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आरजी हुकूमत आजाद हिंद की 75वीं वर्षगांठ: नेताजी सुभाष चंद्र बोस के बारे में झूठा ज्ञान लेने से पहले सच जान लीजिए

एक आम भारतीय से आप पूछिए कि वो सुभाष बाबू के बारे में क्या जानता है? तो आपको कुछ गिने चुने उत्तर मिलेंगे. जैसे कि उन्होंने भारतीय प्रशासनिक सेवा को उत्तीर्ण कर छोड़ दिया था, गांधी जी से वैचारिक मतभेद के चलते उन्होंने कांग्रेस से इस्तीफा दिया

Updated On: Oct 21, 2018 09:58 AM IST

Saqib Salim

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आरजी हुकूमत आजाद हिंद की 75वीं वर्षगांठ: नेताजी सुभाष चंद्र बोस के बारे में झूठा ज्ञान लेने से पहले सच जान लीजिए

वर्तमान में जबकि इतिहास पुस्तकों से ज्यादा वॉट्सएप, फेसबुक और झूठ-सच लिखने वाली वेबसाइट द्वारा पढ़ाया जाने लगा है, तो हमने अपनी आजादी की लड़ाई के महानायकों को भी आज की सियासत में बांट लिया है. आप किसी भी राह चलते व्यक्ति से पूछ लीजिए, उसे यह भी नहीं पता होगा कि सुभाष चंद्र बोस ओडिशा में पैदा हुए थे, या कि वो 11 बार जेल गए थे लेकिन यह वो आपको जरूर बता देगा कि गांधी जी और सुभाष एक-दूसरे के कट्टर विरोधी थे. उनके अनुसार जवाहर लाल नेहरू कांग्रेसी थे और कांग्रेस के अध्यक्ष रहे सुभाष, वल्लभभाई पटेल आदि बीजेपी के थे. यह अलग बात है कि तब बीजेपी तो छोड़िए जनसंघ का भी अस्तित्व नहीं था.

ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि हम इन महानायकों को ऐतिहासिक परिपेक्ष में देखें और समझें, न कि वॉट्सएप के जरिए.

आज 21 अक्टूबर को देश ‘आरजी-हुकूमत-आजाद हिंद’ की 75वीं वर्षगांठ मना रहा है. लेकिन हममें से कितने यह जानते हैं कि यह आरजी-हुकूमत थी क्या, इसका लक्ष्य क्या था, और इसका महत्व क्या है? शायद बहुत ही कम. सच तो यह है कि देश अपने इस महानायक के बारे में कुछ जानता ही नहीं.

नेताजी फरवरी 1943 में जर्मनी से जापान आते हैं

एक आम भारतीय से आप पूछिए कि वो सुभाष बाबू के बारे में क्या जानता है? तो आपको कुछ गिने-चुने उत्तर मिलेंगे. जैसे कि उन्होंने भारतीय प्रशासनिक सेवा को उत्तीर्ण कर छोड़ दिया था, गांधी जी से वैचारिक मतभेद के चलते उन्होंने कांग्रेस से इस्तीफा दिया, वो अंग्रेजों द्वारा नजरबंद होने के बावजूद फरार होकर जर्मनी पहुंच गए, और यह कि उन्होंने आजाद हिंद फौज का गठन किया. परंतु इसके अलावा? उनकी विचारधारा, उनकी राजनीतिक सोच आदि के बारे में हम कुछ नहीं जानते. यह कहानी तब शुरू होती है जब नेताजी फरवरी 1943 में जर्मनी से जापान आते हैं.

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इससे पहले 1941 से वो जर्मनी में रहकर वहां भारतीय युद्धबंदियों को संगठित कर रहे थे. वहीं से उन्होंने रेडियो प्रसारण भी शुरू किया था जिससे प्रवासी भारतीयों में भारत के लिए कुर्बानी का जज्बा पैदा किया जा सके. दूसरी ओर एशिया में जापान की सेना तेजी से अंग्रेज सेना को हराती हुई आगे बढ़ रही थी. यहां पहले ही वर्षों से भारत के बाहर रह रहे क्रांतिकारी रास बिहारी बोस और सरदार प्रीतम सिंह इंडियन इंडिपेंडेंस लीग की स्थापना कर चुके थे. वो कमोबेश वही काम कर रहे थे जो कि जर्मनी में नेताजी ने किया. यानी कि देश को आजाद कराने के लिए अंग्रेजों के दुश्मनों की मदद लेना और प्रवासी भारतीयों में देशभक्ति की भावना पैदा करना.

नेताजी पर बहुत से लोगों का (वही वॉट्सएप से पढ़े हुए) ये इल्जाम है कि वो हिटलर की नाजी और मुसोलिनी की फासिस्ट विचारधारा के समर्थक थे. इस कारण ही विश्व युद्ध के दौरान उन्होंने इन देशों का समर्थन किया. कम से कम सार्वजनिक रूप से नेताजी ने इन विचारधाराओं से कोई सहानुभूति नहीं दर्शाई. उनके बारे में यह जरूर कहा जा सकता है कि वो आदर्शवादी से ज्यादा व्यावहारिक व्यक्ति थे.

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उन्होंने माना कि, जो उनके भाषणों से भी साफ होता है, देश में गांधी जी के अहिंसा आंदोलन से जनमानस राजनीतिक रूप से सक्रिय अवश्य हुआ परंतु अंग्रेजों को देश से निकलने के लिए बाहरी ताकतों की मदद जरूरी है. विश्व युद्ध के समय इंग्लैंड को पराजित करने का सबसे सही तरीका उनको यही लगा कि उसके दुश्मनों यानी जर्मनी, इटली, जापान का साथ दिया जाए.

रास बिहारी बोस के अलावा एशिया में और भी बहुत कुछ हो रहा था. जापान की सेनाओं ने दक्षिण-पूर्व एशिया में हजारों भारतीय सैनिकों को बंदी बना लिया था. उनके अफसर मोहन सिंह थे. रास बिहारी बोस, सरदार प्रीतम सिंह और जापानी नेताओं के साथ गहन विमर्श के बाद उन्होंने भारतीय युद्धबंदियों को इंडियन नेशनल आर्मी (आईएनए) के रूप में संगठित करना शुरू किया. यह एक और आम गलत धारणा है कि इंडियन नेशनल आर्मी की स्थापना ही नेताजी ने की थी.

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इस माहौल में जब नेताजी जर्मनी से जापान पहुंचे तो उनकी छवि एक ऐसे नेता की थी जिसकी बात अधिकतर भारतीय मानते थे. देखते ही देखते रास बिहारी बोस ने एक बड़े समारोह में उनको इंडियन इंडिपेंडेंस लीग की बागडोर सौंप दी. यहां उन्होंने दक्षिण-पूर्व एशिया में बसे भारतीयों से आर्थिक सहायता की अपील की, और नारा दिया, ‘करो सब निछावर, बनो सब फकीर’. 14 अगस्त, 1943 को सिंगापुर में एक बड़े जलसे के दौरान नेताजी को इंडियन नेशनल आर्मी की बागडोर भी सौंप दी गई. यहीं पर उन्होंने आर्मी का नाम बदल कर ‘आजाद हिंद फौज’ रखा था. बहुत काम लोग जानते हैं कि उस समय फौज में फौजियों की संख्या 40,000 से ज्यादा थी.

परंतु यही काफी नहीं था. सुभाष जानते थे कि वो देश की आजादी के लिए लड़ रहे हैं. आज बहुत कम लोग उनकी दूरदृष्टि के बारे में जानते हैं लेकिन वो इस विचार के थे कि यदि आजाद हिंद फौज को पूरी मान्यता दिलानी है तो यह एक स्वतंत्र सरकार के अधीन होनी चाहिए. जैसा कि आज बहुत से लोगों को लगता है कि नेताजी का सपना भारत को सैनिक-राष्ट्र बनाना था यह सरासर गलत है. उन्होंने तय किया कि वो सिर्फ सेना का संचालन नहीं करेंगे बल्कि आजाद भारत के लिए प्रशासनिक तैयारी भी जरूरी है.

जब भावुक हो गए थे नेताजी

21 अक्टूबर, 1943 को नेताजी ने सिंगापुर की कैथे बिल्डिंग में एक समारोह के दौरान ‘आरजी-हुकूमत आजाद हिंद’ की स्थापना की घोषणा कर दी. आरजी एक उर्दू शब्द है जिसका अर्थ होता है अल्पकालीन. समारोह के दौरान एक पूरे कैबिनेट की घोषणा की गई. नेताजी खुद राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, विदेश मंत्री और रक्षा मंत्री बने. जिस देश में आज औरतों के अधिकारों का रोज हनन हो रहा है उस देश की इस सरकार में महिला मामलों का अलग मंत्रालय था जिसकी मंत्री डॉक्टर लक्ष्मी स्वामीनाथन बनीं. रास बिहारी बोस को मुख्य सलाहकार नियुक्त किया गया. इसके अलावा ए.एम सहाय, एस.ए अय्यर, जे.के भोंसले, लोगनाथन, अहसान कादिर, एन.एस भगत, एम.जेड किआनी, अजीज़ अहमद, शाहनवाज़ ख़ान, गुलज़ारा सिंह, करीम ज्ञानी, देबनाथ दास, सरदार ईशर सिंह, डी एम खान, ए येलप्पा और ए.एन सरकार ने भी मंत्री-पद की शपथ ली थी.

इस सरकार की अपनी प्रशासनिक सेवा थी. प्रोपेगंडा मिनिस्ट्री थी जो अखबार और रेडियो के द्वारा देशभक्ति का संचार करने का काम करती थी. स्वास्थ्य मंत्रालय भी था और शिक्षा मंत्रालय भी. बहुत ही कम लोगों को यह जानकारी है कि इस सरकार की राष्ट्रीय भाषा ‘हिंदुस्तानी’ थी. यह आम बोलचाल की हिंदी भाषा ही थी जिसको तकनीकी कारणों से रोमन लिपि में लिखा जाता था. इस सरकार का राष्ट्रगान ‘जण-गण-मन’ का एक हिंदुस्तानी रूपांतरण था. राष्ट्रध्वज तिरंगा ही था लेकिन उसके बीच में अशोक चक्र के स्थान पर छलांग मारता हुआ बाघ था. एक भावात्मक माहौल में नेताजी ने शपथ ली थी.

तालियों की गड़गड़ाहट के बीच उन्होंने बोलना शुरू किया कि, ‘खुदा को याद रखते हुए, मैं सुभाष चंद्र बोस हिंदुस्तान और उसके 38 करोड़ लोगों को आजाद करने की कसम खाता हूं. मैं आजादी की यह जंग अपनी आखिरी सांस तक लड़ता रहूंगा...’

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यह बोलते-बोलते उनकी आवाज भर्राने लगी और आंखों में आंसू आ गए. उन्होंने रुमाल से आंख पोंछ कर, आवाज को स्थिर रखते हुए, आगे बोलना शुरू किया, ‘मैं हमेशा हिंदुस्तान का नौकर बना रहूंगा और उसकी 38 करोड़ जनता की सेवा करता रहूंगा. यह मेरे लिए सबसे बड़ा कर्तव्य है. आजादी को पा लेने के बाद भी उस आजादी की हिफाजत के लिए मैं अपने खून की आखिरी बूंद न्योछावर करने को हमेशा तैयार रहूंगा.’

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नेताजी ने अपनी कसम निभाई. वो आखिरी सांस तक आजादी के लिए लड़े. और हमने उन पर राजनीति की. कभी न उनके विचार जाने और न उनके सपनों का हिंदुस्तान. बात खत्म करते-करते यह और बताता चलूं कि गांधी जी से उनके मतभेद इतने गहरे थे कि उन्होंने आजाद हिंद फौज में गांधी ब्रिगेड नाम से सैन्य टुकड़ी बनाईं थी और सरकार बनाते समय उसके बनने की एक वजह यह दी गई थी कि देश के अंदर रह रहे गांधी जी, नेहरू, पटेल आदि जेल भेज दिए गए हैं इसलिए अब आजादी की लड़ाई बाहर से ही लड़नी होगी. अंत में बस इतना ही है कि देश के इन महनायकों को आज की ओछी राजनीति में न बांटिए.

लेख में जिन जगहों से रेफरेंस लिया गया है वो इस प्रकार हैं...

(टी.आर सरीन, सुभाष चंद्र बोस, जापान एंड ब्रिटिश इंपीरियलिज्म इन यूरोप जर्नल ऑप ईस्ट एशियन स्टडीज) (जगन्नाथ मोहंती, आजाद हिंद फौज एंड प्रोविजनल गवर्नमेंट: ए सागा ऑफ नेताजी) (नेशनल आर्काइव ऑफ सिंगापुर) (जॉन एक थिवी, द स्ट्रगल इन ईस्ट एशिया) (ए.ए अयर, द स्टोरी ऑफ आईएनए) (प्रोक्लेमेशन ऑफ द प्रोविजनल गवर्नमेंट ऑफ आजाद हिंद फौज)

(लेखक एक स्वतंत्र टिपण्णीकार हैं) 

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