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जन्मदिन विशेष हरिवंश राय बच्चन: आमजन के दिल को छूने वाला कवि

यह भी एक दिलचस्प तथ्य है कि हरिवंश राय बच्चन ने कभी न शराब पी थी और न ही किसी मधुशाला में गए थे

Updated On: Nov 27, 2017 02:29 PM IST

Piyush Raj Piyush Raj
कंसल्टेंट, फ़र्स्टपोस्ट हिंदी

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जन्मदिन विशेष हरिवंश राय बच्चन: आमजन के दिल को छूने वाला कवि

हरिवंश राय बच्चन हिंदी साहित्य के लोकप्रिय नामों में से एक हैं. कई लोग भले ही यह कह सकते हैं कि वो सुपरस्टार अमिताभ के पिता होने की वजह से लोकप्रिय हैं. लेकिन यह हिंदी कविता और साहित्य से बिल्कुल अपरिचित लोगों के लिए ही कहा जा सकता है.

यहां यह भी एक तथ्य है कि हरिवंश राय बच्चन भले ही हिंदी के लोकप्रिय कवियों में से एक हों लेकिन उन्हें हिंदी साहित्य की मुख्य धारा में भी बहुत अधिक जगह नहीं दी गई है. उनकी गिनती हिंदी के बड़े-बड़े कवियों में नहीं की जाती है. पर यह कहने में कोई गुरेज नहीं आज भी हिंदी के जिन कवियों की कविताएं और किताबें सबसे अधिक पढ़ी और खरीदी जाती हैं, उनमें हरिवंश राय बच्चन भी शामिल हैं.

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हरिवंश राय बच्चन को सबसे अधिक लोकप्रियता ‘मधुशाला’ की वजह से मिली. यह बच्चन की दूसरी रचना थी और 1935 में लिखी गई थी. इसके बाद 1936 में ‘मधुबाला’ और 1937 में ‘मधुकलश’ प्रकाशित हुई. इन तीनों रचनाओं ने हिंदी साहित्य में हालावाद की नींव डाली. जिसकी तर्ज पर कई और कवियों ने भी कविताएं लिखीं. यह वह दौर था जब प्रगतिवाद की नींव पड़ रही थी और छायावाद अपने अंतिम दौर में था. रहस्यवाद, क्षणवाद और व्यक्तिवाद से हिंदी कविता को मुक्त करने की बात कही जा रही थी. यहां तक कि छायावादी कवियों ने भी ‘युगांत’ की घोषणा कर दी थी.

हालावाद के प्रवर्तक

ऐसे वक्त में छायावाद से ऊर्जा लेते हुए एक नए वाद की शुरुआत करना बहुत ही साहसिक कार्य था. इस तरह के वाद से लोगों की सहमति और असहमति हो सकती है लेकिन इस वाद ने हिंदी कविता से आमजन को परिचित करवाने में बड़ी मदद की.

Harivansh Rai Bachchan  new

हालावाद खासकर बच्चन ने छंद आधारित कविताएं लिखीं, जिसका छायावाद के दौरान निषेध किया गया था. साथ ही विषय के स्तर में भी बच्चन ने प्रगतिवाद से तालमेल बैठाने की कोशिश की. प्रगतिवाद साम्यवाद से प्रभावित समानता का हिमायती था. बच्चन की मधुशाला भी समानता की हिमायत करती है. बच्चन लिखते हैः

धर्मग्रंथ सब जला चुकी है, जिसके अंतर की ज्वाला, मंदिर, मसजिद, गिरिजे, सब को तोड़ चुका जो मतवाला, पंडित, मोमिन, पादिरयों के फंदों को जो काट चुका, कर सकती है आज उसी का स्वागत मेरी मधुशाला।।

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बजी न मंदिर में घड़ियाली, चढ़ी न प्रतिमा पर माला, बैठा अपने भवन मुअज्ज़िन देकर मस्जिद में ताला, लुटे ख़जाने नरपितयों के गिरी गढ़ों की दीवारें, रहें मुबारक पीनेवाले, खुली रहे यह मधुशाला।।

बच्चन की यह पंक्तियां जहां एक और समानता की वकालत करती हैं, वहीं इशारों में यह भी कहती हैं कि यह समानता सिर्फ मदिरालय में ही संभव है. यानी वे साम्यवाद को एक ऐसी वस्तु मानते हैं जो बहुत ही मुश्किल से मिलने वाली है या यूटोपिया है. दरअसल बच्चन की मधुशाला एक साम्यवादी जगह ही हैं. इसी वजह से वे हर तरह के अंतरविरोधों का हल मधुशाला में ही ढूंढ़ते हैं. वैसे यह भी एक तथ्य है कि हरिवंश राय बच्चन ने कभी न शराब पी थी और न ही किसी मधुशाला में गए थे.

सरल अंदाज में गंभीर बात कहने वाला कवि

हरिवंश राय बच्चन की लोकप्रियता की सबसे बड़ी वजह यह थी कि वे बहुत ही गंभीर मुद्दों को सरल अंदाज में बयां करना जानते थे. आज के दौर में जब मंदिर-मस्जिद के मुद्दे पर घमासान मचा हुआ है, तब 1935 में उनकी लिखी हुईं ये पंक्तियां किसी को भी याद आ जाती हैः

मुसलमान औ' हिंदू है दो, एक, मगर, उनका प्याला, एक, मगर, उनका मदिरालय, एक, मगर, उनकी हाला, दोनों रहते एक न जब तक मस्जिद मंदिर में जाते, बैर बढ़ाते मस्जिद मंदिर मेल कराती मधुशाला!।।

यह हो सकता है भाव और शिल्प की कसौटी पर हरिवंश राय बच्चन को बहुत बड़ा कवि नहीं माना जाता हो. उनके ऊपर किसी बड़े आलोचक ने कोई किताब न लिखी हो. पर बच्चन इन सबके मोहताज नहीं थे. वे किसी आलोचक के नहीं बल्कि आमजन के हृदय को छूने वाले कवि थे.

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