फिल्म ओमकारा में एक गाना है, ‘जगते जादू फूंकेंगे रे, नींद बंज़र कर देंगे, नैना ठग लेंगे.’ फिल्म विशाल की है. संगीत विशाल का है और ऐसा लगता है गुलज़ार साहब की इन लिरिक्स में नैनों का मेटाफर विशाल के लिए है. ‘भला मंदा देखे न, पराया न सगा रे’. विशाल एक आर्टिस्ट हैं, जिनका दायरा उनके नाम की तरह विशाल होता है. समझ में ही नहीं आता कि उनके संगीत की बातों से शुरू करें या उनकी फिल्मों से.
अलग तरह के जटिल मेटाफर्स के साथ एडैप्ट की गईं उनकी शेक्सपिरियन फिल्मों की श्रंखला की विवेचना में उलझा जाए या फिर बच्चों के लिए बनाई गई ब्लू अंब्रेला और मकड़ी की सरल मगर सुंदर रचनाओं को याद करा जाए. चलिए विशाल भारद्वाज के सिनेमाई-म्यूजिकल सफर में से 5 यादगार पलों की बात करते हैं. वो पल जिनके लिए एक दर्शक-श्रोता के तौर पर हम हमेशा विशाल भारद्वाज को शुक्रिया कहते रहेंगे.
जब चड्डी पहन के फूल खिला
80 और 90 के दशक की सबसे मासूम पहचान अगर इस गाने को कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी. बलू, बघीरा, हीरा, मोती शेरखान और मोगली का सार विशाल भारद्वाज की इस कंपोजिशन में है. इस गाने के चड्डी शब्द पर कई लोगों को आपत्ति भी हुई थी. मगर गुजरते वक्त के साथ ये गाना पुरानी शराब की तरह होता जा रहा है. यकीन न हो तो मन में गुनगुनाइए और एकदम से नॉस्टेल्जिया आपके दिलो दिमाग पर छा जाएगा.
सबसे बड़े लड़इया रे ओमकारा
‘वो साला कल का फिरंगी लौंडा, आया और सबके सामने तुम्हारे मुंह से मालपुआ खींच के भकोस गया...’ ‘ओमकारा’ के इस सीक्वेंस की भाषा शालीनता के सारे मानकों को ध्वस्त कर देती है. पुल पर बैठकर शराब राजू तिवारी (दीपक डोबरयाल) पी रहे होते हैं मगर बदले का नशा लंगड़ा त्यागी को चढ़ रहा होता है.
शेक्सपियर की ओथेलो की कहानी को पश्चिमी यूपी के टेंडर माफिया के परिवेश में विशाल ने जिस खूबसूरती से ढाला है, वो हिंदी सिनेमा के लिए रिफरेंस पॉइंट से कम नहीं है. इसके साथ ही एक्शन और क्राइम के परिवेश में म्यूजिक का अपनी पूरी भव्यता से इस्तेमाल भी इस फिल्म के गानों में देखा जा सकता है.
हमरी अटरिया पर आजा रे सांवरिया
हिंदी सिनेमा में जब भी किसी क्लासिक गाने को रीक्रिएट करने की बात होती है, अक्सर दिल को सदमा सा पहुंचता है. मगर बेगम अख्तर के गाए इस दादरे को विशाल ने जिस खूबसूरती के साथ बुना और रेखा भारद्वाज से गवाया है, वो टाइमलेस है.
विशाल की पहली पहचान निर्देशक की बन गई है, इसलिए उनके संगीतकार की छवि अक्सर बैकफुट पर चली जाती है. यदि आप पिछले 30 सालों में आए 20-25 हमेशा सुने जाने वाले गानों की लिस्ट बनाएंगे तो एआर रहमान और शंकर अहसान लॉय की टक्कर में विशाल ही खड़े मिलेंगे.
बुढ़ापे में प्यार का एंथम बन गया ‘दिल तो बच्चा है जी’, ढोल की ताल वाला ‘सपने में मिलती है’, रशियन लोकसंगीत का ‘डार्लिंग, आंखों से आंखे चार करने दो’, ‘माचिस’ के गानों से लेकर ‘रंगून’ के ब्लडी हेल और ‘कमीने’ के रात के ढाई बजे तक विशाल के पॉर्टफोलियो में हर मिजाज के गानें हैं. इसीलिए ये सुन कर आश्चर्य नहीं होता कि गुलज़ार साहब ने आरडी बर्मन के बाद सबसे ज्यादा काम विशाल भारद्वाज के साथ ही किया है.
आओ न, सुबह हुई
विशाल ने अपनी फिल्मों में कई बार लीक से बिलकुल हटकर प्रयोग किए हैं. ‘मटरू की बिजली का मंडोला’ में कॉमेडी के बीच में माओत्से तुंग का जिक्र लाकर वो सबको असहज कर देते हैं. इसी तरह ‘हैदर’ में कब्र खोदने वाले बुढ्ढे ‘मैकबेथ’ की तीन चुड़ैलों की याद दिलाती हैं.
मगर हैदर का एक सीन हिंदी सिनेमा के इतिहास में रह-रह कर याद किए जाने वाले दृश्यों में से एक है. सर से पांव तक कपड़ों में लिपटी तब्बू ड्रेसिंग टेबल के सामने बैठी हैं. उनके साथ ही उनका बेटा हैदर यानी शाहिद है. सिर्फ चेहरे के एक्सप्रेशन और आवाज के उतार चढ़ाव से तब्बू इनसेस्ट का ऐसा आभास देती हैं कि दर्शक को असहज होकर थूक का घूंट निगलना पड़ता है. इस सीन को साकार करने के लिए तब्बू और इसकी कल्पना करने के लिए विशाल भारद्वाज को सलाम तो बनता है.
मियां मकबूल
यूं तो मकबूल कई वजहों से याद रह जाती है, जैसे तब्बू का मियां से पूछना ‘तुम्हें प्यास नहीं लगती’. मगर फिल्म में एक सीन है जो शेक्सपियर के पात्रों के अंतरद्वंद को उन्हीं के नाटकीय अंदाज में एक झटके में पर्दे पर दिखा देती है.
नसीरुद्दीन शाह और ओम पुरी पियुष मिश्रा की बॉडी लेकर इरफान खान के घर पर आते हैं. ऊपर से दुख जताते इरफान को एकदम से लगता है कि लाश में अभी जान बाकी है. इरफान का पैनिक होना और तब्बु का उन्हें संभालना, विशाल यहां एक ही फ्रेम में मकबूल के पूरे किरदार को स्टैबलिश कर देते हैं.
इससे थोड़ा सा मिलता जुलता मगर कथानक के स्तर पर बिलकुल अलग सीक्वेंस हॉलीवुड की फिल्म ग्रैविटी में भी था जहां सांड्रा बुलक को जॉर्ज क्लूनी के जीवित होने का भ्रम हो जाता है.
चलते-चलते विशाल भारद्वाज का कंपोज़ किया ये खूबसूरत गाना सुनते जाइए.
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