आज के कुछ तथाकथित लोहियावादी तथा कुछ अन्य नेताओं के लिए तो अपने लिए चार्टर्ड विमान का प्रबंध कर लेना भी बाएं हाथ का खेल हो गया है. वहीं डॉ. राम मनोहर लोहिया की जान, मात्र 12 हजार रुपए का इंतजाम नहीं हो पाने के कारण बचाई नहीं जा सकी थी. ऐसा डॉ. लोहिया की कठोर ईमानदारी की जिद के कारण हुआ.यह 1967 की बात है.तब लोहिया सांसद भी थे. उन्होंने अपने दल के नेताओं को कह रखा था कि मेरे ऑपरेशन के लिए चंदा उन राज्यों से नहीं आएगा जहां हमारी पार्टी सरकार में हैं.
डॉ. लोहिया ने बंबई में सक्रिय अपने दल सोशलिस्ट पार्टी के एक प्रमुख मजदूर नेता से कहा था कि वे मजदूरों से चंदा मांग कर 12 हजार रुपए का इंतजाम करें. पर मजदूर नेता समय पर यह काम नहीं कर सके. ऑपरेशन के लिए लोहिया जर्मनी जाना चाहते थे. वहां जाने-आने के खर्च का इंतजाम वहां के एक विश्वविद्यालय ने कर दिया था. वहां लोहिया को भाषण देना था. पर वहां ऑपरेशन कराने का खर्च 12 हजार रुपए था. इस बीच तकलीफ बढ़ जाने के कारण उन्हें नई दिल्ली के वेलिंगटन अस्पताल में भर्ती होना पड़ा था.
वहां लोहिया की पौरूष ग्रंथि का ऑपरेशन हुआ. मगर अस्पताल की बदइंतजामी के कारण 12 अक्तूबर 1967 को उनका निधन हो गया. उन्हें इंफेक्शन हो गया था जिसे संभाला नहीं जा सका. उस अस्पताल का नाम अब डॉ.राम मनोहर लोहिया अस्पताल है.
ऑपरेशन और बाद की देखभाल में लापारवाही को लेकर लंबे समय तक विवाद चलता रहा. मगर यह बात तय थी कि विदेश के किसी अच्छे अस्पताल में यदि उनका ऑपरेशन हुआ होता तो शायद ऐसी नौबत नहीं आई होती. आज जब मामूली नेता व अफसर भी सरकारी खर्चे पर विदेश में अच्छी से अच्छी चिकित्सा करवा रहे हैं, तब लोकसभा के सदस्य डॉ. लोहिया बेहतर इलाज के बिना कम ही उम्र में चल बसे. जब उनका निधन हुआ, वे साठ साल भी पूरे नहीं कर पाए थे.पर उतनी ही उम्र में वे भारतीय राजनीति व समाज में युगांतरकारी परिवर्तन के नेता बन चुके थे.
जब उनका निधन हुआ तो वे ऐसी पार्टी यानी संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के एकछत्र नेता थे जिसके दो दर्जन सदस्य लोक सभा में थे. उस समय अनेक प्रदेशों में ऐसी गैर सरकारी सरकारें बन चुकी थीं जिनमें लोहिया के दल के मंत्री थे. बिहार में उस दल के कर्पूरी ठाकुर तो उप मुख्य मंत्री, वित्तमंत्री और शिक्षा मंत्री भी थे. डॉ. लोहिया के गैर कांग्रेस वाद के नारे के कारण ही कई राज्यों में 1967 में गैर कांग्रेसी सरकारें बनी थीं. पर डॉ. लोहिया आज के अधिकतर नेताओं की तरह नहीं थे जो सरकार के धन को अपना ही माल समझते हैं.
डॉ. लोहिया ने अपने दल द्वारा शासित प्रदेशों के अपने दल के नेताओं से कह रखा था कि वे मेरे इलाज के लिए कोई चंदा वसूली का काम नहीं करें क्योंकि इसमें सरकारी पद के दुरूपयोग का खतरा है. बंबई के मजदूर चंदा देंगे जो आम भारतीय मजदूरों व किसानों की अपेक्षा थोड़े बेहतर आर्थिक स्थिति में हैं. पर इस काम में उस मजदूर नेता ने लोहिया की मदद नहीं की.
यदि लोहिया चाहते तो इस देश का कोई भी पूंजीपति उन्हें अपने खर्चे से विदेश भेज कर उनका समुचित इलाज करवा सकता था. उन दिनों संसद में लोहिया की तूती बोलती थी. जब वे बोलने को खड़े होते थे तो सरकार सहम जाती थी. लोहिया अपने उसूलों के पक्के थे. वे कहते थे कि काले धन का उपयोग करने वाला नेता गरीबों का भला नहीं कर सकता. वे यह भी कहा करते थे कि यह मत देखो कि कोई नेता संसद में क्या बोलता है, बल्कि इसे देखो कि वह संसद में बोलने के बाद खुद शाम में कहां उठता-बैठता है.
यह इस देश की विडंबना ही रही कि डॉ. लोहिया का नाम लेकर बाद में इस देश में राजनीति करने वाले अधिकतर नेता सत्ता में आने के बाद इतने भ्रष्ट हो गए कि उनको देखकर कई बार यह लगता है कि भ्रष्टाचार के मामले में तो कांग्रेसी बच्चे हैं. लोहिया के इलाज की चर्चा के क्रम में यह याद दिलाना जरूरी है कि नब्बे के दशक में बिहार का एक भ्रष्ट पशुपालन अफसर जब अपने इलाज के लिए आस्ट्रेलिया जा रहा था तो वह अपनी तिमारदारी में अपने खर्चे से 75 लोगों को अपने साथ वहां ले गया. उस भ्रष्ट पशुपालन अफसर को बाद में अदालत ने सजा भी दी थी. उसका निधन हो चुका है.
उधर लोहिया के निधन के बाद जय प्रकाश नारायण ने कहा था कि ‘ऐसा त्यागी और बलिदानी जीवन किसी ही किसी को मयस्सर होता है.वह पहले नेता थे जिन्होंने भारत के भावी स्वरूप की कल्पना की. उन्होंने समाजवादी आंदोलन को बल दिया, विप्लव दिया और आंधी दी.’
कम्युनिस्ट पार्टी के प्रो. हीरेन मुखर्जी ने डॉ. लोहिया के चारित्रिक और बौद्धिक गुणों का स्मरण किया. जेबी कृपलानी ने कहा कि लोहिया की वाणी में गुस्सा था लेकिन गुस्सा अकारण नहीं था. उनके निधन के बाद विभिन्न दलों के अन्य अनेक नेताओं ने ऐसे ही विचार व्यक्त किए थे. लोहिया जैसे नेता का पैसे के अभाव में सिर्फ 57 साल की उम्र में निधन देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा.
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