15 अगस्त 2018 को भारत की आज़ादी के 71 साल पूरे हो रहे हैं. इसके साथ ही भारत-पाकिस्तान के बंटवारे की त्रासदी के भी 71 साल होंगे. भारत का विभाजन मानव इतिहास के सबसे बड़े विस्थापनों में से एक है जिसने एक करोड़ से ज्यादा लोगों को सीधे प्रभावित किया इसके अलावा इससे अलग-अलग तरह से चपेट में आने वालों की कमी नहीं है. इस विस्थापन ने हमारी जीवन शैली, समाज और खाने पीने पर भी असर डाला. आज की पीढ़ी को कई चीज़ें सामान्य लगती होंगी लेकिन असल में उनपर बंटवारे की सीधी या अप्रत्यक्ष छाप है. बात करते हैं आपकी थाली पर पड़े बंटवारे के असर की.
तंदूर और पनीर की तानाशाही
फूड हिस्टोरियन पुष्पेश पंत कहते हैं कि सन् 47 के बाद दिल्ली और उसके आसपास पनीर की तानाशाही का युग शुरू हुआ. यह बात सही भी है. दरअसल 1947 से पहले तंदूर उत्तर भारत या दिल्ली में कोई आम चीज़ नहीं थी. यह काबुल और पेशावर की परंपरा थी. बंटवारे के समय उस तरफ से बड़ी संख्या में शरणार्थी आए. इन कॉलोनियों के आसपास रोटी की खपत को पूरा करने के लिए तंदूर लगे. ये तंदूर एक साथ दर्जन भर रोटियां दे सकते थे. देखते ही देखते उत्तर भारत के तमाम ढाबों वगैरह में तंदूर एक अहम हिस्सा बन गया.
जब तंदूर आया तो उसमें रोटियों के साथ-साथ तंदूरी कुक्कड़ (रोस्टेड चिकन) भी पका. पेशावर के कुंदन लाल गुजराल ने दिल्ली के दरियागंज में मोती महल नाम से एक रेस्त्रां खोला. इसमें शाम को बच गए तंदूरी चिकन को अगले दिन इस्तेमाल करने के लिए एक नया तरीका निकाला गया. गुजराल परिवार का दावा है कि तंदूरी चिकन को बटर चिकन में पहली बार परिवर्तित कुंदनलाल गुजराल ने ही किया था. बटर चिकन खूब लोकप्रिय हुआ और दुनिया भर में हिंदुस्तान की पहचान बन गया. इसके पीछे एक कारण यह भी था कि बाकी मांसाहार से अलग बटर चिकन तीखा नहीं होता है.
बटर चिकन और उसके साथ शराब को पंजाब से आए शरणार्थियों से जोड़ दिया गया. जबकि हकीकत में 2014 के सैंपल सर्वे के मुताबिक पंजाब देश का तीसरा सबसे ज्यादा शाकाहारी आबादी (लगभग 67%) वाल राज्य है. वहीं पंजाब शराब पीने के मामले में भी 28वें नंबर पर है. अगर आपको ये वास्तविकता समझ न आ रही हो तो दूसरे तरह से समझिए. यूरोप में भारतीय खाने में नान परोसी जाती है. ज्यादातर विदेशियों को लगता है कि हम भारतीय खाने में दाल और सब्ज़ी के साथ नान खाते हैं. जबकि हकीकत इससे उलट है.
तंदूर ने मांसाहारियों का तो काम चला दिया, लेकिन घर से बाहर खाने की तलाश में निकले शाकाहारियों के लिए भी कुछ चाहिए था. यहां कहानी में पनीर की आमद होती है. बटर चिकन की ग्रेवी में चिकन हटाकर पनीर डाल दीजिए और शाही पनीर बन जाएगा. इस पनीरीकरण ने उत्तर भारत की हर चीज़ में पनीर डाल दिया. जहां किसी मांसाहारी डिश का निरामिष विकल्प चाहिए हो, उसे पनीर के साथ बना दो. इसके साथ ही देखते ही देखते पंजाबी खाने से दाल मखनी भी लोकप्रिय हो गई. फलाना वाला पनीर, मिक्स वेज और दाल मखनी की तिकड़ी ने बड़ी मात्रा में स्थानीय तरकारियों, मौसमी सब्ज़ियों को लो प्रोफाइल बनाकर बाहर कर दिया.
सिंध का पापड़, बंगाल की झालमूड़ी
ऐसा नहीं है कि बंटवारे के बाद सिर्फ पंजाब से ही हमें कुछ मिला हो. विभाजन का दंश झेलने वाले समुदायों में सिंधी और मुल्तानी भी प्रमुख हैं. सिंधियों ने उत्तर भारत में पापड़ों के कई तरह की खेप लोकप्रिय कीं. चावल वगैरह के बिल्कुल फीके से पापड़ों से इतर दाल के बने हुए मसालेदार पापड़ आज पूरे भारत का हिस्सा हैं. सिंधियों की तरह ही पूर्वी बंगाल से विस्थापित हुए बंगालियों ने एक चीज़ सबसे ज्यादा लोकप्रिय बनाई. झालमूड़ी आज हर जगह मिल जाएगी. हालांकि उत्तर भारत में जो झालमूड़ी के नाम पर मिलता है उसमें तीखे सरसों के तेल की कोई जगह नहीं होती. इसके साथ-साथ चिप्स या कॉर्न फ्लेक्स के टुकड़े भी इसे पारंपरिक झालमूड़ी से अलग कर देते हैं.
वैसे पूर्वी बंगाल या बांग्लादेश बनने के बाद बंगाल के खाने में भी काफी असर पड़ा. बंगाल में दो तरह के बंगाली (हिंदू ही) होते हैं. एक घोटी कहे जाते हैं और दूसरे बांगाल. इन दोनों में बांग्ला बोलने के तरीके (डायलेक्ट) और खाना पकाने के ढंग में काफी अंतर हैं. दोनों एक दूसरे को ठीक वैसे ही देखते हैं जैसे मोहन बागान वाले ईस्ट बंगाल वालों को. इसके बाद भी एक आम धारणा है कि बांगाल खाना घोटी खाने से ज्यादा स्वादिष्ट और विविधतापूर्ण होता है. तमाम बांगाल यह दावा करते मिल जाते हैं कि मछली बनाने का असली हुनर उनके ही पास होता है.
बंटवारे के बाद पूर्वी बंगाल में बांगाल लोगों का सारा हिस्सा चला गया. खील, लाई या चिवड़े की बनीं अलग-अलग मिठाइयां कम हो गईं. हिलसा मछली मिलना मुश्किल हुआ और 'उस पार' की हिल्सा (पद्मा नदी की) दुर्लभ और बेहद महंगी (आज के समय में 2000 रुपए किलो तक) हो गई. इसी तरह से एक समय तक बंगाल में हिंदू बतख के अंडे इस्तेमाल करते थे. मुर्गी के अंडे मुस्लिम परिवारों तक सीमित थे. बंटवारे के बाद धीरे-धीरे करके यह बंटवारा खत्म हो गया. क्योंकि पूर्वी बंगाल से आए लोगों को उत्तर भारत में बतख के अंडे मिलना लगभग असंभव थे.
मुंबई की चटपटी शाम
बंटवारे का एक असर मुंबई पर भी पड़ा. कराची की तरफ से आए सिंधियों ने मुंबई में भेलपूरी और तमाम तरह के स्नैक्स का काम शुरू किया. जुहु चौपाटी और मरीन ड्राइव जैसी जगहों पर आज जो शाम की रौनक है उसमें विस्थापितों की एक खास जगह है. बंटवारे ने जहां हिंदुस्तान में बहुत सारी चीजों को बदला वहीं बहुत कुछ उस पार भी बदल गया. मसलन मेरठ का रटौल आम पाकिस्तान जाकर अनवरी रटौल हो गया. पाकिस्तान और हिंदुस्तान में इस आम की मिल्कियत को लेकर लंबी लड़ाई चलती रही है. इसी तरह चिलगोज़े और हींग के बड़े ठिकाने हम से दूर हो गए.
एक मशहूर नज़्म है, 'बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी...' बंटवारे की बात ने हमें जहां कई नए स्वाद दिए तो वहीं बहुत कुछ हमसे छीन भी लिए. आज की तारीख में आप दिल्ली में मुतंजन पुलाव, गोला कबाब जैसी चीज़ें तलाशेंगे तो कहीं नहीं मिलेंगी. दाल मखनी का स्वाद तो मिलेगा लेकिन सब्ज़ियों के नाम पर ज़्यादातर जगह मिक्स वेज ही पकड़ा दिया जाएगा. कुछ समय और गुज़रेगा तो ये सारी चीज़ें हमारे लिए बिलकुल सामान्य हो जाएंगी. जैसे आज हम चाय, मिर्च या आलू जैसी चीजों को विदेशी या बाहर से आया हुआ मान ही नहीं पाते हैं. यही जीवन है, यही प्रकृति है जो हमेशा बदलती रहती है.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)
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