मुंबई का मेरा एक दोस्त कौओं को खाना खिलाता है. वो कौओं को उनके नाम से पुकारता है और कौए दाना चुगने के लिए आ जुटते हैं. पंछी तो उसकी बात समझते हैं लेकिन मेरा दोस्त पंछियों की जुबान का एक लफ्ज नहीं समझता. काश! ऐसी कोई सिद्धि मुझे हासिल होती, मैं पंछियों की जुबान समझ पाती!
दंतकथाओं और मध्यकालीन साहित्य में चिड़ियों की जबान को दिव्य बताया गया है, माना गया है कि जिन पर ईश्वर की कृपा होती है सिर्फ उन्हीं से पंछी अपनी जुबान में बात करते हैं.
पक्षी, पशुओं से संवाद कायम कर लेते हैं- रैवेन यानि स्याह कौवे (रैवेन को संस्कृत में द्रोणकाक कहते हैं, यह खूब काला होता है) भेड़िये को शिकार की ओर खींच ले जाते हैं और भेड़िये के खाने से जो कुछ बच-खुच जाता है, उसे खुद खाते हैं. एक चिड़िया होती है ग्रेटर हनीगाइड. यह भालुओं को जंगल में मधुमक्खी के छत्तों की ओर खींच ले जाती है और भालुओं के खाने से जो शहद बच जाता है, उन्हें खुद खाती है.
नार्स-पुराणकथाओं (स्कैंडनेवियाई देशों में प्रचलित) में आता है कि चिड़ियों की भाषा समझना परमज्ञान की प्राप्ति का लक्षण है. ओडिन नाम के देव के पास दो स्याह कौवे थे. इनका नाम था ह्यूगिन और म्यूनिन. ये दोनों कौवे पूरी दुनिया का चक्कर लगाते और देव ओडिन को बताते कि मृत्युलोक में मनुष्यों पर क्या बीत रही है. स्वीडेन की दंतकथाओं के मशहूर राजा दाग द वाइज के पास एक गौरेया थी.
यह चिड़िया उड़ती फिरती थी और चारो तरफ से राजा के लिए खबरें जुटाकर लाती थी. इड्डा और वोल्सुंगा महागाथाओं में आता है कि 9वीं सदी के वाइकिंग वीर सिगर्ड को पंछियों की जुबान समझने की सलाहियत हासिल थी. पक्षी आपस मे बात कर रहे थे कि दुश्मनों ने राजा को मारने की साजिश रची है और यह बातचीत सुनकर सिगर्ड की जान बच गई.
यूनानी दंतकथाओं में एक योद्धा जैसन का जिक्र आता है. वह दूतकार्य के देव हर्मिज का वंशज है. यूनानी साहित्य में वर्णन आता है कि जैसन सुनहले फ्लीस (सुनहरे रोम वाले पंखदार भेड़ का चंवर) की खोज में लगा था. उसने कुछ वीरों को इकट्ठा किया. इन वीरों की कथा 3000 सालों से चली आ रही है. ये वीर अर्गो नाम के एक जहाज में सवार हुए. वीरों के इस समूह को अर्गोनॉटस् कहा गया. जैसन के जहाज का मस्तूल बलूत (ओक,एक पेड़) का बना था. यह बलूत डोडोना की एक पवित्र गुफा में उगा था और चिड़ियों की जबान समझ सकता था.
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यहूदियों के धर्मग्रंथ तालमद में आता है कि राजा सोलोमन के ज्ञान का राज भी पंछी ही थे. दरअसल राजा सोलोमन को पंछियों की जुबान समझने की सलाहियत हासिल थी. देवताओं ने उसे वरदान दिया था. यह कथा कुरान में भी चली आयी है. कुरान में जिक्र आता है कि सुलेमान और दाऊद पंछियों की जुबान समझते थे.
बारहवीं सदी के सूफी कवि अत्तार निसापुरी ने ‘पंछियों की सभा’ नाम से एक कविता लिखी है. इस कविता में आता है कि एक दफे पंछियों की बैठक हुई. इसमें दुनिया भर से पंछी जुटे, उन्हें फैसला करना था कि पंछियों का राजा कौन बनेगा. पंछियों में हुपू (माथबंधनी) चिड़िया सबसे ज्यादा बुद्धिमान थी. उसने सुझाव दिया कि क्यों ना सिमुर्ग (ईरान की पौराणिक कथाओं में इसका जिक्र आता है, इसका रिश्ता फीनिक्स पक्षी से है) खोजा जाय और सीमुर्ग से ही पूछा जाय कि राजा कौन होगा. कविता में सिमुर्ग की खोज में निकले पंछियों के सफर का जिक्र है, कविता बताती है कि इस सफर में पंछियों ने क्या सबक सीखा.
कथा-नायक को चिड़ियों की भाषा समझने की सलाहियत हासिल है और यह सलाहियत या तो उसके भीतर किसी जादू के जोर से पैदा हुई है या फिर उसके अच्छे काम से खुश होकर ईनाम के रूप में मिली है- ऐसी धारणा दुनिया की तमाम लोककथाओं में मिलती है. इसमें वेल्स, रूस, जर्मनी, एस्टोनिया, यूनान, रोम हर जगह की कथाएं शामिल हैं.
यहूदियों के कबाला ज्योतिष तथा कीमियागीरी की विद्या में आता है कि चिड़िया ‘ग्रीन लैंग्वेज’ (खग भाषा) बोलती है- यह एक गुप्त भाषा है और अपने आप में पूर्ण होती है. माना जाता है कि इस भाषा को मिस्र के एक देवता थोट ने तैयार किया था जिसका सिर पक्षी का था. मिस्रवासी चित्रलिपि को ‘ पक्षियों की वर्णमाला’ मानते थे.
अमेरिका के मूल निवासियों की कथा में स्याह कौआ एक जादुई पंछी माना गया है जो सुदूर ब्रह्मांड से संदेश लाता है. ये संदेश देश-काल की सीमा से परे हैं और कौवे के काले पंखों से बंधे होते हैं. ये संदेश सिर्फ उन्हीं को पता चलते हैं जो विशेष ज्ञान के अधिकारी हैं.
व्याकरण के इस्तेमाल की यही ताकत दरअसल भाषा का मूल धर्म है. शब्द के अर्थ को जानना पर्याप्त नहीं- उन ढांचों और नियमों को जानना जरूरी है जो शब्द को एक खास क्रम में रखना सिखाते हैं. मान्यता है कि ऐसा कर पाने की क्षमता सिर्फ मनुष्यों में है. लेकिन वैज्ञानिकों ने अब पता लगाया है कि सांगबर्ड(गुनगुन चिड़िया) में भी यही खूबी होती है.
हमारी तरह सांगबर्डस् भी अपने बड़े-बुजुर्गों की नकल करके भाषा सीखती है. लेकिन, भाषा सीखने के बाद वे इसमें तब्दीली भी करते हैं, सीखी हुई भाषा से अपने लिए नये गीत बनाते हैं और पीढियों के अन्तराल से ये नये गीत फिर नयी बोली का रुप ले लेते हैं. हमारी तरह उनका मस्तिष्क भी कई खानों में बंटा होता है, उसमें ‘बोलने की क्षमता’ से संबंधित खांचे होते हैं और इन खांचों में भाषा को गुनने-निथारने का काम होता है.
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साल 2009 में एक प्रयोग हुआ. फेहर तथा उनके सहकर्मियों ने सांगबर्ड के कुछ चूजे(ये जेब्रा फिंच प्रजाति के थे) लिये और उन्हें एक साउंडप्रूफ (ध्वनिरोधी) चैम्बर में पालना शुरू किया. चूजों को पालने का काम उस उम्र में किया गया जो उनकी भाषायी क्षमता के विकास के लिहाज से महत्वूर्ण माना जाता है. इन चूजों का पालन एक ऐसी दुनिया में हुआ जहां उनके सुनने के लिए कोई गीत ही ना था. लेकिन साउंडप्रूफ चैम्बर में पाले हुए सांगबर्ड्स जब एक जगह इकट्ठे हुए तो इन पंछियों ने अपने गीत बनाने शुरू कर दिए.
ये गीत उतने मधुर न थे जितने कि एक आम सांगबर्ड के होते हैं- इन गीतों की लय कुछ उखड़ी हुई थी, धुन बिखरी-बिखरी सी थी, गीत कुछ कुछ कर्कश जान पड़ते थे. लेकिन वक्त गुजरने के साथ इन सांगबर्ड्स के गीत जंगल में पाए जाने वाले बाकी सांगबर्ड्स की ही तरह हो गए. इसका मतलब हुआ कि सांगबर्डस को अपनी भाषा की बनावट/व्याकरण की जन्मजात क्षमता थी. जिन चूजों ने अपने बड़े-बुजुर्गों के गीत कभी सुने ना थे वे भी उन गीतों की अंदरूनी बनावट को समझ पाने की क्षमता से लैस थे.
नेचर मैगजीन में एक शोध केनटारो एबे तथा दाई वातानबी का प्रकाशित हुआ है. इसमें बेंगालिज फिन्च प्रजाति के सांगबर्ड को विषय बनाया गया है. इस प्रजाति के सांगबर्ड किसी गीत को सुनकर उसका जवाब अपने गीत से देते हैं (जिसे हम गीत कह रहे हैं वह दरअसल पंछी के संवाद की भाषा है) शोधकर्ताओं ने लगातार एक ही गीत बजाया, चिड़िया की दिलचस्पी उस गीत से जाती रही और चिड़िया ने जवाब देना बंद कर दिया. इसके बाद गीत को थोड़ा बदल दिया गया (मिसाल के लिए, ‘आप कौन हैं’ को ‘आप क्यों हैं’ में बदलना) चिड़िया ने उसे सुनकर जवाब दिया.
रिसर्चर्स (शोधकर्ताओं) ने व्याकरण के पचास नियम बनाए और इन नियमों को चिड़िया को सिखाया. इन नियमों के सहारे रिसर्चर्स ने पचास गीत बनाए. इन गीतों को चिड़िया के सामने एक घंटे तक ठीक उसी तरह दोहराया गया जैसे कोई स्कूल-टीचर किसी नये छात्र के सामने कोई सबक दोहराता है.
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इसके बाद पांच मिनट के अन्तराल से चिड़िया के सामने नये गीत बजाए गए जो या तो इन नियमों के अनुकूल थे या फिर उन नियमों को तोड़कर बनाए गए थे. चिड़िया ने नियमों के अनुकूल बने गीतों का तो जवाब दिया जबकि नियमों को तोड़कर बने गीत उसके पल्ले नहीं पड़े. जाहिर है, चिड़िया ने नए व्याकरण के नियम अपने भीतर जज्ब कर लिए थे!
व्याकरण को समझने की इस क्षमता के पीछे कौन सी जैविक ताकत काम करती है ? हमारे मस्तिष्क में ऐसे केंद्र बने हैं जो व्याकरण के असंगत पड़ने वाले वाक्यों को सुनने पर प्रतिक्रिया देने लगते हैं. दिमाग का एक खास हिस्सा जिसे ब्रोका रिजन कहा जाता है, व्याकरणिक वाक् समझ और गढ़ सकता है. वैज्ञानिकों ने सांगबर्ड्स के दिमाग में भी ऐसे केंद्र खोज निकाले हैं, ये केंद्र भी वही काम करते हैं जो मनुष्यों में ब्रोका रिजन.
जाहिर है, भाषा पंछियों के पास भी होती है मगर अफसोस कि मुझे उस भाषा को समझने का वरदान नहीं मिला!
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