नागार्जुन हिंदी एक ऐसे हिंदी कवि हैं जिनकी कविता का दायरा या रेंज काफी फैला हुआ है. संस्कृत, बांग्ला, मैथिली और हिंदी कविता की परंपरा का मेल नागार्जुन की कविताओं में देखा जा सकता है. नागार्जुन ने प्रकृति, प्रेम, राजनीति जैसे सभी विषयों पर कविता लिखी है. उन्होंने कटहल, नेवला जैसे विषयों पर भी कविता लिखी, जिन्हें अमूमन कविता का विषय नहीं समझा जाता था.
इसमें कोई संदेह नहीं कि अपने खास शिल्प और भावबोध की वजह से नागार्जुन की कविताएं आज भी काफी लोकप्रिय हैं. लेकिन नागार्जुन की कविता के साथ सबसे खास बात यह है कि तात्कालिक राजनीतिक घटनाओं पर लिखी गई उनकी कविताएं आज भी ताजी लगती हैं.
तात्कालिक घटनाओं पर कविता लिखने से अक्सर कवि बचते हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि घटनाओं के पुराने हो जाने पर कविता की प्रासंगिकता खत्म हो जाती है. लेकिन नागार्जुन ऐसा करने का जोखिम उठाते हैं. नागार्जुन साफ-साफ जनता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को घोषित करने वाले कवि थे. वे लिखते हैं-
‘जनता मुझसे पूछ रही है, क्या बतलाऊं जनकवि हूं साफ कहूंगा. क्यों हकलाऊं’
इस वजह से नागार्जुन ने कभी भी राजनीतिक घटनाओं पर लिखने से गुरेज नहीं किया. नागार्जुन को अपनी कविता की प्रासंगिकता बचाने से अधिक जनता और उसके पक्ष की चिंता थी. राजनीतिक खबरों पर कविता लिखने का ऐसा साहस नागार्जुन के बाद सिर्फ रघुवीर सहाय के यहां ही दिखता है.
व्यंग्य को बनाया कविता की ताकत
अब सवाल यह है कि ऐसी क्या खासियत है नागार्जुन की इन राजनीतिक कविताओं की जो आज भी कई बार मौजूं लगती हैं और पाठकों को आसानी से समझ में आ जाती हैं. दरअसल इन कविताओं में नागार्जुन ने व्यंग्य का इस्तेमाल किया है और यह व्यंग्य बहुत ही सरल भाषा में है. सीधी-सीधी भाषा यानी अभिधा में व्यंग्य करना कविता की सबसे बड़ी ताकत होती है. काव्यशास्त्र में यूं ही अभिधा में को कविता की सबसे बड़ी ताकत नहीं कहा जाता. कविता में अभिधा की ताकत का एहसास अगर किसी आधुनिक कवि को पढ़कर होता है तो वह नागार्जुन की ही कविता है.
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नागार्जुन जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी से लेकर नरसिम्हा राव तक का दौर देखा था. उन्होंने तेभागा, तेलंगाना से लेकर नक्सलबाड़ी और भोजपुर के किसान-मजदूर के आंदोलन का दौर देखा था. उन्होंने संपूर्ण क्रांति का दौर भी देखा और इस क्रांति को बिखरते हुए भी देखा. उन्होंने दलित हत्याओं और दलित-प्रतिरोध का भी दौर देखा था.
नागार्जुन ने अपने दौर के सभी बड़े नेताओं का अपनी कविताओं का जिक्र किया है. जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी को अपनी कविताओं खासतौर से निशाना बनाया है.
नेहरू और इंदिरा की आलोचना
आजादी के तुरंत बाद ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ भारत के दौरे पर आई थीं. उस वक्त उन्होंने लिखा था- ‘आओ रानी हम ढोएंगे पालकी/ यही हुई राय जवाहरलाल की’. इसी तरह नेहरू की मौत पर उन्होंने लिखा था- ‘तुम रह जाते दस साल और’. यह कविता जवाहरलाल नेहरू के व्यक्तित्व और उनकी राजनीति का बहुत ही सटीक मूल्यांकन करती है. नेहरू के बारे में कहा जाता है कि वे हर तरह की विचारधारा से तालमेल स्थापित कर लेने में माहिर थे. नागार्जुन की इस कविता में इसकी एक बानगी देखी जा सकती है-
‘गेरुआ पहनते जयप्रकाश, नर्मदा किनारे बस जाते डांगे हो जाते राज्यपाल, लोहिया जेल में बल खाते गोपालन होते नजरबंद, राजाजी माथा घुटवाते जनसंघी अटलबिहारी जी भिक्षा की झोली फैलाते’
लेकिन नेहरू के आलोचक रहे इसी नागार्जुन ने आपातकाल लगाने के वक्त इंदिरा गांधी पर नेहरू की विचारधारा और सपने से भटकने का आरोप लगाते हुए कहा-
‘इंदुजी, इंदुजी क्या हुआ आपको? तार दिया बेटे को, बोर दिया बाप को’
आपातकाल के वक्त नागार्जुन जिस जयप्रकाश की प्रशंसा कर रहे थे उसी जेपी को नागार्जुन ने संपूर्ण क्रांति के असफल होने पर बुरी तरह अपनी कविताओं में फटकारा है.
मायावती और बाल ठाकरे पर भी लिखी थी कविता
नागार्जुन नेताओं की विचारधारा की शक्ति और सीमा दोनों से परिचित थे. जब उन्हें किसी नेता या आंदोलन में ताकत और बदलाव की शक्ति दिखती तो वे उसकी मुक्तकंठ से प्रशंसा में नहीं हिचकते थे. भले वो नेता उनकी वामपंथी विचारधारा में फिट नहीं बैठता हो. इसका एक उदाहरण उनकी अंतिम कविता है जो उन्होंने मायावती और कांशीराम पर लिखी थी. यह कविता 10 जुलाई 1997 को लिखी गई थी. यह वह दौर था जब राष्ट्रीय राजनीति में बड़ी तेजी से बहुजन समाजवादी पार्टी का उभार हुआ था. नागार्जुन इस कविता में कांशीराम को 'दलितेंद्र' कहते हैं और मायावती को उनकी 'छायावती' कहकर संबोधित करते हैं-
'जय-जय हे दलितेंद्र प्रभु, आपके चाल-ढाल से दहशत में है केंद्र जय-जय हे दलितेंद्र'
हो सकता है आज अगर नागार्जुन जिंदा रहते तो मायावती की कई नीतियों की आलोचना करने से भी नहीं हिचकते. नागार्जुन को जनता की आकांक्षाओं से आंदोलन से निकले नेताओं द्वारा मुंह फेर लेना गंवारा नहीं था.
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नागार्जुन हिंदुत्ववादी राजनीति के कट्टर विरोधी थे. उन्होंने अपने समय के आरएसएस प्रमुख देवरस पर सीधे-सीधे निशाना साधते हुए लिखा था-
'देवरस-दानवरस पी लेगा मानवरस'
इस तरह शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे के लिए उन्होंने लिखा था 'बर्बरता की खाल ठाकरे'.
वामपंथी होते हुए भी वामपंथ पर किया था व्यंग्य
नागार्जुन ने व्यंग्य के सहारे अपने समय के बड़े-बड़े नेताओं से सीधी टक्कर ली थी. अपने समय की सत्ता की आलोचना करना और बात है और अपने समय के नेताओं का नाम लेकर और बात. नेताओं का सीधे-सीधे नाम लेकर उनपर करारा व्यंग्य करना सचमुच में साहस का काम है. खासकर नागार्जुन ने जिस तरह की तिलमिला देने वाली भाषा और व्यंग्य का प्रयोग किया है, वह हिंदी कविता में दुर्लभ है.
नागार्जुन वामपंथी थे लेकिन जहां उन्हें महसूस हुआ वे वामपंथ पर व्यंग्य करने में नहीं हिचके. 1962 के चीनी आक्रमण के समय जब भारत की कम्युनिस्ट पार्टी चुप थी, उस वक्त नागार्जुन चीनी आक्रमण के विरोध में लिखा- 'पुत्र हूं भारतमाता का, और कुछ नहीं.' इस तरह की और भी कविताएं नागार्जुन ने लिखी.
दरअसल नागार्जुन वामपंथ या किसी आंदोलन को जनता की नजर से देखते थे. इसमें कोई शक नहीं कि नागार्जुन अंतिम वक्त तक वामपंथी बने रहे लेकिन उन्होंने वामपंथ को किताबों से नहीं शोषित जनता की निगाह से अपनाया था. नागार्जुन के लिए जनता का हित सर्वोपरि था और वे इसके लिए किसी की निंदा या प्रशंसा करने में संकोच नहीं करते थे.
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