त्रिपुरा में पिछले महीने लेनिन की मूर्ति तोड़ दी गई और सत्ताधारी दल की तरफ से यह तर्क दिया गया कि लेनिन विदेशी थे अगर किसी देशी कम्युनिस्ट नेता की मूर्ति होती तो हाथ नहीं लगाते. वैसे यह देशी-विदेशी के बहस के इतर कुछ और बात है. अब पेरियार तो देशी थे, फिर उनकी मूर्ति को तोड़ने की बात क्यों कही तमिलनाडु के बीजेपी नेता ने. यही नहीं बीजेपी के इस नेता की फेसबुक पोस्ट के कुछ देर बाद सचमुच में तमिलनाडु में पेरियार की एक मूर्ति के साथ तोड़-फोड़ की गई.
यहां मसला देशी या विदेशी का नहीं बल्कि विचारों और विचारधारा का है. जिस लेनिन को विदेशी कहा जा रहा है उसी ‘विदेशी’ लेनिन ने सबसे पहले 1908 में भारत की जनता की पीड़ा को समझा था. लेनिन ऐसे पहले विश्व नेता थे जिन्होंने आजादी की लड़ाई में भारत की जनता की शक्ति को पहचाना. 1908 के उस दौर में विदेशों में भारत के बारे में बहुत कम जानकारियां सामने आती थीं. अंग्रेज भारत की गरीबी, बदहाली और शोषण को दुनिया से छिपाने की भरसक कोशिश करते थे लेकिन फिर भी लेनिन की भारत पर पैनी नजर थी.
अंग्रेजी शासन को कहा था चंगेज खां का शासन
1908 में लिखे अपने लेख में लेनिन ने लिखा था कि रूस के बाद अगर सबसे ज्यादा दुनिया में कहीं भूखमरी और गरीबी है तो वह भारत में ही है. भारत में उस वक्त तिलक के नेतृत्व में राष्ट्रीय आंदोलन चल रहा था. इस आंदोलन को कुचलने के लिए अंग्रेजों ने तरह-तरह के हथकंडे अपनाए थे और भारतीय जनता पर भंयकर दमन किया था. इसी लेख में लेनिन अंग्रेजों के इस दमन की तुलना चंगेज खां के शासन से करते हैं और तिलक के ऊपर किए गए अत्याचारों की भर्त्सना करते हैं.
लेनिन लिखते हैं- ‘हिंदुस्तान के शासकों के रूप में असली चंगेज खां बन रहे हैं. अपने कब्जे की आबादी को ‘शांत करने के लिए’ वे सब कार्रवाईयां, यहां तक की हंटरों की वर्षा, कर सकते हैं...लेकिन देशी लेखकों और राजनितक नेताओं की रक्षा के लिए हिंदुस्तान की जनता ने सड़कों पर निकल आना शुरू कर दिया है. अंग्रेज गीदड़ों द्वारा हिंदुस्तानी जनवादी तिलक को दी गई घृणित सजा...थैलीशाहों के गुलामों द्वारा एक जनवादी के खिलाफ की गई बदले की कार्रवाई की वजह से बंबई (अब मुंबई) की सड़कों पर प्रदर्शन और हड़ताल हुई. हिंदुस्तान का सर्वहारा वर्ग भी इतना काफी वयस्क हो चुका है कि एक वर्ग-जागृत राजनीतिक संघर्ष चला सके.’ लेनिन इसी लेख में लिखते हैं कि अंग्रेजी शासन के भारत में दिन लद गए.
शायद लेनिन की मूर्ति को तोड़ने वालों को भारत की आजादी की लड़ाई का इतिहास भी न मालूम हो इसलिए उन्हें बता देना जरूरी है कि जिस तिलक के समर्थन में 'विदेशी' लेनिन लिख रहे थे और उनके आंदोलन की सराहना कर रहे थे उस तिलक ने ही कहा था स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है. और अंग्रेजों के खिलाफ चेतना फैलाने के लिए गणेशोत्सव को सार्वजनिक रूप से मनाने की परंपरा शुरू की थी.
यही नहीं जब लेनिन सोवियत संघ के राष्ट्रप्रमुख थे तो उन्होंने खुलेआम भारत की आजादी की लड़ाई का समर्थन किया था. यह बहुत बड़ी बात थी क्योंकि रूस उस वक्त कई मुश्किलों से गुजर रहा था और वह इस स्थिति में नहीं पहुंचा था कि ब्रिटेन जैसे शक्तिशाली शासन से सीधे टक्कर ले सके. लेकिन लेनिन ने अंग्रेजों की परवाह नहीं करते हुए भारत की आजादी का खुलकर समर्थन किया.
17 अक्टूबर 1920 में हिंदुस्तान कुछ क्रांतिकारियों ने काबुल में मुलाकात कर रूसी क्रांति से प्रेरित होकर भारत की आजादी के लिए लड़ने का प्रस्ताव पास किया तो लेनिन ने चिट्ठी लिखकर उनका समर्थन किया. लेनिन ने लिखा- ‘मुझे यह सुनकर प्रसन्नता हुई है कि उत्पीड़ित जातियों के लिए आत्मनिर्णय और विदेशी और देशी पूंजीपतियों के शोषण से मुक्ति के सिद्धांतों को, जिन्हें मजदूर-किसान जनतंत्र ने घोषित किया है, अपनी स्वतंत्रता के लिए वीरतापूर्वक लड़ रहे सचेत हिंदुस्तानियों के बीच इतना हार्दिक स्वागत प्राप्त हुआ है. रूस के मेहनकतश जनसाधारण हिंदुस्तानी मजदूरों और किसानों के जागरण का सतत ध्यानपूर्वक अवलोकन कर रहे हैं.
मेहनतकशों का संगठन और अनुशासन, उनका धैर्य और सारे संसार के मेहनतकशों के साथ एकजुटता अंतिम विजय की गारंटी है. हम मुसलमान और गैर मुसलमान तत्वों की घनिष्ठ संघबद्धता का स्वागत करते हैं. हमारी सच्ची कामना है कि यह संघबद्धता पूरब के समस्त मेहनतकशों तक प्रसारित हो. केवल तभी, जब हिंदुस्तानी, चीनी, कोरियाई, जापानी, फारसी, तुर्क मजदूर और किसान कंधे से कंधा मिलायेंगे और मुक्ति के एकसमान ध्येय के हेतु साथ-साथ आगे बढेंगे, केवल तभी शोषकों पर निर्णायक विजय सुनिश्चित होगी.’
जब भगत सिंह ने लगाया था लेनिन का नाम अमर रहेगा का नारा
लेनिन भारत की आजादी के इतने पक्षधर थे कि उनकी मौत के बाद भी सोवियत संघ ने हिंदुस्तानी क्रांतिकारियों की मदद की. सोवियत संघ में भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद द्वारा बनाई गई पार्टी हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के डॉ गया प्रसाद कटियार के नेतृत्व में HSRA के कार्यकर्ताओं को बम और हथियार बनाने की ट्रेनिंग दी गई.
लेनिन भगत सिंह के आदर्श थे. आज लेनिन की मूर्ति को तोड़ने वालों को यह जान लेना चाहिए कि यह भगत सिंह और उनके साथी ही थे जिन्होंने भारत में सबसे पहली बार खुलेआम ‘लेनिन का नाम अमर रहेगा’ का नारा लगाया था. भगत सिंह लेनिन के मुरीद थे यह बात किसी से छिपी नहीं है. भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु पर मुकदमा चल रहा था तभी ‘लेनिन दिवस’ आ गया (21 जनवरी यानी लेनिन की पुण्यतिथि).
भगत सिंह और उनके साथियों ने तीसरे इंटरनेशनल (कम्युनिस्टों की अंतरराष्ट्रीय संस्था) के लिए एक तार तैयार किया और सुनवाई के दौरान अदालत में पढ़ा. अखबारों में इसकी रिपोर्ट यूं लिखी गई थी- ‘21 जनवरी, 1930 को लाहौर षड्यंत्र केस के सभी अभियुक्त अदालत में लाल रुमाल बांध कर उपस्थित हुए. जैसे ही मजिस्ट्रेट ने अपना आसन ग्रहण किया उन्होंने ‘समाजवादी क्रांति जिंदाबाद', 'कम्युनिस्ट इंटरनेशनल जिंदाबाद', ‘जनता जिंदाबाद,’ ‘लेनिन का नाम अमर रहेगा,’ और ‘साम्राज्यवाद का नाश हो’ के नारे लगाए. इसके बाद भगत सिंह ने अदालत में तार का मजमून पढ़ा और मजिस्ट्रेट से इसे तीसरे इंटरनेशनल को भिजवाने का आग्रह किया.
भगत सिंह के साथ-साथ लेनिन से वैचारिक रूप से बिल्कुल उल्ट महात्मा गांधी भी लेनिन के मुरीद थे. वो बोल्शेविक क्रांति के पहलुओं की आलोचना करने के बावजूद गांधीजी लेनिन के बारे में लिखते हैं- ‘लेनिन जैसे प्रौढ़ व्यक्ति ने अपना सर्वस्व उस पर निछावर कर दिया था; ऐसा महात्याग व्यर्थ नहीं जा सकता और उस त्याग की स्तुति हमेशा की जाएगी.’
दरअसल लेनिन या दुनिया में बराबरी के सिद्धांत में विश्वास रखने वाले किसी भी व्यक्ति या विचारधारा को मूर्ति तोड़कर नष्ट नहीं किया जा सकता. यह एक शाश्वत विचार है जो हर समय किसी न किसी विचार या व्यक्ति के रूप में कायम रहता है. लेनिन विरोधी उन्हें विदेशी कहकर खारिज कर सकते हैं उनकी मूर्ति तोड़ सकते हैं पर कबीर, रैदास, भगत सिंह, गांधी, अंबेडकर से लेकर पेरियार के विचारों को क्या कहकर खारिज करेंगे?
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