सोमवार को दलित संगठनों के विरोध-प्रदर्शन के दौरान हुई हिंसा में 14 लोगों की मौत हो गई. इसमें सबसे ज्यादा मध्य प्रदेश में 7, बिहार और यूपी में तीन-तीन जबकि राजस्थान में भी एक व्यक्ति की मौत हो गई. मध्यप्रदेश, बिहार, यूपी, राजस्थान के अलावा और भी कई राज्य हिंसा की चपेट में आए. बंद का असर पंजाब और झारखंड में भी दिखा.
लेकिन, दलित संगठनों के बंद पर नजर डालें तो सबसे ज्यादा असर बीजेपी शासित राज्यों में ही दिखा. हालांकि इस वक्त अधिकतर राज्यों में बीजेपी की ही सरकार है. लेकिन, इस दौरान हुई हिंसा ने प्रदर्शनकारियों की मंशा पर भी सवाल खड़े किए और राज्य सरकारों को भी कठघरे में खड़ा कर दिया.
मध्य प्रदेश में 7 लोगों की मौत अपने-आप में हालात काबू में नहीं होने की कहानी बयां कर रही है. इसे शिवराज सरकार की असफलता के तौर पर भी देखा जा रहा है. आखिरकार सरकार हिंसा रोकने में असफल क्यों हो गई? क्या राज्य सरकारों को पहले से इस तरह की हिंसा की खुफिया जानकारी नहीं थी या फिर इस बंद को राज्य सरकारों ने हल्के में ले लिया! या फिर राज्य सरकारों ने दलित वोट बैंक के खिसकने के डर से इस मुद्दे पर कड़े तेवर नहीं अपनाए.
ऐसा लग रहा है कि पूरी लड़ाई दलित वोट बैंक को लेकर ही है. मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में इस साल के अंत में विधानसभा का चुनाव होना है. इस चुनाव से पहले दलितों के खिलाफ की गई किसी भी सख्त कार्रवाई से संभावित राजनीतिक नुकसान होने के डर ने इन राज्यों की सरकारों को चुप रहने पर मजबूर कर दिया. लेकिन, इस राजनीतिक मजबूरी की आड़ में अपनी गलतियों को राज्य सरकारें छिपा नहीं सकती. हालात को काबू करने में प्रशासन की लापरवाही अब सामने आ चुकी है. अगर प्रशासन पहले से तैयारी किया होता और सख्ती दिखाता तो इस तरह हुड़दंग और हंगामा नहीं होता. जब प्रदर्शनकारियों की ओर से अलग-अलग जगहों पर हिंसा, तोड़फोड़ और आगजनी की घटना होने लगी तब प्रशासन को सख्ती दिखानी पड़ी. इसे प्रशासन की नाकामी नहीं तो और क्या कहा जाएगा!
खासतौर से मध्य प्रदेश का जिक्र करना इसलिए भी जरूरी हो जाता है, क्योंकि कुछ महीने पहले ही प्रदेश में किसानों के उग्र आंदोलन के दौरान भी हिंसा की घटना हुई थी. इस दौरान भी पुलिस की जवाबी कार्रवाई में कई प्रदर्शनकारी किसानों की मौत हो गई थी. उस वक्त भी किसानों के आंदोलन से निपटने में शिवराज सरकार की नाकामी को ही इन मौतों का जिम्मेदार माना गया था.
मध्यप्रदेश के अलावा देशभर में किसानों के उस वक्त के आंदोलन से भी निपटने में सरकार को परेशानी का सामना करना पड़ा था. लेकिन, किसान आंदोलन से सबक न लेकर दलित आंदोलन के दौरान भी फिर गलती दोहराना सरकार की नाकामी ही मानी जा रही है.
राजस्थान में भी दलित संगठनों के आह्वान पर बुलाए गए बंद में हुई हिंसा के दौरान एक व्यक्ति की मौत हो गई. उधर, बिहार और यूपी में भी तीन-तीन लोगों की मौत हुई है. इनमें यूपी में बीजेपी और बिहार में जेडीयू के साथ बीजेपी की सरकार है.
अब बीजेपी इस मुद्दे पर बैकफुट पर घिरी दिख रही है. सरकार की तरफ से एसटी-एससी प्रिवेंशन ऑफ एट्रोसिटिज एक्ट को लेकर दिए आदेश पर सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दायर की गई है.
सरकार पर अपनी ही पार्टी और सहयोगी दलों का भी दबाव है. लेकिन, सरकार की सफाई के बावजूद विरोधी इस मुद्दे को हवा देने में लगे हैं. पहले इस एक्ट को लेकर सरकार को घेरने की कोशिश, फिर देश भर में उत्पात और विरोध-प्रदर्शन और अब प्रदर्शन के दौरान हुई हिंसा को लेकर शुरू हुई सियासत सरकार के लिए परेशानी का सबब बन गया है.
सरकार सफाई दे रही है. केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने भारत बंद के दौरान हुई हिंसा पर मंगलवार को लोकसभा में बयान दिया. उन्होंने कड़े शब्दों में कहा कि लापरवाही बरतने वाले अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की जाएगी. राजनाथ सिंह ने कहा कि हिंसा के कारण हुए नुकसान और इससे निपटने के लिए राज्यों को हर मदद दी जाएगी.
वहीं विपक्ष मामले को तूल दे रहा है. उसे लगता है कि जिन राज्यों में ज्यादा हिंसा हुई है, उन राज्यों में बीजेपी को इस साल होने वाले विधानसभा चुनाव में घेरा जा सकता है.
अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव से पहले विपक्ष की कोशिश बीजेपी को दलित विरोधी साबित करने की हो रही है. एससी-एसटी क्लास की लोकसभा में 131 सीटें हैं. इनमें से एससी की 84 और एसटी की 47 सीटें हैं. असल लड़ाई इस तबके के वोट को लेकर ही है. विपक्ष को लगता है कि देश भर में इस तरह से दलितों के भीतर बन रहे सरकार विरोधी माहौल को अगर लोकसभा चुनाव तक बरकरार रखा गया तो फिर बाजी पलट सकती है.
बीजेपी भी इस बात को समझ रही है. लेकिन, विपक्ष की इस रणनीति को कुंद करने के लिए उसे अब और सतर्क रहना पड़ेगा. वरना 2019 में दलित विरोधी छवि पार्टी की सोशल इंजीनियरिंग को खराब कर सकती है.
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