बीजेपी और संघ परिवार के डीएनए में है- सवर्ण ब्राह्मणवादी संस्कृति की परंपरा. अरसे से ऊंची जाति और शहरी व्यापारी वर्ग उनका वोटबैंक रहा है. ऐसे लोग ब्राह्मणवादी व्यवस्था के हिस्से रहे हैं.
लोकतांत्रिक राजनीति ने बीजेपी को अपने दायरे से बाहर निकलने पर मजबूर किया है. पिछड़े और दलितों को अपने से जोड़े बिना सत्ता की चाबी हासिल करना कठिन जान पड़ता है.
ये अपनेआप में मजेदार है कि पिछड़े वर्ग के लोग भी अपनी सामाजिक और सांस्कृतिक परंपरा में ब्राह्मणवादी रिवाजों को अहमियत देते हैं. इसलिए बीजेपी को उन्हें अपने से जोड़ने में कोई दिक्कत नहीं है. नतीजा आज, संघ की हिंदुत्ववादी राजनीति में ओबीसी ऊंचे पायदान पर है.
ओबीसी के बाद बीजेपी-संघ के एजेंडे में दलित ही थे. लेकिन पिछले साल डेढ़ साल के हालात ने दलितों को बीजेपी से दूर किया है. संघ-बीजेपी के डीएनए में दलित अपने लिए जगह नहीं देख पाते।
वजह कई हैं- वो ब्राह्मणवादी व्यवस्था को स्वीकार नहीं करते, खाने-पीने से लेकर रहने-सहने के ढंग तक अलग हैं, उनकी पृष्ठभूमि ब्राह्मणवादी व्यवस्था के विरोध से आती है.
दलित है जीत का मंत्र
2017 का यूपी विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव के लिए बीजेपी के मिशन 2019 में जीत की चाबी हैं दलित. जीत के समीकरण इस बात से तय होंगे कि देश की कुल आबादी के 16.6 फीसदी दलित समुदाय किसके हक में जाते हैं. इस लिहाज से बीजेपी दलित राजनीति में गहरे उतरने को मजबूर है.
हालांकि बीजेपी दलितों को अपने जोड़ने का कोई मौका छोड़ नहीं रही. वहीं दूसरी तरफ रोज ऐसी घटनाएं हो रही हैं, जो दलितों को बीजेपी से दूर कर रही हैं. बीजेपी के लिए दलितों में अविश्वास, भय और निराशा के भाव बढ़े हैं.
हैदराबाद यूनिवर्सिटी के रिसर्च स्कॉलर रोहित वेमूला की आत्महत्या, गुजरात के ऊना में गाय का चमड़ा उतारने पर दलितों की बेरहमी से पिटाई, बीजेपी के यूपी प्रदेश उपाध्यक्ष रहे दयाशंकर सिंह की दलित नेता मायावती के खिलाफ आपत्तिजनक बयान. इन सबने मिलकर बीजेपी और दलितों के बीच की खाई को काफी चौड़ा कर दिया है.
दलितों का दिल जीतने के लिए बीजेपी ने राजनीति में बाबा अंबेडकर का नाम जपना शुरु किया था. जहां मौका मिला प्रधानमंत्री मोदी ने बाबा अंबेडकर को याद किया. पिछले दिनों मोदी सरकार ने लंदन के अंबेडकर हाऊस को मेमोरियल में तब्दिल करवा दिया. नागपुर में आरएसएस के कार्यक्रमों में मंच पर अंबेडकर की मूर्तियां लगने लगीं. कुंभ में दलितों के साथ सद्भाव स्नान तक होने लगे.
बीजेपी ने ये सारी कवायद दलितों को अपने नजदीक लाने के लिए की है. नब्बे के दशक में संघ और बीजेपी ने समाज में सद्भाव लाने के लिए कई अभियान चलाए. ऐसे अभियान सिर्फ दलित गांवों का दौरा और उनके साथ समरसता भोज करने तक सीमित नहीं रहे.
दलितों के लिए एक हुआ संघ परिवार
अभियान में कई नई चीजें जोड़ीं- मसलन, दलितों को तीर्थयात्रा पर ले जाना, उनके साथ कुंभ स्नान की परंपरा की शुरूआत की, मंदिरों में उनके प्रवेश की इजाजत देने के अभियान चलाए. हाल ही में उज्जैन के सिंहस्थ कुंभ में बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने दलितों के साथ कुंभ स्नान किया.
विचार कुंभ के नाम से एक नए तरह का प्रयोग किया गया. जिसके जरिए दलितों को समाज के संपन्न और विचारवान लोगों के सामने अपनी बात रखने का मौका दिया गया. हिंदुत्ववादी राजनीति में दलितों को साथ लेकर चलने की अपील की गई.
ऐसे आयोजनों के साथ ही बीजेपी ने वीएचपी और आरएसएस के साथ मिलकर दलित स्वाभिमान पर भी काम किए. दलित नायको, संतों और उनके नेताओं के बारे में जानकारियां छपवाई गईं, उनकी प्रतिमाएं लगवाई गईं, उनकी याद में मंदिर बनवाए गए.
पिछले दिनों संघ ने दलित बस्तियों, मोहल्लों और शहरों में धम्म यात्राएं आयोजित करवाईं. इसका सिर्फ एक ही मकसद था- दलितों को हिंदुत्ववादी और बीजेपी की राजनीति से जोड़ना. बीजेपी दलित संगठनों के भीतर पैठ जमाना चाहती है. ताकि इसका फायदा आने वाले चुनाव में मिले.
बीजेपी दलितों को जोड़ने के लिए कैंपेन चला रही है. दूसरी तरफ ऐसी घटनाएं रोज हो रही हैं जो दलितों को पार्टी से दूर कर रही हैं. मसलन, बीजेपी ने बाबा अंबेडकर को याद करने के बहाने दलित राजनीति में पैनापन लाने की कोशिश की. लेकिन उसी बीजेपी के राज में मुंबई स्थित बाबा अंबेडकर की पुश्तैनी इमारत को ढहा दिया गया. इस घटना से पूरे महाराष्ट्र के दलित नाराज हो उठे.
ऊना और वेमूला से घबराई बीजेपी
वेमूला की आत्महत्या की वजह से पढ़े लिखे दलित छात्र बीजेपी लीडरशीप के विरोध में आ गए. इन घटनाओं की वजह से पिछले दिनों अलीगढ़ के दलित सिंगर ए आर अकेला ने कहा था– “बीजेपी के राज में दलित भय से भरे हैं. ”
गुजरात के ऊना जिले की घटना के बाद दलित गुस्से की आग उत्तराखंड, उत्तरप्रदेश से लेकर देश के कई हिस्सों में फैल गई. बीजेपी नेताओं के पुतले जलाए गए. कई जगहों पर हालात बेकाबू हो गए. बीजेपी के तत्कालीन प्रदेश उपाध्यक्ष रहे दयाशंकर सिंह के मायावती पर दिए विवादास्पद बयान ने दलित राजनीति को अलग मोड़ दे दिया.
बीएसपी के कैडर वोटर के साथ आम दलितों ने इसे अपने समुदाय का अपमान माना. बीजेपी ने अपने नेता के खिलाफ सख्त कार्रवाई जरूर की. लेकिन तब तक मायावती मामले को बड़ा बनाकर मौके का फायदा उठा चुकी थीं.
पिछले 30 वर्षो के दौरान मायावती और बीएसपी ने दलित स्वाभिमान को पुष्ट करने के कदम उठाए हैं. दलित समुदाय को अपने नायकों मसलन झलकरी बाई, उदा देवी और बिजली पासी की याद दिलाकर उन्हें उत्साहित किया गया है. दलित चेतना जगाने का पूरा राजनीतिक फायदा आने वाले चुनावों में मिल सकता है.
यूपी चुनावों में अभी वक्त है. सवाल दो तरह के उछल रहे हैं- बीजेपी से दलितों की नाराजगी बीएसपी को फायदा पहुंचाएगी ? या बीजेपी-संघ का दलित अभियान हालिया नुकसान की भरपाई कर ले जाएगा ? जवाब के लिए हमें इंतजार करना पड़ेगा.
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