खामोश क़हक़हों में भी ग़म देखते रहे
दुनिया ना देख पाई जो हम देखते रहे
या इस बात को कवि दुष्यंत कुमार के शब्दों में इस तरह भी कहा जा सकता है!
सिर्फ शायर देखता है क़हक़हों की असलियत
हर किसी के पास तो ऐसी नज़र होगी नहीं
जी हां, आज मैं बात करने जा रहा हूं हिंदी साहित्य जगत के मशहूर हास्य कवि काका हाथरसी की. सिर्फ नाम ही काफी है. किसी को हंसाना आसान नहीं है बल्कि ये तो सबसे मुश्किल काम है और ये काम अगर कविता के ज़रिए किया जाए तो फिर कहना ही क्या. काका ने अपने हास्य व्यंग में यही तो किया. सब को खुशियां दीं, हंसाया और हास्य के द्वारा कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया. उनकी एक कविता की कुछ पंक्तियां देखिए.
जन-गण मन के देवता, अब तो आंखें खोल
महंगाई से हो गया, जीवन डावांडोल
जीवन डांवाडोल खबर लो शीघ्र कृपालू
कलाकन्द के भाव बिक रहे बैंगन- आलू
कह, काका कवि, दूध, दही को तरसें बच्चे
आठ रुपए के किलो टमाटर, वो भी कच्चे
काका के पुरखों का पुश्तैनी घर हाथरस था. 18 सितम्बर 1906 को हाथरस में ही काका का जन्म हुआ. बचपन में मां-बाप ने नाम दिया, प्रभु गर्ग लेकिन जैसे-जैसे वो बड़े होते गए, प्रभु गर्ग कहीं खो सा गया और उसकी जगह, काका हाथरसी ने ले ली. अपने जन्म के बारे में काका ने खुद ये पंक्तियां लिखी थीं.
दिन अठ्ठारह सितम्बर, अग्रवाल परिवार
उन्नीस सौ छह में लिया, काका ने अवतार
काका की पुण्य तिथि भी 18 सितम्बर ही है, साल था 1995. कैसा अजब संयोग है. वो जाते-जाते 18 सितम्बर की तारीख को अमर कर गए. काका ने कवि सम्मेलन के मंच को अपनी कविताओं से गुदगुदाया और हास्य कवि सम्मलेन में परिवर्तित कर दिया. वो कवि सम्मलेन की सफलता का पर्याय बन गए. अपने हास्य और व्यंग्य से उन्होंने दर्शकों का दिल जीत लिया.
कविता के मंच पर उस समय हास्य और व्यंग के नाम पर फूहड़ता परोसी जा रही थी. कविजन गीतों के सहारे अपनी नैया खे रहे थे और आवाज़ की पटरी पे ग़ज़ल दौड़ रही थी लेकिन अपनी सोच और भाषा से काका ने हास्य कविता के स्तर को बुलंदियों पर पहुंचा दिया. हास्य को ऐसी गरिमा हिंदी मंच पर पहले कभी नहीं मिली थी. काका के समकालीन कवियों में कुछ बड़े नाम और हैं, जैसे सोहन लाल द्विवेदी, हरिवंश राय बच्चन, गोपाल दास नीरज और बालकवि बैरागी, जिन्होंने उनके साथ कविता का मंच साझा किया. काका की खासियत ये थी कि उनका हास्य बहुत सरल और सहज था. देश और समाज को वो अपने अंदाज से देखते थे. उनकी ये कविता देखिए, आप खुद ही उनके कायल हो जाएंगे.
चंदामल से कह रहे बाबू आलमगीर
पहुंच गए वो चांद पर, मार लिया क्या तीर
मार लिया क्या तीर, लौट पृथ्वी पर आए
किए करोड़ों खर्च, कंकड़ी मिटटी लाए
काका, इससे लाख गुना अच्छा नेता का धंधा
बिना चांद पर चढ़े , हज़म कर जाता चंदा
वित्तमंत्री से मिले, काका कवि अनजान
प्रश्न किया क्या चांद पर रहते हैं इंसान
रहते हैं इंसान, मार कर एक ठहाका
कहने लगे कि तुम बिलकुल बुदधू हो काका
अगर वहां मानव रहते, हम चुप रह जाते
अब तक सौ दो सौ करोड़ कर्जा ले आते
अभी दो दिन पहले ही काका की छोटी बेटी के पति यानी उनके दामाद, मशहूर कवि और लेखक डॉक्टर अशोक चक्रधर से बात हुई. उन्होंने कहा कि काका जैसे हास्य कवि कभी कभी पैदा होते हैं. काका के सबसे छोटे बेटे डॉक्टर मुकेश गर्ग से भी बात करने का सौभाग्य मिला. उन्होंने काका के बारे में खूब बातें कीं. उन्होंने बताया कि वो 3 भाई और 3 बहनों में सबसे छोटे हैं.
मुकेश दिल्ली यूनिवर्सिटी में हिंदी के प्रोफेसर थे, और अब घर पर ही रिटायर्ड लाइफ गुजार रहे हैं. डॉक्टर मुकेश ने बताया कि जब काका का देहांत हुआ तो लाखों का मजमा था. लोग ना जाने कितनी कितनी दूर से काका को अंतिम विदाई देने आए थे. घर से श्मशान सिर्फ 2 किलोमीटर दूर था, मगर ये दूरी लगभग 7 घंटों में पूरी हो पाई. काका को इमरती बहुत पसंद थी, सो जगह-जगह लोग उनके पार्थिव शरीर पर इमरती की मालाएं चढ़ा रहे थे. काका की आखिरी इच्छा थी कि उनकी मौत पर कोई आंसू ना बहाए.
उनकी इस ख्वाहिश को हाथरस के युवा कवियों ने पूरा किया और श्मशान घाट में लाउडस्पीकर पे काका की तमाम हास्य रचनाओं को खुल कर गाया और लोगों को खूब हंसाया.
समाज पर उनकी खास नजर थी. हर चीज वो बहुत सूक्ष्मता से देखते थे और फिर अपनी कविता में उसको पिरो देते थे. उनकी एक कविता सुनिए और अपना सिर धुनिये. क्या खूबसूरती से कटाक्ष किया है.
नाम-रूप के भेद पर कभी किया है गौर?
नाम मिला कुछ और तो, शक्ल-अक़्ल कुछ और.
शक्ल-अक़्ल कुछ और, नैनसुख देखे काने,
बाबू सुंदरलाल बनाए ऐंचकताने.
कहंं काका कवि, दयारामजी मारें मच्छर,
विद्याधर को भैंस बराबर काला अक्षर.
मुंशी चंदालाल का तारकोल-सा रूप,
श्यामलाल का रंग है, जैसे खिलती धूप.
जैसे खिलती धूप, सजे बुश्शर्ट हैट में-
ज्ञानचंद छह बार फेल हो गए टैंथ में.
कहं ‘काका’ ज्वालाप्रसादजी बिल्कुल ठंडे,
पंडित शांतिस्वरूप चलाते देखे डंडे.
देख, अशर्फीलाल के घर में टूटी खाट,
सेठ छदम्मीलाल के मील चल रहे आठ.
मील चल रहे आठ, कर्म के मिटे न लेखे,
धनीरामजी हमने प्राय: निर्धन देखे.
कहं काका कवि, दूल्हेराम मर गए कंवारे,
बिना प्रियतमा तड़पें प्रीतमसिंह बिचारे.
सुखीरामजी अति दुखी, दुखीराम अलमस्त,
हिकमतराय हकीमजी रहें सदा अस्वस्थ.
रहें सदा अस्वस्थ, प्रभु की देखो माया,
प्रेमचंद में रत्ती-भर भी प्रेम न पाया.
कहं ‘काका’ जब व्रत-उपवासों के दिन आते,
त्यागी साहब, अन्न त्यागकार रिश्वत खाते.
1946 में उनकी पहली पुस्तक 'काका की कचहरी' प्रकाशित हुई. इस किताब में काका के अलावा भी कई हास्य कवियों की रचनाएं प्रकाशित की गईं थीं. अब तक काका हास्य कवि सम्मेलनों में जाना पहचाना नाम बन चुके थे और उनकी दाढ़ी भी उन्ही की तरह लोकप्रिय हो चुकी थी. काका ने खुद अपनी दाढ़ी के बारे में कुछ यूं लिखा है.
काका, दाढ़ी राखिए, बिन दाढ़ी मुख
ज्यों मसूरी के बिना, व्यर्थ देहरादून
व्यर्थ देहरादून, इसी से नर की शोभा
दाढ़ी से ही प्रगति कर गए, संत विनोबा
मुनि विशिष्ठ यदि दाढ़ी मुंह पर नहीं रखाते
तो क्या भगवान राम के गुरु बन जाते ?
उनके कुछ दोहे देखिए. व्यंग्य और कटाक्ष की नई नई परिभाषा बुनते थे वो अपनी कविताओं में.
अंग्रेजी से प्यार है, हिंदी से परहेज,
ऊपर से हैं इंडियन, भीतर से अंगरेज
अंतरपट में खोजिए, छिपा हुआ है खोट,
मिल जाएगी आपको, बिल्कुल सत्य रिपोट
काका की जितनी भी बात की जाए, वो कम है. हिंदी साहित्य जगत में हास्य कवि के रूप में काका का स्थान बहुत ऊंचा है. इतना ऊंचा, की आजकल के कवि जब उनकी ओर देखते हैं, तो उनकी टोपी ज़मीन पर गिर जाती है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)
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