्य पर ध्यान रखने के लिए बाकायदा चिकित्सकों की टीम मौजूद रहती है. मॉडल टाउन स्थित दिल्ली पुलिस के पहले डॉग स्क्वॉड सेंटर मुख्यालय प्रभारी सब-इंस्पेक्टर धर्मबीर के मुताबिक, इन ट्रेंड कुत्तों की डाइट के साथ-साथ उनके खाने में साफ-सफाई का ख्याल हमारी पहली प्राथमिकता होती है.

किचन की गंदगी से इनका खाना प्रदूषित होने का अंदेशा हमेशा बना रहता है. लिहाजा रसोई की साफ-सफाई बहुत जरूरी है. जहां तक डाइट का सवाल है तो इन्हें सुबह-शाम दो बार खाना खिलाया जाता है. डाइट में प्रतिदिन (अगर कुत्ता बीमार नहीं है तो) आधा किलो मांस, आधा लीटर दूध, चपाती, सोयाबीन, 10 -10 ग्राम हल्दी, तेल, नमक देना जरूरी होता है.

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शान की नौकरी के बाद तड़पाती है बुढ़ापे की बदतर जिंदगी

पुलिस की नौकरी करने वाले ट्रेंड डॉग्स का औसत सर्विस पीरियड 8 से 10 साल का होता है. अमूमन एक ट्रेंड डॉग 4 से 5 या 6 साल ही पुलिस की नौकरी कर पाता है. इसके बाद या तो उसके सूंघने की क्षमता क्षीण हो जाती है. या फिर अधिकांश डॉग दिमाग, दिल, फेफड़ों और गुर्दों की बीमारी या फिर लकवे का शिकार होकर रिटायरमेंट से पहले ही मर जाते हैं.

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कुल जमा पुलिस महकमे की जिस नौकरी को वो बड़ी आन-बान-शान से ज्वाइन करते हैं, उसमें इन कुत्तों का अंत दर्दनाक होता है. किस्मत-बदकिस्मती से जो कुत्ते पुलिस नौकरी पूरी करके रिटायर हो भी लेते हैं, उनकी जिंदगी और ज्यादा नरक हो जाती है. रिटायर और बूढ़े कुत्तों के जीवन-यापन के लिए दिल्ली पुलिस के पास कोई ठोस योजना नहीं है. लिहाजा अंत में इन कुत्तों को एकमुश्त रकम के साथ किसी एनजीओ के हवाले कर दिया जाता है.

इंसान हूं मगर पुलिस की पूरी नौकरी बेजुबानों के साथ कर ली

कहते हैं कि बेजुबानों (जानवरों) से काम लेना या उनके साथ रहना मुश्किल है. दिल्ली पुलिस के सब-इंस्पेक्टर और डॉग स्क्वॉड सेंटर इंचार्ज धर्मबीर इस धारणा को सिरे से नकार देते हैं. उनके मुताबिक 1987 में दिल्ली पुलिस में सिपाही के पद पर भर्ती होकर डॉग स्क्वॉड सेंटर की नौकरी शुरू की थी. करीब 31 साल की इस नौकरी में सिपाही, हवलदार, सहायक उप-निरीक्षक और अब उप-निरीक्षक हूं. अगर इन बेजुबां कुत्तों की जरूरत, भाषा और रहन-सहन न समझा होता, तो भला इतने प्रमोशन और इतनी लंबी नौकरी इनके साथ कैसे पूरी हो पाती.

 बेजुबानों की बेबसियां-मौत के बाद मिली रिटायरमेंट की फाइल

भले ही आज इन बेजुबानों को रहने के लिए दिल्ली पुलिस ने आलीशान होटल या बंगलानुमा बहुमंजिला वातानुकूलित करोड़ों रुपए की लागत से तैयार इमारत मुहैया करा दी हो, मगर अतीत दिल हिला देने वाला रहा है. इसकी एक बानगी सन् 2002 में सामने आई थी. मॉडल टाउन डॉग स्क्वॉड सेंटर मुख्यालय में कई साल से दिल्ली पुलिस की ड्यूटी बजा रहे डॉग ‘टाइगर’ के रिटायरमेंट की फाइल 6 फरवरी 2002 से मूव की गई.

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दो महीने तक फाइल दिल्ली पुलिस मुख्यालय के धक्के खाती रही. जब रिटायरमेंट की सूचना मॉडल टाउन डॉग सेंटर पहुंची तो, पता चला कि, जिस टाइगर की ‘हां’ के बिना राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री देश की राजधानी दिल्ली में पांव जमीन पर नहीं रख पाते थे, उस टाइगर की 20-21 मार्च 2002 की मध्य रात्रि में दिल का दौरा पड़ने से मौत हो चुकी है.

इतना ही नहीं रिटायरमेंट की फाइल पहुंचने से पहले ही, पोस्टमॉर्टम करके टाइगर की लाश को कफन-दफन भी किया जा चुका था. 1992 में जन्मा लेब्राडोर नस्ल का टाइगर मात्र 6-7 महीने की उम्र में ही दिल्ली पुलिस में भर्ती हुआ था. टाइगर एक्सप्लोसिव खोजने का विशेषज्ञ था.

बेजुबां होकर भी जुबां वालों से ज्यादा बड़े काम कर डाले

एक टाइगर ही नहीं, दिल्ली पुलिस डॉग्स स्क्वॉड सेंटर्स के और भी कई बुजबानों के नाम बहादुरी की मिसालों से पुलिस दस्तावेज भरे हुए हैं. कुछ पुलिस की नौकरी करके दुनिया छोड़ गए कुछ आज भी मौजूद हैं.

टाइगर के साथ ही और चार कुत्ते ‘रोजर’ ‘जिम’ ‘टॉमी’ (तीनों लेब्राडोर) और प्रिंस (डाबरमैन) भी सन् 2002 में रिटायर हुए. चार साल के प्रिंस ने दिल्ली पुलिस की कम समय की ही नौकरी में अपने हैंडलर का दिल जीत लिया था.

प्रिंस ने 1997 में पूर्वी दिल्ली के न्यू अशोक नगर पुलिस चौकी (अब थाना) इलाके में एक हत्यारे को पकड़वाया था. उसी साल प्रिंस ने न्यू सीलमपुर इलाके में अकबर नाम के आदमी की लाश खोजकर मौके पर मौजूद तमाशबीनों की भीड़ को चकित कर दिया था.

वर्तमान में दिल्ली पुलिस के हैंडलर हेड-कांस्टेबिल कंवलजीत का सफेद रंग का डॉग ‘विक्रम’ और हैंडलर हेड-कांस्टेबल नागेंद्र प्रसाद का चहेता डाग ‘बाबे’ अपने तेज दिमाग का पुलिस महकमे में लोहा मनवा रहे हैं. सन् 2016 में ट्रेकर डॉग विक्रम ने उत्तरी दिल्ली से सब्जी मंडी थाने इलाके में हत्या के एक आरोपी को कई लोगों की भीड़ में से पकड़कर घसीट लिया था.

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हत्यारोपी होटल संचालक ने बाद में पुलिस रिमांड के दौरान गुनाह कबूल लिया. इस गिरफ्तारी और मर्डर के खुलासे का सेहरा भी ‘विक्रम’ के सिर बंधा. इसी तरह 17 अप्रैल 2014 को इंडियन आर्मी के आरवीसी (रिमाउंड वेटरनरी कोर) मेरठ में जन्मी बाबे ने दो साल की उम्र में सन् 2016 में दिल्ली पुलिस ज्वाइन की. विस्फोटक सूंघने में माहिर बाबे ने 26 जनवरी को इंडिया गेट पर मौजूद ‘विस्फोटक की डमी’ को खोजा था.

फिलहाल बाबे 21 फरवरी 2018 को चेन्नई में आयोजित होने वाली ऑल इंडिया पुलिस मीट में हिस्सा लेने जा रही है.

बेजुबां हैं तो क्या हुआ, वक्त के पाबंद हम भी हैं

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ऐसा नहीं है कि ये जानवर हैं. तो उनके लिए वक्त की पाबंदी या उनकी कोई दिनचर्या नहीं है. डॉग स्क्वॉड सेंटर्स में रहने वाले इन ट्रेंड ट्रैकर और एक्सप्लोसिव एक्सपर्ट डॉग्स के लिए भी नियम-कायदा-कानून हैं. इनकी सुबह शाम की निर्धारित दिनचर्या है. सुबह-शाम परेड और खाने का टाइम निर्धारित है. अगर ड्यूटी पर नहीं गए तो सोने और जागने का टाइम-टेबल भी है. ड्यूटी करने के बाद कितनी देर आराम डॉग को देना है यह भी तय होता है.

रहने को करोड़ों का बंगला, मरने पर कब्र की जगह तक नहीं

भले ही नौकरी शान की हो...जब तक नौकरी में हैं तब तक सब आगे पीछे घूमते हों. जीते जी रहने को एअरकंडीश्नर कमरे, साफ सुथरा बिस्तर, शैंपू, कंघा, अपना अलग लोहे का बक्सा (हर कुत्ते को अलग-अलग सामान रखने के लिए), साबुन सबका इंतजाम किया जाता है. पुलिस महकमे की नौकरी के दौरान हर कुत्ते पर औसतन 10 से 15 हजार रुपए महीने पुलिस महकमा खर्च करता है.

यह तो काबिल-ए-तारीफ है. बस रूह कांपती है तो यह देख और सुनकर कि, मरने के बाद इन बेचारे-बेबस और बुजबानों के लिए एक अदद इज्जत की अपनी कब्र तक मयस्सर नहीं हो पाती है. कुछ साल पहले तक ड्यूटी/ नौकरी के दौरान मरने वाले कुत्तों को मॉडल टाउन स्थित मुख्यालय के पीछे मौजूद सूनसान खाली हिस्से में गढ्ढा खोदकर दफन कर देते थे.

यहां कई कुत्तों को संक्रमण होने लगा. पशु चिकित्सक ने बताया कि कुत्तों की दफन लाशों से निकले कीटाणु, जीवित कुत्तों में इन्फेक्शन फैला रहे हैं. लिहाजा अब आईंदा मरने वाले कुत्तों को यमुना किनारे ही कफन-दफन करने की योजना को अमल में लाए जाने पर माथा-पच्ची चल रही है.

बस यही वो हकीकत और दर्द है जो ये बेजुबां बयां नहीं कर पा रहे हैं, उन जुबां वालों के सामने जिनकी, शान में ये अपनी जिंदगियाँ कुर्बान करने में जुटे हैं कि जीते जी आलीशान बहुमंजिला एअरकंडीशन्ड इमारत और मरने के बाद कब्र के वास्ते दो गज इन्हें अपनी जमीं भी मयस्सर नहीं.

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