वसंत या बसंत प्राचीन काल से ही कवियों का प्रिय विषय रहा है. प्रकृति और प्रेम की कविताएं लिखीं जाएं और वसंत का जिक्र न हो यह संभव नहीं है. दुनिया के लगभग सभी प्रसिद्ध कवियों के यहां वसंत पर कविता मिल जाएगी. वसंत वैसे तो 6 ऋतुओं में से एक ऋतु है लेकिन जिस तरह पूरी प्रकृति इस ऋतु में सौंदर्य के शिखर पर होती है, उस वजह से इसे ऋतुराज भी कहा जाता.
हिंदी और संस्कृत में वसंत और बसंत दोनों ही लिखे जाते हैं. दोनों ही सही हैं. इस वजह से कवियों के यहां दोनों प्रकार से लिखे गए बसंत/वसंत का प्रयोग मिलता है. महाकाव्यों और खंडकाव्यों में बारहमासा और षड्ऋतु वर्णन के तहत कवियों ने जिस ऋतु के बारे में सबसे सूक्ष्मता और विस्तार से लिखा है वह बसंत ही है.
आधुनिक कवियों ने भी चाहे किसी और ऋतु के बारे में लिखा हो या न लिखा हो पर वसंत के बारे में जरूर लिखा है.
चाहे वो कालिदास की ऋतुसंहार हो या जायसी की पद्मावत वसंत ऋतु में प्रेम और प्रकृति का उद्दाम वर्णन किया गया है. कालिदास से लेकर आधुनिक कवियों ने वसंत की प्राकृतिक सुंदरता का वर्णन तो किया ही है साथ अपने प्रिय से इस ऋतु में संयोग और वियोग की स्थितियों का भी वर्णन किया है.
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वसंत पर कई कविताएं लिखीं गई हैं. आइए पढ़ते हैं कुछ कवियों और शायरों की वसंत पर लिखी कविताएं और शायरी.
बसंत में जो भी त्योहार मनाए जाते हैं वो भले ही हिंदू त्योहार हों लेकिन बसंत मुस्लिम कवियों के लिए भी आकर्षण का विषय रहा है. अमीर खुसरो अपने ख्वाजा के साथ बसंत में होली खेलने की बात करते हैं:
हजरत ख्वाजा संग खेलिए धमाल, बाइस ख्वाजा मिल बन बन आयो
तामें हजरत रसूल साहब जमाल. हजरत ख्वाजा संग...
अरब यार तेरो (तोरी) बसंत मनायो, सदा रखिए लाल गुलाल.
हजरत ख्वाजा संग खेलिए धमाल.
इसी तरह हिंदुओं और मुसलमानों के हर त्योहार पर शायरी लिखने वाले नजीर अकबराबादी ने भी बसंत कैसा हो, इसे कुछ इस अंदाज में बयां किया है:
आलम में जब बहार की लंगत हो
दिल को नहीं लगन ही मजे की लंगत हो
महबूब दिलबरों से निगह की लड़ंत हो
इशरत हो सुख हो ऐश हो और जी निश्चिंत हो
जब देखिए बसंत कि कैसी बसंत हो
अव्वल तो जाफरां से मकां जर्द जर्द हो
सहरा ओ बागो अहले जहां जर्द जर्द हो
जोड़े बसंतियों से निहां जर्द जर्द हो
इकदम तो सब जमीनो जमां जर्द जर्द हो
जब देखिए बसंत तो कैसी बसंत हो
मैदां हो सब्ज साफ चमकती रेत हो
साकी भी अपने जाम सुराही समेत हो
कोई नशे में मस्त हो कोई सचेत हो
दिलबर गले लिपटते हों सरसों का खेत हो
जब देखिए बसंत तो कैसी बसंत हो
वसंत नवजीवन और उल्लास का भी प्रतीक है. इस वजह से कई जगह इसे क्रांति और बदलाव के रूप में भी लिया गया है. स्वतंत्रता आंदोलन के वक्त वसंत को इसी बदलाव के रूप में देखते हुए सुभद्रा कुमारी चौहान ने ‘वीरों का कैसा हो वसंत’ नामक कविता में लिखती हैं:
फूली सरसों ने दिया रंग
मधु लेकर आ पहुंचा अनंग
वधु वसुधा पुलकित अंग अंग;
है वीर देश में किंतु कंत
वीरों का कैसा हो वसंत
छायावादियों कवि अपने प्रकृति वर्णन के लिए जाने जाते हैं. इस दौर के सबसे बड़े कवि निराला ने ‘सखि वसंत आया’ में वसंत ऋतु में प्रकृति की सुंदरता का वर्णन कुछ इस अंदाज में किया है:
सखि वसंत आया.
भरा हर्ष वन के मन,
नवोत्कर्ष छाया.
किसलय-वसना नव-वय-लतिका
मिली मधुर प्रिय-उर तरु-पतिका,
मधुप-वृंद बंदी-
पिक-स्वर नभ सरसाया.
छायावाद के बाद प्रगतिवाद का दौर आया. इस दौर में वसंत को कृषक और ग्रामीण जीवन से जोड़कर देखा गया है. केदारनाथ अग्रवाल की कविता ‘बसंती हवा’ आज भी काफी लोकप्रिय है. इस कविता की सबसे बड़ी विशेषता इसकी लय है.
हवा हूं, हवा मैं
बसंती हवा हूं!
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चढ़ी पेड़ महुआ,
थपाथप मचाया;
गिरी धम्म से फिर,
चढ़ी आम ऊपर,
उसे भी झकोरा,
किया कान में 'कू',
उतरकर भगी मैं,
हरे खेत पहुंची -
वहां, गेंहुंओं में
लहर खूब मारी.
पहर दो पहर क्या,
अनेकों पहर तक
इसी में रही मैं!
खड़ी देख अलसी
लिए शीश कलसी,
मुझे खूब सूझी -
हिलाया-झुलाया
गिरी पर न कलसी!
इसी हार को पा,
हिलाई न सरसों,
झुलाई न सरसों,
हवा हूं, हवा मैं
बसंती हवा हूं!
बसंत की हवा ही नहीं बल्कि इसकी धूप भी काफी सुकून देने वाली होती है. निदा फाज़ली बसंत की धूप के बारे में लिखते हैं:
अच्छी संगत बैठकर, संगी बदले रूप
जैसे मिलकर आम से मीठी हो गई धूप
वसंत एक ऐसा मौसम है जो किसी प्रिय की याद भी दिलाता है और विरह की वेदना को भी जगाता है. रघुवीर सहाय लिखते हैं:
वही आदर्श मौसम
और मन में कुछ टूटता-सा:
अनुभव से जानता हूं कि यह वसंत है
दिनेश कुमार शुक्ल भी कुछ इस अंदाज में लिखते हैं:
रंग-बिरंगे फूल
भावना की सुवास है
हफ्ते भर का है वसंत
फरवरी मास है
इतने बरसों बाद
तुम्हारा दो दिन का दिल्ली प्रवास है
सच बतलाना
एक दूसरे के वियोग में
हममें तुममें
क्या कोई सचमुच उदास है
इसी तरह के कुछ भाव प्रसिद्ध और लोकप्रिय कवि गोपालदास नीरज भी अपनी कविता ‘बसंत की रात’ में प्रकट करते हैं. इस कविता में अपने प्रिय से रुकने का अनुरोध है:
आज बसंत की रात,
गमन की बात न करना!
धूप बिछाए फूल-बिछौना,
बगिय़ा पहने चांदी-सोना,
कलियां फेंके जादू-टोना,
महक उठे सब पात,
हवन की बात न करना!
आज बसंत की रात,
गमन की बात न करना!
बौराई अंबवा की डाली,
गदराई गेहूं की बाली,
सरसों खड़ी बजाए ताली,
झूम रहे जल-पात,
शयन की बात न करना!
आज बसंत की रात,
गमन की बात न करना.
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