कुछ समय पहले महेश भट्ट का एक इंटरव्यू देखा था, जिसमें वो गुरु-शिष्य परंपरा पर बात कर रहे थे. उन्होंने कहा था कि गुरु को मोक्ष या मुक्ति तब मिलती है, जब वो शिष्य के चरण स्पर्श करे. मतलब ये था कि शिष्य इतना बड़ा हो जाए कि गुरु उसके सामने सम्मान से झुके, तब उसे मोक्ष मिलता है.
शायद दुनिया के बारे में भी उनकी यही राय है. ऐसा वो चाहते हैं कि अपने जीवन से कुछ सीख समाज को दें. जो सीखा है, वो समाज को सिखाएं. जो गलतियां की हैं, उन्हें समाज के सामने रखें, ताकि लोगों का जीवन बेहतर हो सके.
दिलचस्प है कि वो किसी शिक्षक की तरह ज्ञान नहीं देते. वो सिर्फ अपनी जिंदगी को सबके सामने खोलकर रख देते हैं. महेश भट्ट ने ऐसा अक्सर किया है. अर्थ से लेकर जख्म और जनम से लेकर डैडी तक. वो ईमानदारी फिल्म जगत क्या, किसी भी आम जीवन में नहीं दिखती, जो महेश भट्ट की फिल्मों में नजर आती रही है. खासतौर पर सारांश, डैडी, अर्थ जैसी फिल्में, जो उनकी पहचान रही हैं.
इस वक्त देश के तमाम शहरों में महेश और पूजा भट्ट एक अलग किस्म का प्रयोग कर रहे हैं. उनकी फिल्म डैडी का स्टेज शो होता है. उससे पहले महेश और पूजा भट्ट दर्शकों को संबोधित करते हैं. अपनी कहानी सुनाते हैं. किसी शिक्षक की तरह नहीं.
वो सिर्फ बताते हैं कि एल्कोहल से उन्होंने अपनी जिंदगी को कैसे आजाद कराया. जो गलतियां उन्होंने कीं, उन्हें बगैर लाग-लपेट के वो सिर्फ लोगों के सामने परोस देते हैं. ताकि लोग उनसे सबक लें. खुद फैसला करें कि इस तरह की गलतियों से खुद को कैसे आजाद करना है. करना भी है या नहीं.
पिछले तीस साल से शराब से दूर हैं महेश भट्ट
दिल्ली के श्रीराम सेंटर में डैडी को स्टेज पर पेश किया गया. उससे पहले हल्की नीली रोशनी में महेश भट्ट और पूजा भट्ट सामने आए. महेश भट्ट ने अपनी जिंदगी के किस्से सुनाए. बताया कि कैसे उन्होंने 30 साल से शराब को हाथ नहीं लगाया है. बताया कि कैसे उन्हें तलब होती थी.लेकिन इंसान हर किसी से झूठ बोल सकता है, खुद से नहीं. बताया कि कैसे उनकी दूसरी बेटी शाहीन की एक करवट या हरकत ने उन्हें शराब से दूर कर दिया. महेश भट्ट बताते हैं, 'एक रात मैंने अपनी बेटी को गोद लिया. मैंने खूब शराब पी हुई थी. उसने मुंह फेर लिया. वही वक्त था, जब मैंने फैसला किया कि अब शराब को हाथ नहीं लगाऊंगा. अपनी बेटी से मिली जिल्लत नहीं झेली गई.'
कुछ इसी तरह का अनुभव पूजा भट्ट ने साझा किया. शादी टूटने के बाद वो बेहद शराब पीने लगी थीं. एक रोज उन्होंने अपने पिता को मैसेज किया. वहां से जो जवाब आया, उसमें कुछ यूं लिखा था कि खुद से प्यार करो. वो बहुत जरूरी है. मैं तुम्हारे भीतर रहता हूं.
पूजा भट्ट ने उस मैसेज का मतलब समझा. भट्ट साहब कहते हैं कि उसके बाद फोन पर बात हुई, जिसमें खामोशी थी, 'दरअसल, खामोशी जो कुछ कह जाती है, वो अल्फाज बयां नहीं कर सकते.' पूजा भट्ट ने उस रोज शराब छोड़ दी. यह दो साल पहले 24 दिसंबर की बात थी.
जब दोस्तों से ज्यादा शराब बेचने वाले ने की पूजा भट्ट की फिक्र
वो कहती हैं कि इस बीच तमाम पार्टियों, फंक्शन में दोस्त, रिश्तेदार कहते रहे कि थोड़ी सी पी लो, क्या फर्क पड़ता है. लेकिन इन सबके बीच उस शराब की दुकान वाले की बात उन्हें याद आई. उन्होंने बताया, 'मैंने उस दुकान पर फोन किया, जहां से शराब मंगाती थी. मैंने उससे पूछा कि रेड वाइन है क्या?
उसने पूछा कि क्या आप अपने लिए मंगा रही हैं? मैंने कहा कि मुझे अपने लिए नहीं चाहिए. इस पर दुकानदार का जवाब था कि शुक्र है. मुझे पता है कि आपने शराब छोड़ दी है. इसीलिए जब आपका फोन आया, तो मैं घबरा गया था.' यानी वो शराब की दुकान का मालिक भी नहीं चाहता था कि पूजा भट्ट शराब पिएं.
लोगों से यह ऐसी बातचीत थी, जो लगता था कि चलती ही रहे. लेकिन जाहिर है, मौका डैडी के स्टेज प्ले का था. उस फिल्म में अनुपम खेर, नीना गुप्ता, मनोहर सिंह, प्रमोद माउथो, आकाश खुराना, सुलभा आर्य जैसे कलाकार थे. वो फिल्म जिसने भी देखी है, उसके जेहन में अभी तक तरोताजा होगी.
ऐसे में यह देखना था कि फिल्मी पर्दे पर इन नामचीन कलाकारों के काम को निर्देशक दिनेश गौतम कैसे स्टेज पर उतारते हैं. इमरान ज़ाहिद ने आनंद सरीन का रोल किया है, जो 1989 में आई इस फिल्म में अनुपम खेर थे. पूजा तो खैर पूजा भट्ट थी हीं. वो रोल चेतना ध्यानी ने किया है.
फिल्म का बड़े पर्दे से स्टेज शो का कामयाब सफर
डैडी के शो इससे पहले भी हुए हैं, उनमें भी इमरान जाहिद ही थे. डैडी के 25 साल पूरे होने पर वो शो किए गए थे. यहां तक कि अर्थ के स्टेज शो में भी जाहिद ने रोल निभाया था. इंटेंस सीन में यकीनन इमरान जाहिद के अभिनय का असर गहराई तक दिखता है.
प्ले के बाद दर्शकों की तालियां यह बताने के लिए काफी थीं कि मनोहर सिंह ने जिन कामता प्रसाद का रोल किया था, वो रोल स्टेज पर किस कदर पसंद किया गया है. यह रोल कर्नल धीरेंद्र गुप्ता ने किया. यहां तक कि निर्देशक दिनेश गौतम ने छोटे से रोल में प्रभावित किया. यहां तक कि ऑस्कर के छोटे से रोल में लव कुश ने प्रभावित किया.
दिनेश मीडिया जगत के अच्छे एंकर में गिने जाते हैं. उन्होंने कई संस्थानों में काम किया है. न्यूजरूम में उनके साथ जिन लोगों ने वक्त बिताया है, वो समझ सकते हैं कि एक कलाकार उनके भीतर हमेशा से था. मिमिक्री से लेकर न्यूजरूम के माहौल में हंसी-मजाक करने के लिए नाटकीय तरीके उनके पसंदीदा रहे हैं. वो अंदाज उन्होंने अपने छोटे से रोल में अपनाया है.
स्टेज शो में खतरे बहुत होते हैं. यहां एक गलती आपको दर्शकों के सामने बेबस कर देती है. गलती कलाकार से भी हो सकती है और कोई ऐसी तकनीकी भी, जिस पर इंसान का बस न हो. लेकिन इन सबके बीच श्रीराम सेंटर में गूंजती तालियां इस बात को दिखाती हैं कि जब आप ईमानदारी से कोई काम करते हैं, तो लोग उसे सराहते हैं. वही सराहना इस स्टेज शो को मिली है.
लगभग एक घंटे में पूरी फिल्म को समेटना कतई आसान नहीं होता. आमतौर पर जब आप किसी स्टेज शो को देखने जाते हैं, तो पहले से मन बनाकर नहीं जाते. स्टेज शो में अचानक कुछ होने पर सीन को ऑन स्टेज हल्का-फुल्का बदला जा सकता है. जैसे एक सीन है, जहां आनंद सरीन बार में जाते हैं.
वहां आनंद सरीन के गाने चल रहे हैं. बादल का बार था, जिसे आनंद सरीन ने पैसे दिए थे, जिससे उसने अपना बिजनेस शुरू किया था. यहां पर बादल अपने साहब यानी आनंद सरीन को शराब पिला रहा है. इस बीच दूसरा ग्राहक यानी दिनेश गौतम टिप्पणी करते हैं. उन्हें शराब देते हुए बादल उनके कपड़ों पर शराब गिराता है. इस पर दिनेश गौतम का डायलॉग आता है- अबे नहलाएगा क्या?
जाहिर है, यह स्टेज का इंप्रोवाइजेशन है. इस तरह के छोटे-मोटे बदलाव तो किए जा सकते हैं. लेकिन एक फिल्म को जब आप स्टेज पर जीते हैं, तो उस तरह की आजादी नहीं होती, क्योंकि डैडी जैसी फिल्म के ज्यादातर सीन हर किसी के दिलो-दिमाग पर चस्पा होते हैं. इन बंदिशों के बीच प्ले करना, वो भी कामयाबी के साथ, यह वाकई बड़ी बात है.
महेश भट्ट के पर्सनल टच की वजह से खास हो जाता है डैडी का शो
फिल्म जगत की अलग तरह की चमक-दमक, व्यस्तताओं और व्यावसायिक वजहों को पीछे छोड़ते हुए चंद रोज में 70 की उम्र छूने वाले महेश भट्ट ने जो जुड़ाव दिखाया है, वो खास है. यही बात 46 की उम्र छू रहीं पूजा भट्ट के लिए भी कही जाएगी.
इन दोनों ने दिखाया है कि जिंदगी आपको जो देती है, उसमें बहुत सी खुशियां और गम होते हैं. आप जिंदगी की कालिख लोगों के सामने लाकर उन्हें उजाले की तरफ जाने का संकेत दे सकते हैं. जैसा महेश भट्ट ने अपने किस्से में कहा भी, 'एक रोज मैं एक पार्टी से लौट रहा था. इतनी शराब पी थी कि कुछ होश नहीं था. मैं सड़क किनारे ही सो गया. फिर मैंने सोचा कि इतनी शोहरत और पैसा कमाने के बाद मैं कहां से कहां आ गया.'
अपने 'कहां से कहां पहुंचने' और उसके बाद 'वहां से यहां' पहुंचने के सफर को ही भट्ट साहब सबके सामने लाए हैं. इसके बाद उनकी योजना डिप्रेशन पर फिल्म बनाने की है, जिससे समाज का बड़ा हिस्सा जूझ रहा है.
तमाम व्यावसायिक फिल्मों की चकाचौंध से दूर इसी तरह की फिल्में हैं, जो महेश भट्ट को अलग मुकाम देती हैं. अलग पहचान देती हैं. वो ईमानदारी नजर आती है, जो आम जिंदगी में इतनी आसानी से नहीं दिखती. साथ में, वो कोशिश दिखती है, जो 'मुक्ति' पाने के लिए जरूरी है. आपने जो जिया है, समाज को उससे बेहतर बनाने की कोशिश. यही 'डैडी' की कामयाबी है.
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