इसे भारतीय राजनीति का स्याह पक्ष कहें या फिर विडंबना कि जहां आज सियासत में मामूली कामयाबी हासिल करने के बाद कोई व्यक्ति अपने ऐश्वर्य वृद्धि में जुट जाता है. लेकिन हमारे इसी देश में ऐसे कई नेता हुए जिन्होंने निःस्वार्थ भाव से राजनीति की. प्रथम लोकसभा चुनाव में कोसी अंचल में एक ऐसे ही सांसद थे किराई मुसहर (ऋषिदेव). वे जन प्रतिनिधि बनने से पहले खेतिहर मजदूर थे और मरने के बाद भी उनका परिवार भूमिहीन ही रहा.
आज उनकी 98 वीं जयंती है लेकिन शायद ही बिहार सरकार को उनकी जयंती याद हो. जबकि डॉ.राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण के नाम पर समाजवाद की राजनीति करने का दंभ भरने वाली पार्टियों की बिहार में तीन दशक से ज्यादा समय तक सरकारें रहीं. कहने को आज भी कथित तौर पर प्रदेश में अर्द्ध समाजवादी सरकार है. जिसके मुखिया हैं मुख्यमंत्री नीतीश कुमार. किराई मुसहर का जन्म एक दलित परिवार में 17 नवंबर 1920 को कोसी क्षेत्र के मुरहो गांव में हुआ था.
आजादी के बाद 1952 में प्रथम आम चुनाव हुए. तब भागलपुर-पूर्णिया संयुक्त लोकसभा क्षेत्र से किराई मुसहर को सोशलिस्ट पार्टी ने अपना उम्मीदवार बनाया था.
एक खेत मजदूर का सांसद बनना
वर्ष 1952 में भागलपुर सह पूर्णिया लोकसभा क्षेत्र से वह सांसद निर्वाचित हुए थे. किराई मुसहर दूसरों के खेतों में काम करने वाले एक मजदूर थे. अक्षर ज्ञान के अलावा वह खास पढ़े-लिखे नहीं थे. लेकिन महात्मा गांधी और डॉ.राममनोहर लोहिया के विचारों से वे खासे प्रभावित थे. उनके पुत्र छट्टू ऋषिदेव कहते हैं, आजादी से पूर्व एक बार महात्मा गांधी कोसी और मिथिला के क्षेत्र आए थे. उस दिन बाबू जी (किराई मुसहर) गृहथ (जमींदार) के खेत में हल जोत रहे थे.
गांधी जी के आने की खबर सुनकर वह सहरसा चले गए उन्हें देखने. वापस लौटने पर गृहथ ने उन्हें डांट-डपटकर बहियार (खेत) में काम करने से मना कर दिया. घर में खर्ची-खुराक की पूर्ति के लिए वह पड़ोसी गांव के खेतों में मेहनत-मजदूरी करने लगे. कई महीनों तक यह सिलसिला जारी रहा. बाद में उनके गांव के बड़े जमींदारों में शुमार बिन्देश्वर मंडल के परिजनों ने बाबू जी (किराई मुसहर) को अपना हलवाहा बना लिया.
इस दौरान वे समाजवादी नेता डॉ.राममनोहर लोहिया और उनके कुछ समकालीन नेताओं के संपर्क में आ चुके थे. खेती-पथारी से निवृत और मवेशियों को सानी-पानी देकर सोशलिस्ट पार्टी के दफ्तर पहुंच जाया करते. वहां डॉ.राममनोहर लोहिया, आचार्य कृपलानी और जयप्रकाश नारायण से जुड़े प्रसंगों के अलावा देशकाल व परिस्थिति पर चर्चा सुनना उन्हें खूब पसंद था.
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डॉ.लोहिया के विचारों का उनपर ऐसा असर पड़ा कि गांव की दलित-पिछड़ी जातियों से जुड़े लोगों को वो सोशलिस्ट पार्टी से जोड़ने का प्रयास करने लगे. किराई मुसहर निःस्वार्थ भाव से अपने हिस्से का कर्तव्य पूरा कर रहे थे. चुनाव लड़ना और कोई पद हासिल करना कभी उनका लक्ष्य नहीं रहा.
लोकतंत्र के प्रति डॉ.लोहिया का नजरिया
डॉ.राममनोहर लोहिया हमेशा बिहार को समाजवाद के लिए उर्वर भूमि मानते थे. यही कारण था कि सूबे में सोशलिस्ट पार्टी से जुड़े सभी वर्ग के समर्पित कार्यकर्ताओं की अच्छी-खासी संख्या थी. देश में प्रथम आम चुनाव की घोषणा के बाद तत्कालीन भागलपुर सह पूर्णिया लोकसभा क्षेत्र से योग्य उम्मीदवार की तलाश होने लगी. कांग्रेस के खिलाफ किसे मैदान में उतारा जाए इस बाबत माथापच्ची होने लगी.
अनिच्छा जाहिर करते हुए उन्होंने कहा, 'डॉ.साहब क्या चुनाव लड़ने से पहले ही आप पार्टी को हराना चाहते हैं? डॉ.लोहिया ने तत्काल उत्तर दिया, चुनाव सिर्फ जीतने की इच्छा के साथ नहीं लड़ा जाना चाहिए. बिहार जैसे जातिवादी-सामंती पृष्ठभूमि से जुड़े प्रदेश में वंचित समुदाय के लोगों को सामने लाना पहली जरूरत है. राजनीति में एक खास वर्ग के प्रभुत्व को खत्म किए बगैर भारत का यह नवजात लोकतंत्र मजबूत नहीं होगा.
डॉ.लोहिया की बात सुनकर सभी ने किराई मुसहर के नाम पर मुहर लगा दी. जिस समय यह कवायद चल रही थी उस वक्त किराई मुसहर खेत में काम कर रहे थे. अपनी उम्मीदवारी की खबर सुनकर वे सहरसा पहुंचे और राममनोहर लोहिया से कहा, ‘डागडर सेहेब हमरा एहन हरबाह के दू बखत के रोटियो नीक जेकां नहि भेटै छै. एहि दुआरे हम चुनाव लड़िकें अपन परिवार के बिपति में नहि डालि सकै छी’ ( डॉ.साहब मुझ जैसे हरवाहे को दो वक्त की रोटी भी नहीं मिल पाती,इसलिए मैं चुनाव लड़कर अपने परिवार को मुसीबत में नहीं डाल सकता.)
डॉ. लोहिया की दलील सुनकर किराई मुसहर के पास चुनाव नहीं लड़ने का कोई तर्क नहीं बचा. इस तरह देश का पहला आम चुनाव संपन्न हुआ और भागलपुर सह पूर्णिया संसदीय क्षेत्र को एक ऐसा सांसद मिला, जिसकी न तो कोई राजनीतिक पृष्ठभूमि थी और न ही कोई संपत्ति.
ट्रेन की फर्श पर बैठ दिल्ली पहुंचे किराई
चुनाव जीतने के बाद मई 1952 में बतौर सांसद किराई मुसहर लोकसभा की कार्यवाही में भाग लेने दिल्ली जा रहे थे. पहली मर्तबा वे अपने गांव मुरहो से इतनी दूर जा रहे थे. पार्टी से जुड़े कार्यकर्ताओं ने किसी तरह चंदा जमा कर रेल भाड़ा और दिल्ली में उनके ठहरने का इंतजाम किया. सामान के नाम पर उनके पास सिर्फ टीन का एक बक्सा था उसके भीतर पैबंद लगा जोड़ी भर धोती-कुर्ता, गमछा और एक खद्दर की चादर थी.
रास्ते में खाने के लिए उनकी पत्नी ने सत्तू, चूड़ा, नमक और मिर्च बांध दिया था. सहरसा रेलवे स्टेशन पर गाड़ी में चढ़ाने के लिए सोशलिस्ट पार्टी के कुछ कार्यकर्ता आए थे. स्टेशन पर किराई थोड़ा असहज हो गए जब ऊंची जातियों के लोगों ने उनके ऊपर तंज कसना शुरू किया, ‘देखहक मुसहरा नेता बैन गलय’ (देखो मुसहर अब नेता बन गया है.)
खैर कुछ देर बाद गाड़ी आई लेकिन लोगों की कटाक्ष सुनकर वे दुखी जरूर थे. अपमानित होने और जातिगत हीनता की वजह से ट्रेन में वह अपनी सीट पर बैठने की हिम्मत नहीं जुटा सके. इस तरह डेढ़ दिन का सफर उन्होंने रेल की फर्श पर बैठकर पूरा किया. दिल्ली तक की कष्टप्रद यात्रा उन्होंने किसी शौक से पूरा नहीं किया. इसके पीछे वह तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था थी जो बिहार समेत दूसरे प्रांतों में प्रचलित थी. ऊंची जातियों के समक्ष दलितों का खाट व कुर्सी पर बैठना आसान नहीं था. शायद यही वजह थी कि सांसद चुने जाने पर भी किराई मुसहर रेलगाड़ी में अपनी सीट पर बैठने का साहस नहीं कर पाए.
कोसी अंचल के प्रति प्रधानमंत्री नेहरू की जिज्ञासा
दिल्ली पहुंचने पर लोकसभा की कार्यवाही में हिस्सा लेने किराई मुसहर संसद भवन पहुंचे. सदन की भव्यता और अन्य सांसदों का परिधान देखकर वह काफी असहज हो गए. ऐसा होना लाजिमी था, लोकसभा में काफी ऐसे सांसद थे जिनका ताल्लुक किसी राजघराने से था. वे फर्राटेदार अंग्रेजी बोलते थे. जबकि किराई मुसहर सिर्फ मैथिली में बात कर सकते थे.
एक दिन तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की नजर सदन के आखिरी छोर में बैठे किराई मुसहर पर पड़ी. उन्होंने विनम्रता से पूछा, किराई जी आप बिहार के जिस क्षेत्र से आते हैं, क्या वहां कोई समस्या है? हिंदी बोल पाने में असमर्थ सकुचाए किराई मुसहर ने मैथिली भाषा में प्रधानमंत्री नेहरू से कहा, 'पंडी जी हम्मर गामक दलित लोकेन वहि खदहा सं पाइन पीवेत छैत जाहिमे कुकूर आ सुग्गर पाइन पीवेत अछि' (पंडितजी हमारे गांव में दलित समुदाय के लोग उसी गड्ढे का पानी पीते हैं, जहां कुत्ते और सुअर पानी पिया करते हैं) इसके अलावा उन्होंने कोसी नदी में आने वाली सालाना बाढ़ और उससे होने वाली महामारी का जिक्र भी सदन के समक्ष किया. माना जाता है कि प्रसिद्ध कोसी परियोजना के निर्माण की प्रेरणा किराई के उसी मार्मिक व्यथा का प्रतिफल है.
किराई की मौत से मर्माहत लोहिया
आर्थिक तंगी और लंबी बीमारी से ग्रस्त पूर्व सांसद किराई मुसहर की 18 अगस्त 1965 को मृत्यु हो गई. उन दिनों डॉ.राममनोहर लोहिया फर्रूखाबाद से सांसद थे. अपने साथी किराई जिन्हें वह जन्मजात समाजवादी कहते थे,उनके असामयिक निधन से डॉ.लोहिया अत्यंत व्यथित हुए. निःसंदेह किराई मुसहर जैसे वंचित समुदाय के व्यक्ति को राजनीति में आगे लाने का काम उन्होंने किया.
वर्ष 1962 के आम चुनाव में डॉ.लोहिया ने मध्य प्रदेश स्थित ग्वालियर राजघराने की महारानी विजयराजे सिंधिया के खिलाफ सुक्खो रानी नामक एक मेहतरानी (महिला सफाईकर्मी) को सोशलिस्ट पार्टी के निशान पर चुनावी समर में उतारा.
समाजवादी विचारक और डॉ. लोहिया के साथ जेल में बंद रहे प्रोफेसर राजकुमार जैन कहते हैं, ‘वह चुनाव 'रानी बनाम मेहतरानी' के नाम से देशभर में चर्चित हुआ था. इस चुनाव के माध्यम से डॉ. लोहिया वास्तव में सामाजिक विषमता की तरफ ध्यान आकृष्ट करना चाहते थे कि ये रानियां लूट, वैभव और शोषण की प्रतीक हैं. जबकि मेहतरानियां श्रम का, दूसरों की सेवा का और हर तरह की सामाजिक प्रताड़ना व बहिष्कार के साथ-साथ विपन्नता के निम्न स्तर पर गुजर-बसर के बावजूद समाज के सबसे घृणित कार्य वे करती हैं. यह एक बड़ा वैचारिक संघर्ष डॉ.लोहिया ने सुक्खो रानी के जरिए उठाया था.
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बहरहाल, उस साल हुए चुनाव में डॉ. लोहिया भी उत्तर प्रदेश के फूलपुर से प्रधानमंत्री नेहरू के खिलाफ चुनाव मैदान में थे. सुक्खो रानी व डॉ.लोहिया दोनों चुनाव तो हार गए लेकिन संसदीय लोकतंत्र के इतिहास में सामाजिक गैर-बराबरी को खत्म करने की दिशा में उनका प्रयास मील का पत्थर सिद्ध हुआ.’
23 नवंबर 1965 को लोकसभा में डॉ.राममनोहर लोहिया ने पूर्व सांसद किराई मुसहर की मृत्यु पर आयोजित शोकसभा में अत्यंत मार्मिक भाषण दिया था- 'अध्यक्ष महोदय, एक हमउम्र और जानदार दोस्त की मौत पर कितनी यादें आती हैं व कितनी तकलीफें होती हैं. मैं इस सदन को केवल इतना बताऊं कि जब श्री किराई ऋषिदेव चुने गए थे तो पहली मर्तबे रेल के डिब्बे में अपनी जगह पर नहीं, फर्श पर बैठे.'
लोहिया ने कहा, 'वह ऐसी जमात से आए थे लेकिन फिर बाद में स्वाभिमान में बढ़ते गए. जानदारी में बढ़ते गए और मैं समझता हूं कि ऐसा जानदार समाजवादी, जिसको हम कहा करते हैं जन्मजात समाजवादी, बहुत कम देखने को मिले हैं. इसलिए मैं आपसे यह अर्ज करूं कि जहां भारत में और सब कमियां रही हैं. यह खुशी की बात रही है कि जो दबे हुए लोग हैं- हरिजन,आदिवासी, पिछड़े, औरतें उनमें पिछले अठारह वर्षों में धीरे-धीरे कुछ निर्भीकता और कुछ स्वाभिमान जागा है. आखिर में मैं खाली एक अफसोस जाहिर कर दूं कि यह कव्ल-अज-वक्त मौत कुछ अभाव के कारण हुई जिसको हम लोग अपनी सीमित शक्ति के कारण दूर नहीं कर सके और एक बहुत जानदार दोस्त अपना चला गया.'
सामाजिक न्याय के रहबरों ने किराई को भुलाया
तत्कालीन सहरसा जिले के मुरहो गांव में बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री व द्वितीय पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष बिन्देश्वर मंडल (बी.पी मंडल) एक संपन्न यादव जमींदार थे. गांव में दाखिल होने पर आपको महंगे संगमरमर से बनी बी.पी मंडल की समाधि दिखाई पड़ेगी.
जहां हर साल उनकी स्मृति में बिहार के समाजवादी नेता श्रद्धांजलि अर्पित करने आते हैं. पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह, पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद, पूर्व उपप्रधानमंत्री व हरियाणा के मुख्यमंत्री रहे चौधरी देवीलाल जैसे बड़े नेता मुरहो गांव आए लेकिन बी.पी मंडल के घर से चंद फर्लांग की दूरी पर कोसी अंचल के पहले सांसद और डॉ.लोहिया के आत्मीय रहे किराई मुसहर के घर वे नहीं आए.
साल 1992 में बतौर मुख्यमंत्री लालू प्रसाद ने मधेपुरा जिले में प्रख्यात समाजवादी नेता भूपेंद्र नारायण मंडल (बी.एन मंडल) के नाम पर विश्वविद्यालय की स्थापना की. बाद के वर्षों में बिन्देश्वर प्रसाद मंडल (बी.पी मंडल) की स्मृति में भी कई शैक्षणिक संस्थान मधेपुरा में स्थापित हुए. जबकि पूर्व सांसद रहे किराई मुसहर के नाम पर कोसी अंचल में एक अदद सरकारी प्रतिष्ठान नहीं है. न तो मुरहो में उनकी समाधि है और न ही मधेपुरा जिले में कहीं उनकी प्रतिमाएं हैं.
यहां तक कि किराई मुसहर के घर तक जाने के लिए कोई रास्ता भी नहीं है. उनके घर पहुंचने के लिए आज भी कई महादलित परिवारों के आंगन लांघकर ही पहुंचा जा सकता है. गांव में अच्छी सड़कें तो बनीं लेकिन मुसहर टोले को आज भी बुनियादी सुविधाएं मुक्कमल तौर पर मयस्सर नहीं है.
आर्थिक तंगी से जूझ रहा पूर्व सांसद का परिवार
किराई मुसहर जब सांसद नहीं थे उस समय भी वह दूसरों की खेतों में काम करते थे. सांसद बनने के बाद भी गांव लौटने पर उन्होंने मजदूरी करना नहीं छोड़ा. किराई मुसहर के बेटे छट्टू ऋषिदेव कहते हैं, 'उनका घर गैर-मजरूआ जमीन पर बना है. करीब पंद्रह धूर जमीन पर फूस की बनी एक झोपड़ी है. इसी झोपड़ी में उनके बाबूजी रहते थे. मौजूदा राजनीति में बढ़ते धनबल और जातिबल से वह बेहद निराश हैं.
बाबू जी सांसद रहे,लेकिन संपत्ति बनाना तो दूर वे अपने लिए घर भी नहीं बना सके. छट्टू ऋषिदेव अपनी पत्नी राजलक्ष्मी देवी और अपने बेटों के साथ उसी घर में रहते हैं. दूसरों के खेतों में बटाई करके वह अपने परिवार का भरण-पोषण करते हैं. उनके मुताबिक आजादी के सात दशक बाद भी ज्यादातर महादलित भूमिहीन हैं.
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