इस 15 जून को अन्ना हजारे 80 साल के हो जाएंगे. हम में से कईयों ने शायद यह नाम 2011 के भ्रष्टाचार विरोधी ‘जनलोकपाल आंदोलन’ से पहले नहीं सुना होगा. हालांकि अन्ना हजारे इससे पहले समाजसेवा के लिए कई पुरस्कार प्राप्त कर चुके थे और 1991 में शिवसेना-बीजेपी गठबंधन के तीन मंत्रियों के भ्रष्ट्राचार के खिलाफ आंदोलन भी कर चुके थे. अन्ना ‘सूचना के अधिकार’ से जुड़े आंदोलन में भी काफी सक्रिय थे. राष्ट्रीय परिदृश्य पर अन्ना इसी आंदोलन के जरिए पहली बार लोगों की नजर में आए.
अन्ना से 'दूसरे गांधी' तक का सफर
लेकिन अन्ना को व्यापक राष्ट्रीय पहचान मिली ‘जनलोकपाल आंदोलन’ से. यूपीए-2 की तत्कालीन सरकार के दौर में एक से बढ़कर एक घोटाले उजागर हो रहे थे. आम लोगों में इन घोटालों के खिलाफ एक गुस्सा था. इस गुस्से को एक तेवर देने का काम किया अन्ना हजारे और उनके साथियों ने.
‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ नामक एक मंच बना जो जल्द ही भ्रष्टाचार विरोधी सबसे बड़ा केंद्र बन गया. अन्ना और उनके साथियों ने राजनीतिक दलों को इससे दूर रखा. इस वजह से आम लोगों में इस मंच के प्रति विश्वसनीयता भी कायम हुई.
अन्ना इस आंदोलन का चेहरा बन गए. 16 अगस्त, 2011 को केंद्र सरकार द्वारा लाए गए ‘जन लोकपाल बिल’ के ड्राफ्ट के खिलाफ जंतर-मंतर पर अन्ना अनशन पर बैठ गए. अन्ना ने केंद्र सरकार द्वारा लाए इस बिल को ‘जन लोकपाल’ की मूल भावना के खिलाफ बताया.
इसके बाद केंद्र सरकार ने अन्ना हजारे को गिरफ्तार कर लिया. इससे आम जनता में सरकार के खिलाफ गुस्से की लहर दौड़ गई. देशभर में अन्ना हजारे के समर्थन में रैलियां निकलने लगीं और सरकार के खिलाफ प्रदर्शन शुरू हो गए. जगह-जगह नारे लगने लगे- ‘अन्ना नहीं यह आंधी है, देश का दूसरा गांधी है.’
उस वक्त अन्ना के प्रमुख सहयोगी थे- अरविंद केजरीवाल, किरण बेदी, प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव. बहरहाल इस आंदोलन ने केंद्र की यूपीए सरकार की विदाई तय कर दी.
अकेले अन्ना के भीतर कितना दम बचा है?
हममें से कोई गांधी और अन्ना हजारे से राजनीतिक रूप से असहमत या सहमत हो सकता है. किसी को अन्ना को ‘दूसरा गांधी’ कहे जाने पर भी ऐतराज हो सकता है. लेकिन एक बात तो तय है कि गांधी और अन्ना परिणति लगभग एक जैसी ही हुई.
आजादी मिलते ही गांधी हाशिए पर चले गए लेकिन सत्ता के लिए गांधी के नाम का इस्तेमाल होता रहा. ठीक उसी तरह अन्ना के नाम पर केजरीवाल मुख्यमंत्री बन गए और किरण बेदी उपराज्यपाल. लेकिन अन्ना हाशिए पर चले गए. आज अन्ना के बयानों का कोई खास असर नहीं रहा. हालांकि इस हताशा में अन्ना ने एक-दो उटपटांग फैसले भी लिए. जैसे ममता बनर्जी को समर्थन देने जैसे फैसले ने अन्ना की छवि को काफी नुकसान पहुंचाया.
यह भी कहा जा सकता है कि गांधी शारीरिक मौत मरे और अन्ना जीवित रहते हुए राजनीतिक मौत. अन्ना के सभी साथी बारी-बारी बिछड़ गए. अन्ना का जिस तेजी से राष्ट्रीय परिदृश्य पर उदय हुआ था, उससे कहीं अधिक तेजी से उनका अस्त हुआ.
हिंदी के प्रसिद्ध कवि नागार्जुन ने गांधी की 100वीं बरसी पर एक कविता लिखी थी. उन्होंने तब के गांधीवादियों पर व्यंग्य करते हुए लिखा था- ‘बापू के भी ताऊ निकले तीनों बंदर बापू के.’ इस तर्ज पर अन्ना के लिए कहा जा सकता है- ‘अन्ना के भी अन्ना निकले, सारे साथी अन्ना के.’ ‘अन्ना’ शब्द का प्रयोग दक्षिण भारत में बड़े भाई को आदर देने के लिए किया जाता है. लेकिन अन्ना के दम पर सत्ता से चिपके शायद ही उनके किसी पुराने साथी को उनकी या ‘जन लोकपाल’ की याद आती हो. अगर याद आती भी है तो सिर्फ वोट लेने के वक्त.
हालांकि हाल ही में दिए एक इंटरव्यू में अन्ना ने फिर से सरकार द्वारा ‘जन लोकपाल’ के लिए आंदोलन खड़ा करने का वादा किया है. यह देखना दिलचस्प होगा कि 80 साल का यह अकेला बूढ़ा क्या फिर से कोई गुल खिला पाएगा? अन्ना आज अकेले हैं लेकिन पहले भी वे ‘तौबे एकला चलो रे’ की राह अपना चुके. देखना यह भी है कि क्या सत्ता-सुख भोग रहे उनके साथी उनकी इस ‘डाक’ (पुकार) को सुनेंगे या नहीं.
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