18 जून, 1576 को मेवाड़ रियासत में हल्दीघाटी का विश्व प्रसिद्ध युद्ध हुआ. इतिहास की किताबों में अब तक इसके बारे में जो जानकारी मिलती रही है, वो ये है कि जयपुर नरेश मानसिंह कच्छावा के सेनापतित्व में मुगल सेना मेवाड़ की सेना पर भारी पड़ी थी. अपने घोड़े चेतक के घायल होने के बाद महाराणा युद्धभूमि से निकल गए. हालांकि 1596-97 में महाराणा की मृत्यु तक मुग़ल और मेवाड़ सेना में गुरिल्ला युद्ध चलता रहा.
450 साल बाद राजस्थान में बीजेपी सरकार ने अब बताया है कि वो तो किसी को पता ही नहीं जो वास्तव में हल्दीघाटी में हुआ. पहले बीजेपी विधायक मोहन लाल गुप्ता ने ये मामला उठाया. बाद में शिक्षा मंत्री वासुदेव देवनानी ने भी हालिया रिसर्च को अपने दावों का आधार बनाकर बयान दिया. इसके बाद माध्यमिक शिक्षा बोर्ड और राजस्थान यूनिवर्सिटी ने सिलेबस में बदलाव कर हल्दीघाटी युद्ध के नतीजे को बदल दिया.
450 साल बाद जीत गए महाराणा प्रताप !
राजस्थान में अब स्कूल से लेकर यूनिवर्सिटी के छात्र तक प्रोफेसर चंद्रशेखर शर्मा की रिसर्च और प्रोफेसर के एस गुप्ता की किताबों में दर्ज तथ्यों को पढ़ेंगे. प्रोफेसर शर्मा के मुताबिक 1576-78 के दान पत्र और अभिलेखीय साक्ष्यों में दर्ज है कि हल्दीघाटी युद्ध के बाद भी मेवाड़ इलाके में भूमि दान महाराणा प्रताप ही कर रहे थे. चूंकि भू-दान का अधिकार राजा के पास ही होता था, इसलिए सिसोदिया वंशी प्रताप को ही राजा माना जाना चाहिए.
इसी तरह से बताया गया है कि 18 जून, 1576 (हल्दीघाटी युद्ध का दिन) के बाद भी यहां वही सिक्के चल रहे थे जिन पर महाराणा प्रताप की मुहर थी न कि अकबर की. प्रोफेसर शर्मा के मुताबिक अगर प्रताप हार गए होते तो उनके नाम के सिक्कों और भू दान पत्रों की जगह अकबर के नाम का खुतबा पढ़ा जाता.
शर्मा ये सवाल भी उठाते हैं कि अगर मुग़ल सेना जीती होती तो मान सिंह और आसिफ खान को छह महीने तक दरबार से बाहर रहने की सजा क्यों दी जाती और क्यों 1576 के बाद भी मेवाड़ में बार बार सैन्य अभियान किए जाते?
क्या अब तक का इतिहास झूठ था ?
दावा किया जा रहा है कि अब तक इतिहास के नाम पर जो कुछ पढ़ा या पढ़ाया जाता रहा है वह सच नहीं है. इसमें कोई शक नहीं कि इतिहास लेखन में दक्षिणपंथ बनाम वामपंथ का मुद्दा एक बार फिर सतह पर आ गया है.
यूं तो विचारधाराओं के बीच ये लड़ाई 1947 से पहले से ही चली आ रही है लेकिन मोदी सरकार आने के बाद ऐसे मामले अधिक उभर रहे हैं. फिर चाहे गुजरात-हरियाणा में दीनानाथ बत्रा की किताबें सिलेबस में शामिल करनी हों, राजस्थान की सरकारी किताबों में जवाहर लाल नेहरू को दरकिनार करना और वीर सावरकर को अधिक तवज्जो देना हो या फिर नई दिल्ली में औरंगजेब रोड का नाम बदलने से उपजा विवाद हो.
क्या ये दक्षिणपंथ और वामपंथ का युद्ध है ?
पूरा मसला राष्ट्रवादी इतिहास बनाम परंपरागत इतिहास लेखन से जुड़ता नजर आ रहा है. राष्ट्रवादी इतिहासकारों का आरोप है कि आज़ादी के बाद कांग्रेस सरकारें इतिहास लेखन का काम वामपंथी इतिहासकारों को सौंपती रही हैं. चूंकि वामपंथ में राष्ट्र के बजाय वर्गीय संकल्पना पर जोर दिया जाता है इसलिए राष्ट्रवादियों का आरोप है कि इतिहास को 'भारतीयता' से दूर रखा गया है.
दक्षिणपंथी नेता प्राचीन भारत को स्वर्ण युग और मध्यकाल को अंधकार का युग घोषित करते आए हैं क्योंकि मध्यकाल में 1192 ईस्वी के बाद लगभग 650 वर्ष तक मुस्लिम शासन रहा था. यहां तक कि 1857 में अंग्रेजों के सामने मुग़ल शासन के खात्मे को "लंबी काल रात्रि के बाद स्वर्णिम भोर" की संज्ञा भी दी गई.
हालांकि आजादी के पहले ये अंग्रेजों की चाल थी कि उन्होने भारतीय इतिहास को हिंदू काल और मुस्लिम काल में बांटकर साम्प्रदायिक रंग दिया. मध्यकाल को मुस्लिम अत्याचार का काल दिखाकर वे फूट डालो-राज करो की नीति पर चल रहे थे. लेकिन आज़ादी के बाद भी ये बहस बनी रही.
अब केंद्रीय सत्ता में आने के बाद संघ परिवार से जुड़े संगठन इतिहास को फिर से लिखने की मांग कर रहे हैं. हाल ही में राजस्थान में ही अकबर के नाम से महान शब्द हटा दिया गया. केंद्रीय गृहमंत्री ने भी कहा कि महान प्रताप थे न कि साम्राज्यवादी अकबर.
हो सकता है कि वामपंथी इतिहासकार पूर्णत: सही न हों परंतु क्या वास्तव में अकबर, टीपू सुल्तान या मुहम्मद बिन तुगलक एकदम नाकारा थे? अकबर की धर्मनिरपेक्षता और सर्वधर्म समभाव वाली सुलह-ए-कुल की नीति लगभग वही थी जो भारत में सदियों से चलती आ रही है.
यही अशोक महान की नीति थी और यही आज भी हमारी आंतरिक और विदेश नीति में बनी हुई है. मुहम्मद बिन तुगलक को विरोधाभासों का संगम जरूर कहा जाता है परंतु उसके दरबार में कट्टरपंथियों को नहीं प्रतिभावानों को जगह दी जाती थी. उसके विचार इतने महान थे कि अगर अधिकारी उन्हें पूरी तरह लागू कर पाते तो शायद इतिहास कुछ और होता जैसे कि मुद्रा परिवर्तन. यह ठीक वैसा ही था जैसा प्रधानमंत्री मोदी का डिमोनिटाइजेशन.
इसी तरह टीपू सुल्तान ने उस श्रृंगेरी मंदिर के लिए धन दिया जिसे मराठों ने तहस नहस कर दिया था. यही नहीं, टीपू अपने दौर का अकेला शासक था जिसने अपनी विदेश नीति बनाई थी. टीपू ने अंग्रेजों के खिलाफ अरब, ग्रीस और फ्रांस के साथ मोर्चा बनाने की कोशिश की थी. जबकि उस समय इतनी गहरी कूटनीति की समझ अंग्रेजों में भी नहीं थी.
ऐसे में केवल विचारधारा के नाम पर इतिहास को बदल देना या मुसलमानों को बाहरी हमलावर करार देना और दूसरे धर्मावलंबियों के अच्छे कामों को भी नकारने की कोशिश कहां तक सही कही जाएगी?
समझना होगा कि देश में जो लगभग 14% मुस्लिम आबादी है वह भी है तो भारतीय ही. आक्रांताओं के रूप में तो मध्य एशिया से कुछ मुट्ठी भर 'म्लेच्छ' ही भारत आए थे. इसमें आज के मुसलमानों का कोई दोष नहीं क्योंकि उनके पूर्वज तो भारतीय ही थे.
इतिहास को छद्म राष्ट्रवाद के नाम पर बदलने और धर्मों के बीच खाई चौड़ी करने की नीति के कारण ही वर्ग विशेष में राज्य क्षेत्रातीत निष्ठा (Extra Territorial Loyalty) होती है. जबकि बढ़ते आतंकवाद और वैमनस्य के दौर में आज सुलह-ए-कुल की नीति पर चलने की ज्यादा जरूरत है.
युवाओं को कट्टरपंथ की तरफ बढ़ने से रोकने के लिए हमें 'विचार आधारित लेखन' के बजाय 'लेखन आधारित विचार' बनाने की जरूरत है. वैसे भी इतिहास लेखन तो तथ्यों और साक्ष्यों पर आधारित वह विधा है जिसे भारतीयों में अकेले इतिहासज्ञ कहे गए कश्मीर के कल्हण ने इन शब्दों में परिभाषित किया है-
श्लाध्य स एव गुणवान, रागद्वेष बहिष्कृत: ।
भूतार्थ कथने यस्य, स्थेयस्येव सरस्वती ॥
(सरल शब्दों में, श्रेष्ठ लेखक वही है जो अपनी लेखनी मे तथ्यों व स्रोतों का समावेश करता है और रागद्वेष से रहित होकर लिखता है)
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