कश्मीर की बात आते ही चीजें दो हिस्सों में बंट जाती हैं. भारत और पाकिस्तान, सुरक्षाबल और पत्थरबाज़, अलगाववादी और आम कश्मीरी. मगर इन दो हिस्सों में बंटे विवादों के बीच सारे तीसरे पक्ष अक्सर हाशिए पर चले जाते हैं. जब बात कश्मीर में रह रहे तीसरे जेंडर की हो तो ये स्थिति और भी खराब हो जाती है.
भारत और दुनिया में तमाम जगह थर्ड जेंडर हाशिए पर हैं. जब बात कश्मीर जैसे विवादग्रस्त और धार्मिक रूप से रूढ़िवादी समाज की हो तो मुश्किलें और भी बढ़ जाती हैं. थर्ड जेंडर और ट्रांसजेंडर के अधिकारों को लेकर पिछले कुछ सालों में अलग-अलग तरह से बातें हुई हैं. लेकिन कश्मीर के परिपेक्ष्य में पत्थरबाजों, सेना और आतंकवाद के तमाम मुद्दों में इस वर्ग की समस्याओं पर कुछ बात ही नहीं हुई.
जब दुनिया ‘मी टू’ हैशटैग के साथ शोषण की कहानियां सामने रख रही थी, कश्मीर थर्ड जेंडर को लेकर एक नया बदलाव देख रहा था. भारत के मेन स्ट्रीम मीडिया में इस बदलाव की ज्यादा बात भले ही न हुई हो, कश्मीर से शुरू हुए एक कैंपेन ने जेंडर अवेयरनेस के मामले में दुनिया के कई देशों में पहचान बनाई है.
अब्दुल राशिद थर्ड जेंडर कश्मीरी हैं. राशिद रेशमा नाम से कश्मीरी शादियों में गाने-बजाने का काम करते हैं. देश के किसी भी दूसरे हिस्से में रहने वाले ट्रांसजेंडर की तरह राशिद को बचपन से परेशानियां, तकलीफें और मुश्किलें झेलनी पड़ीं.
जेंडर और इस तरह के दूसरे मुद्दों पर काम करने वाले ओमर हाफिज़ ने स्टीयर्स करके एक कैंपेन शुरू किया. कई चरणों के इस कैंपेन में लोगों को दो हिस्सों में बांटा गया. एक में महिलाएं और ट्रांसजेंडर थे दूसरे में पुरुष. पहले भाग में महिलाओं और ट्रांसजेंडर्स ने कई स्टीरियोटाइप्स पर सवाल उठाए थे. और दूसरे भाग में उनके जवाब पुरुषों से पूछे गए. मसलन लड़कियों ने कहा कि उनकी नियति है कि उन्हें अपनी शादी के लिए दहेज देना पड़ेगा. इसके दूसरे चरण में पुरुषों से पूछा गया कि वो दहेज क्यों स्वीकार कर रहे हैं. राशिद (रेशमा) ने भी इसमें एक वीडियो फेसबुक पर पोस्ट किया था.
रेशमा के वीडियो और ओमर के कैंपेन का असर दुनिया भर की तरह ही कश्मीर के रूढ़िवादी समाज में भी दिखा है. मसलन कश्मीर में थर्ड जेंडर को लेकर पहली बार कोई किताब छपी है. रेशमा जहां पहले शादी वगैरह में गाती थीं, अब उन्हें कॉलेज फेस्ट में परफॉर्म करने के लिए बुलाया जा रहा है. कश्मीर जैसे धार्मिक रूढ़ियों से जकड़े समाज में ये बड़ा बदलाव है. खास तौर पर उस परिवेश में जहां गाने बजाने पर ही अलगाववादी संगठन आपत्ति करते हैं.
एलजीबीटी कम्यूनिटी के साथ सबसे बड़ी त्रासदी ये है कि इससे जुड़े किसी भी व्यक्ति को हम उसकी सेक्शुएलटी से जोड़ कर ही देखते हैं. जबकि दूसरे किसी भी व्यक्ति की सेक्शुऐलटी कभी उसकी पहचान से जोड़कर नहीं देखा जाता. ऐसे में स्टीयर्स जैसे कैंपेन की हमारे यहां काफी जरूरत है.
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