जम्मू-कश्मीर में चार साल पहले सियासी गठबंधन के रूप में उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव का मिलन हुआ था. लेकिन रिश्तों की जमी बर्फ ज्यादा नहीं पिघल सकी और अचानक गठबंधन का ग्लेशियर ही टूट गया. बीजेपी के राष्ट्रवाद के नाम पर पीडीपी से समर्थन वापस लेने के बाद अब महबूबा मुफ्ती ने कश्मीर के अलगाववादियों के प्रति हमदर्दी के आखिरी पत्ते भी खोल दिये. महबूबा मुफ्ती ने मोदी सरकार को धमकी दी है कि अगर उनकी पार्टी पीडीपी को तोड़ने की कोशिश हुई तो घाटी में 1987 की तरह नए सैयद सलाहुद्दीन और यासीन मलिक पैदा हो जाएंगे.
सवाल उठता है कि महबूबा की जुबान से सियासी दर्द के बहाने यासीन मलिक और सैयद सलाहुद्दीन के फसाने क्यों निकले? क्या महबूबा अब बंदूक के खौफ से भारत के लोकतंत्र को डराना चाहती हैं?
महबूबा मुफ्ती ने वो दो नाम लिये जो साल 1987 के चुनाव के बाद घाटी की फिज़ा में दहशत बन गए थे. घाटी में 90 के दशक की दहशत के दौर को महबूबा मुफ्ती अब दोबारा याद दिलाकर दोहराने की धमकी दे रही हैं. लेकिन वो ये भूल रही हैं कि उनकी सियासत के सफर की उम्र से ज्यादा कश्मीर को लेकर देश की सरकारों का अनुभव है. बंदूकों की दहशत से न कभी देश की सेना डरी और न सरकारें झुकी हैं.
#WATCH: Former J&K CM M Mufti says'Agar Dilli ne 1987 ki tarah yahan ki awam ke vote pe daaka dala, agar iss kism ki tod fod ki koshish ki,jis tarah ek Salahuddin ek Yasin Malik ne janm liya...agar Dilliwalon ne PDP ko todne ki koshish ki uski nataish bahut zyada khatarnaak hogi' pic.twitter.com/LmC7V4OwN2
— ANI (@ANI) July 13, 2018
दरअसल अपनी पार्टी पर कमजोर हो रही पकड़ के लिये महबूबा केंद्र सरकार को जिम्मेदार ठहरा कर खुद का सियासी भविष्य सुरक्षित कर रही हैं. लेकिन सवाल उठता है कि वो सियासी बदले के लिये कश्मीर को कैसे दांव पर लगा सकती हैं? पीडीपी के अंदरूनी मामलों को लेकर महबूबा कश्मीर के दहशतगर्दों के नाम की धमकी क्यों दे रही हैं?
देश की कौन सी राजनीतिक पार्टी ऐसी नहीं रही जो कि कभी टूटी या फिर उसे छोड़कर लोग गए न हों. खुद महबूबा मुफ्ती के वालिद मुफ्ती मोहम्मद सईद ने भी कांग्रेस की निष्ठा भुलाकर जनता दल का दामन थामा था. बाद में उन्होंने भी अपनी अलग पार्टी पीडीपी का गठन किया.
पार्टियों की विचारधारा मजबूत हो तो टूट-फूट से पार्टी का वजूद खत्म नहीं होता है. पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के दौर में भी कांग्रेस टूटी थी. लेकिन उसके बावजूद उन्होंने चुनाव में जोरदार जीत हासिल की. इसी तरह शरद पवार, नारायण दत्त तिवारी, अर्जुन सिंह जैसे दिग्गज नेता भी कांग्रेस छोड़कर गए लेकिन उसके बावजूद कांग्रेस की सेहत पर असर नहीं पड़ा. उसने साल 2003 का लोकसभा चुनाव जीतकर सत्ता में वापसी की. महबूबा मुफ्ती शायद ये सोच कर सहम उठी हैं कि उनकी पार्टी के बागी विधायकों के टूटने से पार्टी ही खत्म हो जाएगी. ऐसी सोच उनके सियासी अनुभव की अपरिपक्वता को ही दर्शाता है.
आज अगर पीडीपी के भीतर महबूबा विरोधी सुर उठ रहे हैं तो इसकी जिम्मेदार वो खुद हैं. विरासत में मिली पार्टी की कमान थामने में उनकी प्रशासनिक कमजोरी इसके लिये जिम्मेदार है. वो इसका ठीकरा केंद्र पर नहीं फोड़ सकतीं.
पीडीपी नेता इमरान अंसारी अगर बागी होकर अलग मोर्चे का एलान कर रहे हैं तो ये पार्टी का अंदरूनी मामला है. अलगाववादी नेता सज्जाद लोन अगर पीडीपी के बागी नेताओं पर नजर गड़ाए हुए हैं तो महबूबा मुफ्ती को अपने नेताओं में उनके प्रति भरोसा जगाना चाहिये. लेकिन राजनीति के दांवपेंच में पिछड़ने पर उनके बयान उनकी हताशा और अलगाववादियों के प्रति हमदर्दी का सबूत ही बनते जा रहे हैं.
अलगाववादियों के प्रति हमदर्दी की वजह से महबूबा मुफ्ती की देश में नकारात्मक छवि ही बनती जा रही है. कभी वो कश्मीर मुद्दे पर पाकिस्तान से बातचीत करने का विवादास्पद बयान देती हैं तो कभी वो पत्थरबाजों के खिलाफ सेना की कार्रवाई पर सेना के खिलाफ एफआईआर दर्ज करा देती हैं.
महबूबा मुफ्ती ने एक सोची-समझी रणनीति के तहत साल 1987 के जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव का जिक्र किया. ये वो चुनाव था जो विवादों से घिरा था. इस चुनाव को लेकर केंद्र सरकार पर नतीजों को प्रभावित करने और सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग के आरोप लगे थे. उस वक्त जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव में नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस का गठबंधन था. नेशनल कॉन्फ्रेंस ने 40 सीटें तो कांग्रेस ने 26 सीटें जीती थीं. जबकि मुख्य विपक्षी दल रहे मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट को केवल 4 सीटें मिली. इसी चुनाव में सैयद सलाहुद्दीन चुनाव हार गया था. चुनाव हारने के बाद जहां सैयद सलाहुद्दीन ने आतंक की राह पकड़ी तो यासीन मलिक जैसे युवाओं ने हथियार थाम कर घाटी में कहर बरपा दिया.
ऐसे में सवाल उठता है कि अपने सियासी फायदे के लिये क्या महबूबा भी अब कश्मीरी युवकों को बहका कर यासीन मलिक और सैयद सलाहुद्दीन बनाना चाहती हैं?
आज यासीन मलिक अलगाववादी नेता है जो कि नजरबंद है जबकि सैयद सलाहुद्दीन मोस्ट वांटेड आतंकी है. महबूबा मुफ्ती इन दोनों का नाम लेकर घाटी की अवाम के सामने विक्टिम कार्ड खेलना चाहती हैं. लेकिन वो ये भूल रही हैं कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में बंदूक पर हमेशा बैलेट भारी पड़ा है. पिछली बार के विधानसभा चुनावों में रिकॉर्डतोड़ वोटिंग प्रतिशत इसकी बानगी है. हुर्रियत कान्फ्रेंस जैसे अलगाववादी धड़ों के चुनाव बाहिष्कार के बावजूद जम्मू-कश्मीर में रिकॉर्ड वोटिंग हुई. ये साबित करता है कि घाटी की अवाम खुद को हिंदुस्तान की लोकतांत्रिक व्यवस्था का न सिर्फ हिस्सा मानती है बल्कि भरोसा भी जताती है.
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