कोई हंस रहा है कोई रो रहा है, कोई पा रहा है कोई खो रहा है..कोई ताक में है किसी को है गफलत, कोई जागता है कोई सो रहा है..कहीं नाउम्मीदी ने बिजली गिराई, कोई बीज उम्मीद के बो रहा है..इसी सोच में मैं तो रहता हूं 'अकबर', यह क्या हो रहा है यह क्यों हो रहा है.
अगर इस कविता ने आपकी धड़कनों को अपने सुकून का सहारा दिया हो तो जान लीजिए इन्हें उर्दू से इश्क फरमाने वाले अजीम शायर 'अकबर इलाहाबादी' ने लिखा है. आज यानि शुक्रवार को अकबर का जन्मदिन है. उनका असली नाम सैयद अकबर हुसैन था और उनका जन्म 1846 में इलाहाबाद के पास बारा में हुआ था.
अकबर की शुरुआती पढ़ाई लिखाई घर पर ही हुई थी. लेकिन जब वह 15 साल के हुए तब अपने से 2-3 साल बड़ी लड़की से शादी कर ली. हैरानी की बात यह है कि यह सिलसिला एक शादी पर ही नहीं रुका. कुछ ही समय बाद उन्होंने दूसरी शादी करके सबको चौंका दिया था.
अकबर के अपनी दो बीबियों से 2-2 बेटे थे. वह भरे-पूरे परिवार में यकीन रखते थे. ऐसा नहीं है कि अकबर को पढ़ाई-लिखाई से कोई राब्ता नहीं था बल्कि उन्होंने तो वकालत की पढ़ाई की थी और इलाहाबाद के सेशन कोर्ट में जज के रूप में अपनी जिम्मेदारी को बखूबी निभाया था.
ब्रिटिश सरकार ने उन्हें खान बहादुर की उपाधि दी थी. अकबर गांधी के नेतृत्व में छिड़े स्वाधीनता आंदोलन के भी गवाह रहे थे. उन्होंने गांधी के ऊपर कई कविताएं लिखीं, जिसे गांधीनामा नाम से प्रकाशित किया गया था.
वकालत के बावजूद दुनिया से रूबरू होने के लिए रहते थे बेकरार
अकबर के दिल में शायरी बसी थी जो एक आशावादी कवि के जरिए दुनिया से रूबरू होने के लिए हमेशा बेकरार रहती थी. उनके घरेलू हालातों ने उनका कविता से और भी ज्यादा करीबी रिश्ता बना दिया था क्योंकि बहुत कम उम्र में ही उनके बेटे और पोते की मौत हो गई थी.
यह अकबर का सबसे तन्हाई भरा दौर था जिसकी वजह से वह अपने जिंदगी के आखिरी पड़ावों के बीच बहुत धार्मिक भी हो गए थे. इन सबसे अलग जब उनकी जिंदगी में गमों की कोई खास आहट नहीं थी तब वह एक मिलनसार शख्स थे. उनकी कविता हास्य और व्यंग्य से भरपूर होती थीं.
जिंदगी के हर पहलू पर अकबर ताउम्र व्यंग्य करते रहे लेकिन 1921 में जिंदगी ने उन्हें मौत से वाकिफ करा दिया था. शायद इसीलिए उन्होंने लिखा था..आई होगी किसी को हिज्र में मौत, मुझ को तो नींद भी नहीं आती.
अकबर की शायरी में एक तन्हा शोर भी देखने को मिलता है. उन्होंने लिखा था..बहसें फिजूल थीं यह खुला हाल देर में, अफसोस उम्र कट गई लफ्जों के फेर में. इसके अलावा अगर उनकी शायरियों की गहराई में जाएं तो पता लगता है कि अकबर ने बेपरवाह जिंदगी के पहाड़ पर चढ़ने की भी कोशिश की है.
बेपरवाही का जिक्र करने वाला शायर जो तन्हाई को जीने वाला निकला
अकबर ने अपनी बेपरवाही के आलम का जिक्र करते हुए लिखा था..दुनिया में हूं दुनिया का तलबगार नहीं हूं, बाजार से गुजरा हूं, खरीददार नहीं हूं. यारब मुझे महफूज रख, उस बुत के सितम से..मैं उस की इनायत का तलबगार नहीं हूं. अफसुर्दगी ओ जौफ की कुछ हद नहीं अकबर..काफिर के मुकाबिल में भी दीदार नहीं हूं.
इसके अलावा उनकी एक और प्रसिद्ध रचना है..शिर्क छोड़ा तो सब ने छोड़ दिया, मेरी कोई सोसाइटी ही नहीं..पूछा अकबर है आदमी कैसा, हंस के बोले वो आदमी ही नहीं. वहीं अगर तन्हाई की बात करें तो अकबर अपने दर्द से बात करते दिखाई देते हैं.
उनकी रचना है..आंखें मुझे तलवों से वो मलने नहीं देते, अरमान मिरे दिल के निकलने नहीं देते..खातिर से तिरी याद को टलने नहीं देते..सच है कि हमीं दिल को संभलने नहीं देते. किस नाज से कहते हैं वो झुंझला के शब ए वस्ल, तुम तो हमें करवट भी बदलने नहीं देते. दिल वो है कि फरियाद से लबरेज है हर वक्त..हम वो हैं कि कुछ मुंह से निकलने नहीं देते.
लेकिन तमाम गमों के बावजूद अकबर हास्य के रस से भिगोना भी बखूबी जानते थे. उनकी कविताओं में हास्य का असर अक्सर देखने को मिलता था. उनकी रचना है..शेख जी घर से न निकले और लिख कर दे दिया..आप बीए पास हैं तो बंदा बीवी पास है. इसके अलावा तिफ्ल में बू आए क्या मां-बाप के अतवार की..दूध तो डिब्बे का है, तालीम है सरकार की. यह भी उन्हीं की रचना है.
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