साल 2017 को समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष और यूपी के पूर्व सीएम अखिलेश यादव शायद ही अगले पांच सालों तक भुला सकें. इस साल उन्हें पार्टी की सत्ता तो मिली लेकिन यूपी की सत्ता से बेदखल भी होना पड़ गया. साल 2012 में पिता मुलायम सिंह से जब राजनीति की विरासत मिली तो सिर पर यूपी का ताज भी सजा. चार साल वसंत की हवा के झोंके की तरह गुजर गए. लेकिन पांचवें साल का एक-एक दिन पतझड़ से कम नहीं था.क्योंकि पार्टी पर पकड़ को लेकर परिवार में वॉर छिड़ गया.
चाचा-भतीजे की जंग में जुबानी तलवारें म्यान से निकल पड़ीं. यादव कुनबे का घमासान किसी टीवी के रिएलिटी शो की तरह हर दिन नए ट्विस्ट लेने लगा. चाचा शिवपाल और भतीजे अखिलेश के बीच मंच पर माइक की छीना झपटी नए समाजवाद की गवाही दे रहा था. मौके पर मौजूद मुलायम सिंह पार्टी के चीरहरण को भीष्म पितामह की तरह देखने को मजबूर थे. बस यहां एक फर्क इतना भर था कि लोग न सिर्फ उनका नाम ले कर दांव चल रहे थे बल्कि उनको ही दांव पर लगाया भी हुआ था. आखिर रस्साकशी में मुलायम टूट गए. अखिलेश को जिस पिता ने तमाम विरोधों के बावजूद यूपी का ताज दिया था वही पिता पांच साल बाद बेटे के लिए कुछ यूं मायूस हो चुका था.
बेटे के हठयोग से उनका दिल टूटा तो बोल फूट पड़े कि 'जो बाप का नहीं हुआ तो वो किसी का क्या होगा'. बाप के ये बोल किसी भी बेटे के अंतर्मन को झकझोरने के लिए काफी हो सकते हैं.
लेकिन अखिलेश ये जानते थे कि यहां चूके तो सब हाथ से निकल जाएगा. वो इमोशनल होने की बजाए प्रैक्टिकल रहे और आखिकार साइकिल पर बैठकर अपनी पार्टी ले उड़े और शिवपाल हाथ मलते रह गए. अखिलेश ये जानते थे कि पिता के विरोध के पीछे पिता का आशीर्वाद भी छिपा हुआ है. पिता का आशीर्वाद नहीं होता तो अखिलेश को समाजवादी पार्टी पूरी तरह नहीं मिलती. केवल एक हिस्सा ही हाथ आता. नेताजी ने परिवार के बुजुर्ग की तरह पार्टी को टूटने नहीं दिया. उनके फैसले के आगे शिवपाल भी नतमस्तक रहे और चुनाव के आखिर तक अपनी बारी का इंतजार ही करते रह गए.
पार्टी की उठापटक के बाद ही विधानसभा चुनाव भी आ गए. ये चुनाव ही अखिलेश की अग्निपरीक्षा भी थे. अखिलेश ने पिता से हटकर फैसले लिए. कांग्रेस के साथ चुनावी गठबंधन किया. राहुल की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया. इस गठबंधन के पीछे कहीं न कहीं चाचा शिवपाल की बगावत का भी डर छुपा हुआ था. अखिलेश को उम्मीद थी कि अगर कहीं चुनाव में चाचा शिवपाल भीतरघात करें तो कांग्रेस का हाथ संभाल लेगा. लेकिन यूपी को ये साथ पसंद नहीं आया और न ही पारिवार के इमोशनल ड्रामे से अखिलेश को लेकर जनता में कोई सहानुभूति उमड़ सकी. नतीजतन समाजवादी पार्टी का टीपू जंग हार गया. हाथ से सत्ता चली गई. चुनावी नतीजों ने समाजवादी पार्टी को कई साल पीछे धकेल दिया.
अब अखिलेश समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष के तौर पर भविष्य की तरफ निहार रहे हैं. पहले पारिवारिक कलह और फिर चुनावी हार ने उन्हें अकेला कर दिया है. मुलायम पुत्रमोह में आज भी अखिलेश के साथ हैं तो शिवपाल आज भी बड़े भाई के कर्जदार हैं. अब अखिलेश यादव का मतलब ही समाजवादी पार्टी है. मुलायम केवल संस्थापक और मार्गदर्शक रह गए हैं और अखिलेश ही अब पार्टी का वर्तमान और भविष्य हैं.
अखिलेश के लिए भले ही साल 2017 सत्ता गंवाने का गवाह बना लेकिन उनका असली राजनीति उदय भी इसी साल हुआ. रैलियों में उनके बोलने का अंदाज हो या फिर मीडिया से बात करने का स्टाइल उन्हें समाजवादी पार्टी में एकदम अलग बनाता है. पहले सत्ता की राजनीति सीखी तो अब विपक्ष की राजनीति सीख रहे हैं. अखिलेश भले ही चुनाव हार गए लेकिन वो पिता से अलग हटकर अपनी पहचान बनाने में कामयाब रहे हैं. अखिलेश के समाजवाद में पिता की तरह सेक्युलर के नाम पर कम्युनल कलर नहीं दिखा है अबतक. शायद उनकी यही खासियत भविष्य में उन्हें बड़ा युवा नेता तैयार करने में मदद करे.
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