प्रेम, इश्क या मोहब्बत हमेशा से ही कवियों के लिए सबसे प्रमुख विषय रहा है. दुनिया में कविताई का दावा करने वाला शायद ही कोई ऐसा कवि या शायर हो जिसने प्रेम पर कविता न लिखी हो. अक्सर जब भी प्रेम में मिलन और वियोग की भावना को व्यक्त करने लोग इन शायरियों और कविताओं को उद्धृत करते रहते हैं.
कवियों ने प्रेम के स्वरूप को लेकर भी कविताएं की हैं. किसी कवि के लिए प्रेम काफी सरल है तो किसी के लिए काफी मुश्किल. हिंदी के कवियों ने भी प्रेम के स्वरूप और इसके प्रकारों को लेकर अपने-अपने ढंग से कविताएं लिखीं हैं.
हिंदी साहित्य के इतिहास के लिहाज से विचार करें तो भक्तिकाल में प्रेम को लेकर काफी कविताएं लिखीं गई हैं. कबीर, सूर, जायसी, तुलसी और मीरा ने प्रेम के दार्शनिक पक्ष को बखूबी से अपनी कविताओं में जिक्र किया है. इस काल के कवियों ने प्रेम के लिए जो सबसे जरूरी तत्व बताया है वो है अहं या ईगो का त्याग. कबीर कहते है:
कबीर यह घर प्रेम का, खाला का घर नाहीं। सीस उतारी भुंई धरी तब घर पैठे माहीं।।
यानी यह प्रेम का घर है आपकी मौसी का नहीं, यहां सबसे पहले सिर को यानी घमंड को उतारकर आना होता है. बिना घमंड के त्याग के प्रेम के घर में आपकी जगह नहीं.
भक्तिकाल के सभी कवियों के यहां प्रेम के लिए त्याग पर अधिक जोर दिया गया है. जायसी तो अपने पद्मावत में यह घोषणा करते हैं कि अगर प्रेम है तो यह दुनिया ही बैकुंठ या स्वर्ग के समान है नहीं तो पूरी दुनिया का मोल एक मुट्ठी राख से अधिक नहीं. पद्मावत के अंत में जायसी ने यह पंक्तियां लिखकर इस बात की हिमायत की है:
मानुष प्रेम भयऊ बैकुंठी ना ही त काह छार भर मूंठी।
प्रेम का रास्ता काफी कठिन होता है. हिंदी के कवियों ने प्रेम के स्वरूप पर भी काफी कुछ लिखा है. मैथिली के महान कवि विद्यापति का मानना है कि प्रेम में हर पस एक नयापन होता है और ऐसा ही प्रेम महान होता है. वे लिखते हैं:
‘सेहो प्रीत अनुराग बखाइनते, तिले-तिले नूतन होय.’
इसी तरह तर्ज पर रीतिकाल में घनानंद लिखते है: ‘रावरे रूप की रीति अनूप, नयो नयो लागत ज्यौं ज्यौं निहारियै.’
वैसे तो प्रेम के मार्ग या राह को किसी भी कवि ने आसान नहीं कहा है. किसी के लिए यह आग का दरिया है तो किसी के लिए तलवार की धार पर दौड़ने के जैसा. रीतिकाल के कवि बोधा लिखते हैं: प्रेम को पंथ कराल महा, यह तरवार की धार पर धावनो है. लेकिन घनानंद के यह काफी सीधा है, जहां किसी भी तरह का छल-कपट और सयानापन नहीं चलता है-
‘अति सूधो स्नेह को मारग है, जहां नैकु सयानप बांक नहीं.’
प्रेम की हिंदी साहित्य में इतनी बड़ी महत्ता है कि छायावाद के कवि सुमित्रानंदन पंत को लगता है कि कविता का जन्म ही वियोग से हुआ होगा. पंत लिखते हैं:
'वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान. निकलकर आंखों से चुपचाप, बही होगी कविता अनजान'
छायावाद में प्रेम के वियोग और वेदना को काफी जगह मिली है. इस काल के प्रेम कविताओं में वियोग और रहस्यपूर्ण प्रेम और रहस्यमयी प्रेमी की प्रधानता है. जयशंकर प्रसाद लिखते हैं:
आह! वेदना मिली विदाई मैंने भ्रमवश जीवन संचित, मधुकरियों की भीख लुटाई
महादेवी वर्मा ने छायावादी कवियों में सबसे अधिक वेदना की कविता लिखी है. उनका प्रेमी रहस्यमयी है, अपरिचित है, अनदेखा है:
कौन तुम मेरे हृदय में?
कौन मेरी कसक में नित मधुरता भरता अलक्षित? कौन प्यासे लोचनों में घुमड़ घिर झरता अपरिचित?
स्वर्ण-स्वप्नों का चितेरा नींद के सूने निलय में! कौन तुम मेरे हृदय में?
बाद की हिंदी कविता यथार्थवाद और अस्तिववाद से अधिक प्रेरित थी. इस वजह से बाद के कवियों के यहां प्रेम में बराबरी का भाव अधिक देखने को मिलता है. यहां प्रेमी या प्रेमिका अपरिचित नहीं है. वह प्रेम तो चाहता है कि लेकिन उसे किसी बंधन की तरह नहीं देखता है. शमशेर बहादुर सिंह लिखते हैं:
हां, तुम मुझसे प्रेम करो जैसे मछलियां लहरों से करती हैं ...जिनमें वह फंसने नहीं आतीं, जैसे हवाएं मेरे सीने से करती हैं जिसको वह गहराई तक दबा नहीं पातीं, तुम मुझसे प्रेम करो जैसे मैं तुमसे करता हूं. इसी तरह आधुनिक कवि अपने प्रेमी या प्रेमिका के सौंदर्य को इस भौतिक संसार में भी देखना चाहता है. केदारनाथ सिंह लिखते हैं:
उसका हाथ अपने हाथ में लेते हुए मैंने सोचा दुनिया को हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए.
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