बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के लिए साल 2017 सियासत के पिछले सालों के मुकाबले एकदम अलग कहा जा सकता है. नीतीश की इस साल की राजनीति बेहद ही घुमावदार रही. नीतीश की एनडीए में घर वापसी ने साबित कर दिया कि 'ना ना करके प्यार वो एनडीए से कर बैठे'. तीन साल पहले जब नरेंद्र मोदी को बीजेपी ने पीएम उम्मीदवार के नेतृत्व में लोकसभा चुनाव लड़ने का ऐलान किया था तो जेडीयू ने एनडीए से नाता तोड़ लिया था. लेकिन इस साल नीतीश की जेडीयू में ही न सिर्फ दो फाड़ हुए बल्कि बिहार में आरजेडी के साथ गठबंधन तोड़कर उन्होंने एनडीए के साथ सरकार बना ली.
ये कहानी कुछ इस तरह थी कि बिहार के एक मुख्यमंत्री ने इस्तीफा देकर एनडीए के साथ सरकार बना कर मुख्यमंत्री पद की फिर से शपथ ले ली. एक रात में ही बिहार की राजनीति का पूरा समीकरण बदल गया. लेकिन जो नहीं बदला तो वो नीतीश का मुख्यमंत्री पद था. आरजेडी के साथ पिछले गठबंधन में भी वो सीएम थे तो एनडीए के साथ गठबंधन में भी वो सीएम बने.
बिहार के सियासी घटनाक्रम पर कई सवाल उठे. लेकिन नीतीश ने जब आरजेडी से सवाल पूछे तो जवाब किसी के पास नहीं था. नीतीश की राजनीति में वो घुट्टी मिली हुई है जो उन्होंने जयप्रकाश नारायण, कर्पूरी ठाकुर, राम मनोहर लोहिया जैसे दिग्गज धुरंधरों से मिली. उनकी इसी राजनीतिक परिपक्वता ने उस बहस पर भी विराम लगा दिया जिसमें उन्हें हमेशा मोदी विरोधी और मोदी को चुनौती देने वाला नेता के तौर पर उछाला जाता रहा है. मोदीvsनीतीश की जंग को खुद नीतीश ने ये कह कर खारिज कर दिया कि साल 2019 के लोकसभा चुनाव में देश में कोई भी नेता ऐसा नहीं जो कि मोदी को टक्कर दे सके. नीतीश का ये बयान उन लोगों के लिए बड़ा झटका था जो साल 2019 के लोकसभा चुनाव में पीएम मोदी के खिलाफ नीतीश कुमार को उतारना चाहते थे.
दरअसल बिहार विधानसभा चुनाव के वक्त नीतीश कुमार ने स्वाभिमान रैली के जरिए पीएम मोदी पर कई हमले किए थे. पीएम की परिवर्तन रैली का जवाब उन्होंने स्वाभिमान रैली से दिया था. मोदी के हर आरोप का वो चतुराई से जनता को जवाब दे रहे थे. नतीजा ये रहा कि बीजेपी का बिहार जीतने का सपना उस वक्त टूट गया. लेकिन बाद में नीतीश ने बीजेपी को दो तोहफे एक साथ दे दिए. न सिर्फ वो एनडीए में शामिल हुए बल्कि बीजेपी गठबंधन की सरकार भी बनवा दी.
बिहार में उनकी छवि का ही असर है कि वो 12 साल से सूबे के सीएम हैं. 2005 में बिहार की सत्ता संभालने के बाद से उनकी छवि विकास पुरुष के तौर पर निखरती रही. लालू राज के बाद से बिहार को नीतीश का विकल्प नहीं मिल सका. यहां तक कि बीजेपी के विकास के वादे के बावजूद बिहार का मन नीतीश कुमार के साथ ही रहा. उन्होंने तीसरी बार सरकार बनाई और सीएम बने.
हालांकि कांग्रेस विरोध से राजनीति की शुरुआत करने वाले नीतीश ने कांग्रेस का भी हाथ थामा तो लालू के जंगलराज के खिलाफ जंग छेड़ कर बिहार की सत्ता संभालने वाले नीतीश ने लालू को गले भी लगा लिया.
एनडीए से अलग होने के बाद नीतीश के निशाने पर पीएम मोदी लगातार रहे. लेकिन अब राजनीति की नई राह में वो साथ साथ आगे बढ़ रहे हैं. नीतीश को वक्त की पहचान उनके तकरीबन पांच दशकों के राजनीतिक अनुभव से मिली है. तभी उन्होंने नए साल में एक मौके पर कमल के चित्र में रंग भरकर अपने भविष्य के इरादों को जाहिर कर दिया था. नीतीश अब सांप्रदायिकता की राजनीति को पीछे छोड़कर पीएम मोदी के साथ विकास की नैया पर सवार है. उम्मीद की जा सकती है कि नए साल में भी इस सफर में साहिल से पहले कोई तूफान न आए.
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