बीजेपी के सीनियर नेता यशवंत सिन्हा ने कहा कि अब उनसे रहा नहीं जा रहा, इसलिए अब वो बोलेंगे. पूर्व वित्त मंत्री ने मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों पर करारा हमला किया. उन्होंने वित्त मंत्री अरुण जेटली को खास तौर से निशाना बनाया. इसमें कोई शक नहीं कि यशवंत सिन्हा के पास किसी की भी आलोचना का अधिकार है. मगर उन्होंने ये आलोचना अपना राष्ट्रीय कर्तव्य बता कर की है.
ऐसे में ये देखना होगा कि यशवंत सिन्हा का करियर कैसा रहा है. उन्होंने देश की भलाई के लिए क्या-क्या किया है? तभी ये तय हो सकेगा कि यशवंत सिन्हा को राष्ट्र के हित में बोलने का हक है या नहीं.
कुछ लोग अपने मुंह में चांदी का चम्मच लेकर पैदा होते हैं. कुछ लोग अपनी मेहनत से इसे हासिल करते हैं. लेकिन यशवंत सिन्हा एक तीसरे दर्ज में आते हैं. वो पहले अफसर थे. फिर नेता बन गए. वो चाहते हैं कि सत्ता सुख सिर्फ उन्हें नहीं, उनकी अगली पीढ़ी को भी मिले.
हमेशा सत्ता के करीब रहे हैं यशवंत सिन्हा
यशवंत सिन्हा की राजनीति हमेशा ही स्वार्थ की रही है. ब्यूरोक्रेट के तौर पर वो हमेशा सत्ताधारी नेताओं के करीबी रहे, ताकि अपने लिए अच्छी पोस्टिंग हासिल कर सकें. बिहार के दिग्गज नेता कर्पूरी ठाकुर के मुख्यमंत्री रहते हुए यशवंत सिन्हा ने अपनी इमेज गरीबों की भलाई के लिए काम करने वाले अफसर की बनाई. उस वक्त वो साइकिल से दफ्तर जाकर खूब सुर्खियां बटोरते थे.
लंबे वक्त तक ब्यूरोक्रेसी से जुड़े रहने के बाद यशवंत सिन्हा ने अपनी राजनीतिक पारी का आगाज किया. उन्होंने नौकरी से वक्त से पहले रिटायरमेंट ले लिया. यशवंत सिन्हा ने चंद्रशेखर से काफी नजदीकी बढ़ा ली थी. कर्पूरी ठाकुर के पसंदीदा अफसर होने की वजह से वो उन समाजवादी नेताओं के बड़े करीबी थे, जो वीपी सिंह की अगुवाई में राजीव गांधी को घेरने की तैयारी कर रहे थे. यशवंत सिन्हा, चंद्रशेखर के बहुत बड़े मुरीद थे.
1989 में जब वीपी सिंह प्रधानमंत्री बने, तो उन्होंने यशवंत सिन्हा को भी मंत्री बनने का ऑफर दिया. शायद वो उन्हें देश की सेवा की जिम्मेदारी देना चाहते थे. लेकिन यशवंत सिन्हा ने जूनियर मंत्री का पद ठुकरा दिया. उन्हें लगता था कि वो राज्य मंत्री से बड़े ओहदे के हकदार हैं. इसलिए वो वीपी सिंह के शपथ ग्रहण समारोह में भी नहीं गए.
जब वीपी सिंह की सरकार गिर गई, तो कांग्रेस की मदद से चंद्रशखेर प्रधानमंत्री बने. तब यशवंत सिन्हा को चार महीने के लिए वित्त मंत्री बनाया गया था. इस दौरान उन्होंने देश का सोना गिरवी रखने जैसा फैसला लिया, ताकि देश कर्ज चुकाने में डिफॉल्ट न करे.
ब्यूरोक्रेसी में अपने लंबे तजुर्बे की वजह से यशवंत सिन्हा को लग गया था कि चंद्रशेखर के साथ लंबे वक्त तक जुड़े रहने का कोई फायदा नहीं. तो उन्होंने लालकृष्ण आडवाणी से नजदीकी बढ़ानी शुरू कर दी. आडवाणी से नजदीकी का यशवंत सिन्हा को काफी फायदा हुआ. वो सियासी स्टार बनकर उभरे.
यूं करीब आए बीजेपी के
90 के दशक की शुरुआत में, बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के बाद के राजनीतिक दौर में बीजेपी का तेजी से विस्तार हो रहा था. पार्टी अलग-अलग लोगों को अपने साथ जोड़ रही थी. ब्यूरोक्रेट के तौर पर यशवंत सिन्हा के पास प्रशासन का तजुर्बा था. वो अच्छा बोलते भी थे. इसलिए कई बार यशवंत सिन्हा को बीजेपी का बचाव करने के लिए आगे किया गया. अशोक रोड स्थित पार्टी के दफ्तर में यशवंत सिन्हा अक्सर अपनी अफसरशाही वाले दिनों की तरह नियमित रूप से आते थे. वो सुबह से देर शाम तक पत्रकारों के सवालों का जवाब देने के लिए मौजूद रहा करते थे.
आडवाणी और संघ को उनके अंदर एक स्वयंसेवक जैसी खूबियां दिखती थीं. वामपंथियों की भाषा में कहें तो यशवंत सिन्हा ने खुद को हर दर्जे से अलग करके संघ के स्वयंसेवक जैसा बना लिया था. पार्टी की बैठकों और दूसरे कार्यक्रमों में वो नेताओं के साथ रहने के बजाय हमेशा कार्यकर्ताओं के साथ रहा करते थे.
उनकी इन आदतों से यशवंत सिन्हा को स्वदेशी जागरण मंच में जगह मिल गई. वक्त के साथ वो संघ की स्वदेशी नीति के बड़े पैरोकार और चेहरे बन गए थे. संघ के प्रमुख के एस सुदर्शन स्वदेशी के बहुत बड़े समर्थक थे. इसका यशवंत सिन्हा को बहुत फायदा हुआ. 1998 के लोकसभा चुनाव के बाद के एस सुदर्शन ने वाजपेयी पर दबाव डालकर यशवंत सिन्हा को वित्त मंत्री बनवाया. जबकि वाजपेयी चुनाव हारने के बावजूद जसवंत सिंह को वित्त मंत्री बनाना चाहते थे.
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वाजपेयी सरकार में रहते हुए यशवंत सिन्हा को संघ का नजदीकी होने के फायदे समझ में आ गए थे. उन्होंने बड़ी चतुराई से अपने पत्ते खेले. उस दौरा वाजपेयी सरकार और संघ के स्वदेशी जागरण मंच के बीच लगातार तनातनी रहा करती थी. सिन्हा, वित्त मंत्री के तौर पर सुधार की वकालत करते थे. उन्होंने श्रम कानूनों में सुधार के कई बड़े प्रस्ताव रखे. विनिवेश को बढ़ावा दिया. डबल टैक्सेशन से बचाने के लिए कंपनियों को मॉरिशस के जरिए निवेश का रास्ता दिखाया.
वित्त मंत्री से विदेश मंत्री तक का सफर
इस दौरान वो स्वदेशी जागरण मंच की नीतियों का भी समर्थन करते थे. लेकिन बीजेपी के बहुत से नेता वित्त मंत्री के तौर पर उनकी नीतियों के समर्थक नहीं थे. इसीलिए उन्हें हटाने का फैसला किया गया.
वित्त मंत्रालय से अपनी विदाई से एक पखवाड़े पहले यशवंत सिन्हा ने दफ्तर जाना छोड़ दिया था. वो कुशक रोड स्थित अपने घर से ही काम कर रहे थे. उस दौरान एक बीजेपी नेता ने मुझे बताया था कि यशवंत सिन्हा को अब वित्त मंत्री के तौर पर बर्दाश्त नहीं किया जा सकता.
जब मैं यशवंत सिन्हा से उनके घर पर मिला तो मैंने उनसे पूछा कि क्या उन्हें इस बात का इल्म है कि उन्हें वित्त मंत्रालय से हटाया जाने वाला है. तब सिन्हा ने कहा कि मुझे बताया तो नहीं गया, मगर संकेत साफ दिखाई देते हैं. इसी वजह से उन्होंने दफ्तर जाना बंद कर दिया था.
वो काफी चिंतित और निराश दिखाई देते थे. लेकिन जब यशवंत सिन्हा को ये पता चला कि उन्हें विदेश मंत्री बनाया जाएगा, तो उनकी तकलीफ गायब हो गई.
इस बात की घोषणा के बाद यशवंत सिन्हा ने मुझे बताया था कि, 'मैंने कॉन्डोलिजा राइस जैसे कई नाम बोलने सीख लिए हैं.' राइस उस वक्त अमेरिका की विदेश मंत्री थीं.
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2004 तक यशवंत सिन्हा विदेश मंत्री बने रहे थे. 2004 में वो लोकसभा चुनाव हार गए. तब उन्होंने अपने लिए नया सियासी रोल तलाशना शुरू किया.
2005 में आडवाणी बीजेपी के अध्यक्ष और लोकसभा में विपक्ष के नेता बन गए. उसी साल आडवाणी ने जिन्ना को सेक्यूलर बताकर संघ की नाराजगी मोल ले ली थी.
मौका मुफीद देखते ही यशवंत सिन्हा ने आडवाणी का साथ छोड़ा और उनके खिलाफ बयानबाजी शुरू कर दी. वो आडवाणी का विरोध करके संघ से नजदीकी बढ़ाना चाहते थे. संघ और बीजेपी के बदलते रिश्ते के दौरान यशवंत सिन्हा, ने संघ को चुना था.
हालांकि उन्होंने आडवाणी का साथ भी पूरी तरह से नहीं छोड़ा. आडवाणी के खिलाफ कड़वी बयानबाजी के बाद वो उनसे मिलने गए. उनसे अपने बयान के लिए माफी मांगी. आडवाणी ने मुझे खुद बताया था कि यशवंत सिन्हा जब उनसे मिलने गए तो कहा कि जब तक आप मुझे माफ नहीं करेंगे मैं अंदर नहीं आऊंगा.
यशवंत सिन्हा ने बड़ी चतुराई से खुद को राज्यसभा सांसद बनवा लिया और वो बीजेपी में अहम बने रहे. एटमी डील पर हुए हंगामे के दौरान उन्होंने पार्टी के विरोध की अगुवाई की. वो अमर सिंह, सीताराम येचुरी और दिग्विजय सिंह के साथ मिलकर सरकार का विरोध कर रहे थे. इस पूरे मामले में बीजेपी को मुंह की खानी पड़ी थी.
क्या चाहते हैं यशवंत सिन्हा?
जब मोदी बीजेपी के अंदर ताकतवर बनकर उभरे, तो यशवंत सिन्हा के लिए मुश्किल खड़ी हो गई. आडवाणी की तरह उन्होंने भी गोवा में पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक का बहिष्कार किया. 2013 में हुई उसी बैठक मे मोदी की अगुवाई में लोकसभा चुनाव लड़ने का फैसला हुआ था.
हालांकि वो उस वक्त के बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह के करीबी थे. लेकिन वो दीवार पर लिखी इबारत नहीं पढ़ सके. हालांकि बाद में वो अपने बेटे जयंत सिन्हा के लिए टिकट हासिल करने में कामयाब हो गए. मोदी सरकार बनने पर जयंत सिन्हा को वित्त राज्य मंत्री बनाया गया था.
लेकिन, यशवंत सिन्हा को इससे तसल्ली नहीं हुई. बीजेपी के सीनियर नेताओं पर यकीन करें तो वो खुद के लिए ब्रिक्स बैंक में बड़ा ओहदा चाहते थे. यशवंत सिन्हा ने कई बार सरकार के खिलाफ बोलकर खुद को सुर्खियों में बनाए रखा. इस तरह से वो विपक्ष के खेमे के सदस्य बन गए. अब जबकि अगले चुनाव ज्यादा दिन दूर नहीं, तो चतुर अफसर की तरह यशवंत सिन्हा एक बार फिर सियासी संतुलन साधने में जुट गए हैं.
स्वार्थ की सियासत के लंबे चौड़े इतिहास को देखते हुए, जब यशवंत सिन्हा देशहित में बोलने की बात करते हैं, तो किसी को यकीन नहीं होता. ये उनका निजी एजेंडा ज्यादा मालूम होता है.
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