31 जुलाई 1969 को वर्दीधारी सिपाहियों ने पश्चिम बंगाल विधान सभा कक्ष में घुस कर जिस तरह का तांडव मचाया, वह न भूतो न भविष्यति !
मंत्री विश्वनाथ मुखर्जी और कई विधायक उस दिन सदन के भीतर उन पुलिसकर्मियों के गुस्से के शिकार हुए. दो दिन पहले चैबीस परगना जिले के एक थाने में घुस कर राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने एक सिपाही को मार डाला था. अपने एक सहकर्मी की निर्मम हत्या के बाद सिपाहीगण गुस्से में आपे से बाहर हो गए थे.
क्या हुआ था इस दिन?
उस दिन एक तरफ नई दिल्ली में अमेरिका के राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के आगमन पर स्वागत समारोह हो रहे थे. दूसरी ओर कोलकाता में लोकतांत्रिक इतिहास का सर्वाधिक घिनौना दृश्य उपस्थित हो रहा था.
उन दिनों पश्चिम बंगाल में अजय मुखर्जी के नेतृत्व में मिली-जुली गैर कांग्रेसी सरकार थी. ज्योति बसु उप मुख्यमंत्री थे. होम मिनिस्ट्री भी उपमुख्यमंत्री के पास ही थी. करीब साढ़े चार बजे का समय था. विधान सभा की बैठक चल रही थी.
पुलिसकर्मियों की उग्र जमात ने प्रेस गैलरी से होते हुए सभा कक्ष में प्रवेश किया. बौखलाहट से भरे सिपाहियों के हाथों में जो कुछ भी आया, उसे वे तोड़ते -फोड़ते गए. कुर्सियां, मेज, फूलदान, तस्वीरें उनके पांव तले रौंदी जा रही थीं. चारों तरफ आतंक का साम्राज्य छा गया. विधायक और मंत्री बचने के लिए जगह ढूंढ़ने में लग गए.
क्यों असहाय थे विधायक?
स्थिति की गम्भीरता को देखते हुए सभा अध्यक्ष विनय बनर्जी ने सदन की बैठक स्थगित कर दी. जब सदन में पुलिसमैन मारधाड़ की रौ में थे तब एक तरफ खड़े आहत विधायक खुद को असहाय पा रहे थे.
गाली-गलौज करते कुछ पुलिसकर्मी ज्योति बसु के कमरे में घुस गए. वे लोग इंकलाब जिंदाबाद, ज्योति बसु मुर्दाबाद के नारे लगाने लगे. पुलिसकर्मियों ने 40 माइक्रोफोन, कई टेबल, आधिकारिक पत्र और फाइलें फाड़ दीं.
इस घटना के बाद जब सदन की बैठक फिर से शुरू हुई तो सदन का बदला स्वरूप देख कर सदस्यों को शर्म का अहसास हो रहा था.
ज्योति बसु ने पुलिसकर्मियों की इस कार्रवाई को शर्मनाक बताया और यह भी कहा कि ऐसा करने वाले अपराधियों को कभी बख्शा नहीं जाएगा. उनके खिलाफ सख्त कदम उठाए जाएंगे.
मुख्यमंत्री क्यों रहे तटस्थ?
इस उत्तेजक घटना के बावजूद मुख्यमंत्री अजय मुखर्जी ने तटस्थता का रवैया अपनाया. वह चुप्पी साधे रहे. अपने कमरे में बने रहे. हालांकि पुलिसकर्मियों ने मुख्यमंत्री के कमरे के दरवाजे पर भी दस्तक दी थी.
दरअसल पुलिसकर्मियों का गुस्सा ज्योति बसु पर अधिक था. शायद उन्हें लगता था कि जिन राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने थाने में एक पुलिसकर्मी को मारा उनको ज्योति बसु का समर्थन हासिल था. उधर अजय मुखर्जी और ज्योति बसु के बीच राजनीतिक तनाव जारी था.
गांधीवादी अजय मुखर्जी बंगला कांग्रेस के नेता थे. दूसरी ओर माकपा तो गांधी वादी है नहीं. नतीजतन अजय मुखर्जी का ज्योति बसु से अधिक दिनों तक नहीं निभा. खैर एक बार फिर उस घटना पर आएं.
पुलिस के गुस्से की क्या थी वजह?
पुलिसकर्मियों के उस उग्र रवैए और भारी गुस्से का कुछ वाजिब कारण भी था. 29 जुलाई को बासंती पुलिस थाने के अंदर कुछ राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने जब पुलिसकर्मी शंकर दास शर्मा को मारा तो पुलिसकर्मियों का गुस्सा स्वाभाविक ही था. संभवतः वह अपने ढंग की पहली घटना थी.
गुस्सा तब और बढ़ गया जब पुलिसकर्मियों ने एसपी से मृतक की लाश मांगी और एस.पी.ने कहा कि लाश पांच बजे मिलेगी. इस पर पुलिसकर्मियों ने एस.पी.के कमरे पर भी धावा बोल दिया.
कुर्सियां तोड़ी और कागज फाड़े. घबराए एसपी ने पीछे के कमरे में शरण ले ली. बाद में लाश उन्हें मिल गयी और लाश के साथ पुलिसकर्मी विधान सभा भवन की ओर चल पड़े थे.
उस उग्र भीड़ को रोक पाना विधानसभा भवन की पहरेदारी कर रहे सुरक्षाकर्मियों के लिए संभव नहीं हो सका था. बाद में पुलिसकर्मियों ने ज्योति बसु से मिलकर उत्तेजना में हुए उस घटना पर अफसोस जाहिर करना चाहा, पर ज्योति बसु ने साफ मना कर दिया.
क्या हुआ पुलिसकर्मियों के साथ?
पश्चिम बंगाल सरकार ने 11 पुलिसकर्मियों को बर्खास्त कर दिया. साथ ही 24 परगना के एसपी गंगाधर मुखर्जी का तबादला कर दिया. इस घटना पर ज्योति बसु ने विधानसभा में कहा कि इस घटना को इतिहास में काले धब्बे के रूप में याद किया जाएगा.
उसके बाद ही बिहार में राज्य सरकार ने 1970 में पुलिकर्मियों को संघ गठित करने की अनुमति प्रदान की. उन दिनों बिहार के मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर और पुलिस मंत्री रामानंद तिवारी थे.
बिहार में संघ बनाने की अनुमति देने के पीछे एक तर्क यह भी था कि संघ के जरिए पुलिसकर्मी अपनी समस्याओं को सरकार के सामने बेहतर ढंग से रख सकेंगे.
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