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कुमार विश्वास विवाद के सबक: वर्चस्व की लड़ाई में खत्म होगी 'आप'?

विश्वास केजरीवाल को एहसास दिला रहे हैं कि अब खंजर दूसरों के हाथ में है और निशाने पर केजरीवाल हैं.

Updated On: May 03, 2017 05:34 PM IST

Sandipan Sharma Sandipan Sharma

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कुमार विश्वास विवाद के सबक: वर्चस्व की लड़ाई में खत्म होगी 'आप'?

मैंने जब पिछली बार कुमार विश्वास को देखा था तो वो अपनी कविताओं पर वाहवाही की तालियां बटोर रहे थे.

जब विश्वास अपनी मशहूर कविता 'कोई दीवाना कहता है' पढ़ने के लिए खड़े हुए, उससे पहले एक कम चर्चित कवि विनीत चौहान महफिल लूट चुके थे. विनीत चौहान की राष्ट्रवादी भावना से भरी भड़काऊ कविता सुनकर लोग वाह-वाह कर रहे थे.

ऐसा लगता था कि सुनने वालों को कविता से ज्यादा शेरो-शायरी से पाकिस्तान की पिटाई में ज्यादा लुत्फ आ रहा था. ओज से भरी कविता लिखने वाले रामधारी सिंह दिनकर जैसे महान कवि भी चौहान की कविता को सस्ती लोकप्रियता हासिल करने का हथियार ही कहते.

चौहान की वीर रस वाली कविता के बाद, राहत इंदौरी की रोमांटिक और बगावती तेवर वाली शायरी ने सुनने वालों को तसल्लीबख्श लुत्फ दिया था.

फिर भी महफिल को सबसे मशहूर कवि कुमार विश्वास का इंतजार था. वो उस महफिल के सबसे ज्यादा पैसे पाने वाले कवि थे. लेकिन जब तक विश्वास अपने कविता पाठ के लिए खड़े होते, तब तक लोग थक चुके थे. भावनाओं का ज्वार आकर जा चुका था.

विश्वास ने बहुतेरी कोशिश की. उन्होंने राष्ट्रवाद का दांव चला, रूमानी कविताएं सुनाईं और सियासी तंज से भरपूर छंद भी कहे. लेकिन जब तक वो अपनी मशहूर कविता कोई दीवाना कहता है सुनाना शुरू करते, तब तक तालियों के शोर से ज्यादा लोगों की घर वापसी की कदमताल सुनाई दे रही थी.

ऐसे में समझ में नहीं आता कि चुनाव लड़ने पर अपनी जमानत तक गंवाने वाले, मुशायरों में बोझिल हो चुके कुमार विश्वास को लेकर आम आदमी पार्टी इतना परेशान क्यों हुई? आखिर कुमार विश्वास में ऐसा था कि क्या जो आम आदमी पार्टी के प्याले में तूफान आया?

फिलहाल लगता है कि विश्वास वाला संकट सुलझ गया है लेकिन इसका मतलब नहीं कि कहानी यहीं खत्म हो गई है.

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अमानुतुल्लाह खान (तस्वीर: न्यूज़ 18 हिंदी)

अमानतुल्लाह खान का हमला

दो दिन पहले आम आदमी पार्टी के विधायक अमानतुल्लाह खान ने कुमार विश्वास पर जोरदार हमला किया. खान ने विश्वास को बीजेपी का एजेंट बताकर पार्टी तोड़ने की साजिश करने का आरोप लगाया.

कुमार विश्वास अपनी नाखुशी का सार्वजनिक रूप से इजहार कर चुके थे. खान के बयान पर विश्वास ने कहा कि खान तो सिर्फ मोहरा हैं, जिनकी आड़ में दूसरे लोग उन्हें निशाना बना रहे हैं. विश्वास ने ये भी कहा कि वो जल्द ही एक बड़ा फैसला लेंगे.

विश्वास के संकट के जवाब में आम आदमी पार्टी बिना इंजन की गाड़ी जैसे कभी इधर और कभी उधर लड़खड़ाती दिखी. अमानतुल्लाह खान ने अपना बयान वापस लेने से इंकार कर दिया है. वो लगातार विश्वास पर निशाना साधते रहे. खान ने आरोप लगाया कि खुलेआम बयानबाजी करके कुमार विश्वास, विपक्षी दलों को फायदा पहुंचा रहे हैं.

वहीं अरविंद केजरीवाल अपने अंगने में लगी आग बुझाने के लिए उस पर पानी डालते रहे. उन्होंने दिन में कुमार विश्वास को अपना छोटा भाई बताया और रात में विश्वास को मनाने के लिए आधी रात को उनके घर भी पहुंच गए.

आखिर कुमार विश्वास, आम आदमी पार्टी के लिए इतने अहम क्यों बन गए? ये वही कुमार विश्वास हैं जिनका अपनी ही पार्टी पर भरोसा नहीं रहा. इस सवाल का जवाब साफ है. जो पार्टी कभी एक जन आंदोलन को दिशा देने के लिए बनाई गई थी वो अब व्यक्तिपूजा में तल्लीन है.

आम आदमी पार्टी आज जोकरों का समूह बनकर रह गई है. जहां हितों का टकराव है. एक दूसरे से जलन है. महत्वाकांक्षाओं का जमघट है. इसमें नट हैं और रिंगमास्टर हैं. पार्टी अब सियासी दल नहीं, एक सर्कस बन गई है.

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पार्टी के नेता एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ में लगे हैं (तस्वीर: रविशंकर सिंह)

आगे निकलने की होड़

आम आदमी पार्टी के नेता आजकल एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में हैं. वो एक दूसरे से बदला लेने को बेताब नजर आते हैं. हर नेता, दूसरे को नीचा दिखाने की जुगत में लगा रहता है.

जानकार आम आदमी पार्टी के बर्ताव की तुलना केकड़े से करते हैं. केकड़े आमतौर पर दुश्मनों का सफाया करने के बाद अपनी पूंछ तक काटने लगते हैं. ठीक उसी तरह आज आम आदमी पार्टी का बर्ताव हो गया है.

आम आदमी पार्टी में ये सिलसिला शाजिया इल्मी के पार्टी छोड़ने से शुरू हुआ. फिर पार्टी ने योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण और मयंक गांधी को बाहर कर दिया. फिर पंजाब के चार में से दो सांसदों को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया.

उसके बाद सुच्चा सिंह छोटेपुर और नवजोत सिंह सिद्धू जैसे नेताओं के साथ आम आदमी पार्टी का बर्ताव ऐसा ही रहा. इन नेताओं के पार्टी में आने की ऐसी शर्त रखी गई कि इन नेताओं ने आम आदमी पार्टी से दूरी ही बना ली.

अब आम आदमी पार्टी पूरी तरह केकड़े जैसा बर्ताव कर रही है. आस-पास के लोगों का खात्मा होने के बाद अब पार्टी ने अपनी कोर टीम पर ही हमला कर दिया है.

पहले इस जन-सेना के सैनिकों पर हमला हुआ. फिर सेनापतियों को निशाना बनाया गया. अब महाराजा केजरीवाल के करीबी लोग, कुमार विश्वास जैसे पार्टी की कोर टीम के नेताओं पर निशाना साध रहे हैं.

यूं तो आम आदमी पार्टी में ये सिलसिला शुरू से ही रहा है. पार्टी में अपने ही नेताओं को निशाना बनाने की परंपरा रही है. हालांकि, वजह हर बार अलग रही. अपनी लोकप्रियता के उरूज पर पहुंचते ही आम आदमी पार्टी के नेता एक-दूसरे के खिलाफ हमलावर हो गए थे.

वो सत्ता की मलाई आपस में बांटकर नहीं खाना चाहते थे. मगर ताजा लड़ाई नाकामी की जिम्मेदारी को लेकर है. आज कोई भी नेता पार्टी की चुनावों में लगातार नाकामी की जिम्मेदारी नहीं लेना चाहता. सब एक-दूसरे पर निशाना साध रहे हैं.

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ज्यादातर लोग विवाद के लिए पार्टी संयोजक अरविंद केजरीवाल को जिम्मेदार मान रहे हैं

केजरीवाल  जिम्मेदार

वैसे, आज आम आदमी पार्टी की जो हालत है, उसके लिए सबसे ज्यादा अरविंद केजरीवाल जिम्मेदार हैं.

जैसा कि उनके पुराने सहयोगी मयंक गांधी ने एक खुली चिट्ठी में लिखा था, 'केजरीवाल जी, आप ने दिल्ली में जीत का पूरा सेहरा अपने सिर बांध लिया था. आपने सोचा कि देश का समर्थन सिर्फ आपके लिए है. आपने सोचा कि आप बंसी बजैय्या हैं और जनता आपके पीछे मस्त होकर चल रही है. मगर सच तो ये है कि असल में लोग आपके पीछे नहीं नई सियासत की धुन के पीछे चल रहे थे.'

केजरीवाल ने दिल्ली में जीत के बाद नया सियासी माहौल नहीं तैयार किया. वो सत्ता के लोभी हो गए. वो और महत्वाकांक्षी हो गए. वो बाहुबली के भल्लालदेव बन गए. अपनी पार्टी में सामूहिक निर्णय की परंपरा का तिरस्कार करके आलाकमान वाला बर्ताव शुरू कर दिया.

केजरीवाल ने अपने लिए चुनौती बन सकने वाले हर नेता को किनारे लगा दिया. जिसने भी उनके खिलाफ मुंह खोला उसी को उन्होंने ठिकाने लगा दिया. पार्टी, केजरीवाल के चापलूसों का जमघट बनकर रह गई.

अब केजरीवाल को मालूम है कि उनका दौर खत्म हो चुका है. अब उन्हें डर लग रहा है कि वक्त अपने कर्मों का फल भुगतने का है. आज उनके सियासी सितारे गर्दिश में हैं. पार्टी में अनिश्चितता का माहौल है. सामंत बगावत कर रहे हैं. केजरीवाल को लग रहा है कि जो उन्होंने दूसरों के साथ किया अब उनके साथ भी हो सकता है.

कुमार विश्वास इसलिए अहम नहीं हैं कि वो चुनाव जीत सकते हैं. वो कवि सम्मेलनों की महफिलें लूट सकते हैं या सरकार चला सकते हैं. वो अहम इसलिए हैं कि वो आज केजरीवाल को ये बता सकते हैं कि उनके हाथ अपने ही साथियों के खून से रंगे हैं.

आज विश्वास जैसे विद्रोह केजरीवाल को ये एहसास दिला रहे हैं कि अब खंजर दूसरों के हाथ में है और निशाने पर केजरीवाल हैं.

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