पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा किसानों को दी गयी कम गन्ना उगाने की नसीहत ने मीडिया में खासी चर्चा अर्जित की. विपक्ष ने भी इस मामले को माकूल मानते हुए बिना कसर छोड़े सरकार को आड़े हाथों लिया और सपा प्रमुख एवं भूतपूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने भी सोशल मीडिया समेत अन्य मंचों पर सरकार को इस मामले पर सरकार को घेरना का काम किया लेकिन जानकारों की मानें तो पाकिस्तान से चीनी निर्यात करने के आरोपों से घिरी सरकार ने शायद गन्ने को लेकर एक छिपी हुई रणनीति बनानी शुरू की है. यह रणनीति शायद इस बार किसी साझे समाधान को लेकर बने लेकिन बोतल में से जिन्न निकलना अभी बाकी है. योगी आदित्यनाथ द्वारा गन्ने को लेकर दिए गये बयान के अगले ही वाक्य में उन्होंने किसानों का भुगतान समय पर न होने पर कड़ी कार्रवाई की भी बात कही है लेकिन मीडिया द्वारा 'कम चीनी खाने' वाले वाक्य को प्रमुखता देने के क्रम में इस दूसरे वाक्य की प्रासंगिकता खत्म हो गई.
पेचीदा हो चली है हालिया स्थिति
बीते सालों में गन्ने की एक नई किस्म के आने की वजह से फसल की रिकॉर्ड पैदावार हो रही है लेकिन गन्ने की खेती वाली जमीन कम हुई है. उत्पादन में बढ़ोत्तरी से किसानों की मुश्किलें आसान होनी चाहिये लेकिन चीनी को लेकर घाटे के अर्थशास्त्र ने उनकी मुश्किलों को और बढ़ा दिया है. उत्तर प्रदेश में गन्ने की राजनीति का दायरा एक बड़े भू-भाग को अपने भीतर समाये रखता है.
35000 करोड़ रुपये से अधिक के चीनी उद्योग के साथ सूबे के पचास लाख किसान परिवारों के हित तो जुड़े ही हैं, साथ ही देश के सबसे बड़े राज्य की अर्थव्यवस्था की रीढ़ भी यही गन्ने हैं जो चीनी की शक्ल में मुद्रा उगलते हैं. इसके बावजूद दशकों से गन्ना किसानों की मांगे पूरी नहीं हो पाती, चीनी मिलें अपने नुक्सान की दुहाई देती हैं और सरकार हर साल बीच का रास्ता खोजने में लग जाती है.
अब इसे राजनीतिक महत्वाकांक्षा की कमी माना जाय या एक बेतरतीब से संजाल का अप्रत्यक्ष दबाव माना जाय या कुछ और मान लिया जाय फिर भी किसी जिम्मेदार शख्स या इकाई या अधिकारी के पास इस बात का माकूल जवाब नहीं कि गन्ने को लेकर कभी कोई स्थाई समाधान क्यों नहीं निकल पाता है.
दशकों से अब तक न तो केंद्र और न ही राज्य सरकारों ने गन्ने से सबंधित मसलों पर कोई सर्वमान्य रास्ता निकालने की पहल नहीं की है. प्रदेश के हालात हर वर्ष नवम्बर में देखने लायक होते हैं जब पेराई शुरू नहीं हो पाने की वजह से लाखों हेक्टेयर में गेहूं और दाल की बुआई नहीं हो पाती है, ऐसे में हर साल के अंत में एक आसन्न संकट का अंदाजा सहज रूप से लगाया जा सकता है.
हर वर्ष सर्दियों के मौसम में चीनी मिलों और गन्ना किसानों के बीच समर्थन मूल्य को लेकर टकराव की स्थिति बन जाती है, इसके बावजूद केंद्र और राज्य सरकारें कोई सर्वमान्य फॉर्मूला नहीं ढूंढ पाती हैं. पिछली सपा सरकार के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने चीनी मीलों को भारी-भरकम राहत पैकेज देकर पेराई करवाने का वैकल्पिक रास्ता निकाला था लेकिन ठोस समझौते के अभाव में किसानों और मिल मालिकों के बीच टकराव की स्थिति हमेशा बनी रहती है.
क्या है गन्ने का अर्थशास्त्र
गन्ना उगाने वाले किसानों की जिंदगियों से मिठास गायब होने के पीछे के कारण को समझने से पहले गन्ने के अर्थशास्त्र को भी समझने की जरूरत है. हर बीते साल का भुगतान सही समय पर न कर पाने के कारण किसान अतिरिक्त कर्ज के बोझ से दबे रहते हैं जिसका असर उपभोक्ता बाजार के छोटे बड़े सामान के अलावा ऑटोमोबाइल और सीमेंट उद्योग से जुड़े व्यापारियों पर भी पड़ता है.
प्रदेश में गन्ने की बुवाई सरकार तय करती है लेकिन खेतों में खड़े गन्ने की जिमेदारी से बचने के क्रम में लगी रहती है. किसानों को सरकारी दरों पर भुगतान किया जाय यह अब तक कभी सुनिश्चित नहीं हो पाया. इस गतिरोध का असर मंझोले और छोटे किसानों पर भी सीधी मार करता है और उन्हें अपना गन्ना हर साल सरकारी दर से आधे से भी काम दाम में कोल्हुओं में बेचने को मजबूर होना पड़ता है.
बीते सालों में हर बार राज्य सरकार द्वारा घोषित गन्ना मूल्य के खिलाफ निजी चीनी मिलों की एसोसिएशन इस्मा ने विरोध ही किया है और हर वर्ष इस्मा की दलील मनमाने दामों पर भुगतान करने की ही होती है. इस्मा कभी भी सरकार द्वारा घोषित गन्ना मूल्य देने को तैयार नहीं होती है.
ऐसे में किसानों व मिलों के साथ किसान संगठन भी आपस में अपनी-अपनी तलवारें खींचते रहते हैं. उत्तर प्रदेश के गन्ना मूल्य के कारण हरियाणा व उत्तराखंड के किसान भी गन्ने का दाम अधिक मांगते हैं. गन्ने को लेकर हरियाणा, उत्तराखंड व यूपी में अच्छी खासी होड़ होती है. दोनों राज्यों में गन्ने को लेकर पिछले कुछ सालों में अच्छी खासी तकरार होती रही है. दोनों पड़ोसी राज्यों के गन्ना माफिया सीमावर्ती क्षेत्र के किसानों को नकद भुगतान कर अपने राज्यों में गन्ना ले जाते रहे हैं.
मगर उत्तर प्रदेश का भाव अधिक होने के कारण स्थिति उलट भी हो जाती है. दाम के फेर में पड़ने के कारण ही अधिकांश निजी चीनी मिलें नियत समय तक गन्ने की पेराई शुरू नहीं कर पाती हैं. मिल मालिकों के इस रुख से किसान चीनी मिलों को गन्ना देने के बजाय कोल्हू पर बेचने को मजबूर हो जाता है.
हालांकि गन्ना मूल्य को लेकर चीनी मिल मालिकों और किसान संगठनों की तरफ से अलग-अलग तर्क सुनने को मिलते हैं. किसान संगठन यह चाहते हैं कि प्रति किलो चीनी के मूल्य के दस गुना के अनुपात में प्रति क्विंटल गन्ने का मूल्य होना चाहिये. किसानों का यह भी कहना होता है कि चीनी के अलावा खोई और शीरा चीनी मिल के पास बचत में रहता है लिहाजा उन्हें दाम सोच समझकर देने चाहिये. एक क्विंटल गन्ने से करीब दस किलो चीनी बनती है ऐसे में चीनी उत्पादन से चीनी मिलों को 60 प्रतिशत मुनाफा होता है.
इसके अलावा जिन चीनी मिलों में डिस्टीलरी लगी हैं उनमें एक किलो शीरे से एक बोतल तैयार हो जाती है. आज बढ़ती महंगाई के कारण उत्तर प्रदेश के बहुसंख्य किसानों की सारी जमीन बैंकों में बंधक बनी हुई है और बीज, खाद, डीजल व बिजली के कारण उन किसानों की कृषि लागत भी नहीं निकल पाती है.
ऐसे में किसान संगठन किसानों की इस हालत के लिए सरकार को भी जिम्मेदार मानते हैं. जबकि चीनी मिल मालिकों का तर्क यह रहता है कि मिल की पेराई क्षमता के अनुसार गन्ना न मिल पाने तथा कर्मचारियों के वेतन आदि के खर्चे भी पूरे नहीं हो पाते हैं लिहाजा मूल्य में सावधानी बरतने के अलावा उनके पास कोई विकल्प नहीं होता. दूसरी तरफ मिल मालिक इस बात पर भी दबाव डालते हैं कि मिल अपनी पूरी क्षमता से चले इसके लिए कोल्हू पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिये क्योंकि कोल्हू संचालक गुड़ बनाकर शराब बनाने के लिए बेचते हैं.
पिछली सरकार ने चीनी मीलों को भारी-भरकम पैकेज देकर एक साल तो मामला शांत करवाया लेकिन सरकार जाते-जाते आखिरी साल में मामला पेचीदा हो गया. तत्कालीन सरकार द्वारा तय खरीद मूल्य को मानने के लिये किसान तैयार नहीं हुए और बसपा ने विधानसभा में जमकर प्रदर्शन भी किया था.
किसानों की प्रमुख मांग यही थी कि जब तक सरकार बीते साल की बकाया राशि नहीं निर्गत कर देती है तब तक गन्ना चीनी मिलों तक नहीं पहुंचेगा. इसी बीच लखीमपुर खीरी में एक गन्ना किसान द्वारा की गयी आत्महत्या के बाद मामला और गंभीर हो गया.
अखिलेश सरकार ने उस वर्ष चीनी मिल मालिकों को अल्टीमेटम दे रखा था और तयशुदा तारीख पर पेराई न शुरू करने पर कुछ मिलों पर एफआईआर भी दर्ज हुए थे. उस सरकार में भी गन्ना किसानों की तकलीफों का इलाज किसी के पास नहीं था और आजम खान के गढ़ रामपुर में भी किसानों ने गन्ने की फसलों में आग लगा दी थी.
नई सरकार को भी मिली चुनौती
इस साल अप्रैल के महीने में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के खेतों में लबालब गन्ना भरा होने और शुगर मिलों द्वारा गन्ना खरीद में हीलाहवाली करने पर फिर से माहौल गरम हो चला था. राष्ट्रीय लोक दल ने इस बाबत कई जगहों पर विरोध प्रदर्शन करते हुए पूरा गन्ना लेने तक मिलों को बंद नहीं करने की मांग की. इससे पहले मिल बंद होने पर आंदोलन की चेतावनी भी दी थी.
उत्तर प्रदेश की हालिया भाजपा सरकार के लिये भी पिछला और उनकी सरकार का पहला गन्ना पेराई सत्र संकटों से भरा रहा है. इस वर्ष आधा अप्रैल खत्म होने के बाद भी खेतों में करीब 15 फीसदी गन्ना खड़ा दिखाई देता रहा. इसके साथ ही गेहूं की कटाई भी शुरू हो गई लेकिन गन्ना आपूर्ति के लिए पर्याप्त पर्चियां नहीं मिलने से किसान बेहाल ही रहे.
भाजपा का गन्ने से राजनीतिक लगाव
उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार आने के बाद गन्ना किसानों के बीच इस बात को उछाला गया था कि अब केंद्र और राज्य में एक ही दल की सरकार होने के बाद किसानों को लाभ मिलेगा. 2017 के चुनाव में खास तौर पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भाजपा ने 2009 में चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में दिल्ली में हुए किसान महासम्मेलन में अपने नेताओं की शिरकत की चर्चा लगभग हर मंच से की थी.
इतिहास के पन्नों में 19 नवम्बर 2009 में गन्ना किसानों के लिए हुआ यह आंदोलन भी खासा महत्वपूर्ण था जब जंतर-मंतर पर हुक्का गुड़गुड़ाते किसान यूनियन के नेता चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत के अलावा राष्ट्रीय लोकदल के प्रमुख चौधरी अजीत सिंह समेत पूरा विपक्ष खड़ा था. दरअसल यह सारा विरोध उस समय की यूपीए सरकार की तत्कालीन गन्ना नीति को लेकर थी जहां केंद्र सरकार ने एक अध्यादेश पारित किया था जिसके तहत गन्ने का उचित और लाभकारी मूल्य (एफआरपी) साल 2009-10 के लिए 129 रुपये 85 पैसे प्रति क्विटल तय किया गया था. साथ ही इस अध्यादेश में यह भी कहा गया था कि अगर राज्य सरकारें गन्ने का मूल्य एफआरपी से अधिक तय करती हैं तो उसकी भरपाई भी राज्य सरकार को ही करनी पड़ेगी.
रालोद के नेतृत्व में आयोजित इस रैली जिसे अजीत समर्थक पंचायत का नाम देते हैं के असली नायक भले ही चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत थे लकिन वर्षों बाद किसी राजनीतिक मंच पर एक अजब नजारा देखने को मिला था जब एक मंच पर समाजवादी पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव व अमर सिंह के अलावा भाजपा का प्रतिनिधित्व करते हुए अरुण जेटली एवं सीपीआई की तरफ से डी राजा व ए.वी.वर्धन, राजद की तरफ से रघुवंश प्रसाद सिंह, जदयू की तरफ से शरद यादव और माकपा से आचार्य वासुदेव एक साथ नजर आए थे. सभी राजनीतिक दलों ने एक सुर में तत्कालीन केंद्र सरकार को कोसते हुए किसानों को गन्ने की कीमत 250 से 300 रुपये प्रति क्विटल देने की मांग की थी, तत्कालीन सपा महासचिव अमर सिंह ने शरद पवार पर गन्ना किसानों को लूटने का आरोप लगाया था दूसरी तरफ भाजपा ने यूपीए सरकार के इस कदम को गरीब विरोधी बताया था.
जो किसान गन्ना पैदा करता है, उसके जीवन में मिठास लाने के लिये पूरे देश के चीनी उद्योग में व्याप्त असंतुलन को दूर करने की जरूरत है, और बिना उत्तर प्रदेश को साथ लिये यह मुमकिन नहीं है. इसके अलावा उस अप्रत्यक्ष सिंडिकेट या लॉबी पर भी अंकुश लगाने की जरूरत है, जिसके दबाव में चीनी आयात करनी पड़ती है और जिनकी वजह से असंतुलन पैदा होता है लेकिन गन्ने का पैसा काले-सफेद दोनों ही रंगों में बाजार में उतरता है, ऐसे में सफेद पर काले का भारी पड़ना आज के दौर में स्वाभाविक है. देखना होगा कि इस बार आगामी लोकसभा चुनावों को देखते हुए गन्ने की फसल कितनी मीठी हो पाती है
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)
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