पहले आंध्र प्रदेश, फिर महाराष्ट्र और अब मध्य प्रदेश में किसान आंदोलन चल रहा है. मध्य प्रदेश में अगले साल चुनाव भी हैं सो पार्टियों में इस आंदोलन को काबू में कर लेने का सहज लालच भी दिखता है. ऊपर से देखने से लगता है कि पूरे देश का किसान नाराज है और वो सत्ता को विपक्ष के हाथ में दे देगा.
पर लगता नहीं ऐसा होगा. क्यों? बात यह है कि किसान के बिना काम चलता है, व्यापारी के बिना नहीं. किसान वोट बैंक नहीं पर व्यापारी बैंक है. किसान आंदोलन दुर्भाग्य से भारत के गले की वो हड्डी रहा है जो न निगला जाए, न उगला जाए. महात्मा गांधी के साथ भी यही हुआ, बुद्धदेव भट्टाचार्य के साथ भी यही, दिग्विजय सिंह के साथ भी हुआ. किसान नेताओं की बात करें तो स्वामी सहजानंद का जो हुआ वही चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत का और वही शायद शेतकरी संगठन के शरद जोशी का हुआ.
स्वामी सहजानंद ने खड़ा किया था बड़ा आंदोलन
स्वामी सहजानंद सरस्वती बिहार के एक भूमिहार मूल के किसान नेता थे. बीसवीं सदी के तीसरे दशक में जमीदारों का बड़ा आतंक था. जमींदार जमीन का मालिक होता था. जमीन पर हल जोतने वाले का असलियत में जमीन पर कोई हक नहीं होता था.
किसान का भाग्य उसके जमींदार के मूड, चरित्र और भाग्य के साथ उठता गिरता रहता था. और हां, इसके अलावा मदर इंडिया के सुक्खीलाला टाइप साहूकार होते थे जिनके पास किसान के किस्मत की दूसरी चाबी रहती थी.
सहजानंद किसान घर से थे, पढ़े-लिखे थे, इस कष्ट को न देख सके न सह सके. बड़ा आंदोलन खड़ा किया, और 1929 में बिहार प्रोविंशियल किसान सभा की स्थापना की हुई. इसके पहले अवध में और आंध्र के गुंटूर में एक-दो किसान आंदोलन हो चुके थे. बिहार की सभा और इसके आंदोलन से तत्कालीन सरकार हिल गई. आंदोलन फैला और समय के बीतने के साथ भारतीय किसान सभा बनी जो बाद में जाकर पूरी तरह से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में घुलमिल गई.
भारतीय किसान सभा की आठ मांगें थीं. इसमें किसान को बचाने के लिए उसके लगान में 50 फीसदी लगान कम करने की मांग थी. उसको बिना मजदूरी काम करने या बेगार से मुक्ति मिले. मजदूर को मजदूरी इतनी मिले कि वो जी-खा सके. इसके अलावा उन्होंने जमींदारों की जमीनों को और सरकारी जमीनों को भूमिहीन किसानों को देने की बात कही. साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि ‘जमीन जोतने वालों की हो.’
महात्मा गांधी भी किसान सभा की इस बात को मानते थे कि जमीन उसको जोतने वाले किसान की होती है. लेकिन उनके लिए किसान आंदोलन के लिए खुल कर सामने आना मुश्किल हो गया. 1920 में उन्होंने असहयोग आंदोलन छेड़ा पर किसानों से आग्रह किया जहां-जहां अंग्रेजों का राज है वहां तो लगान न दें और जहां-जहां राजा-रजवाड़े और जमींदार हैं वहां उनके साथ बातचीत से हल निकाल लें. गांधी ने ऐसा इसलिए किया क्योंकि उनको देश के लिए जमींदारों, राजाओं, उद्योगपतियों, मजदूरों सबकी जरूरत थी. 1922 में असहयोग आंदोलन बंद हो गया.
साल 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन आ गया सो फिर वही पेंच फंसा. किसान, किसान न रहा एक आम भारतवासी हो गया जो उसे होना ही था.
किसान नेता पीएम भी बने पर नतीजा ढाक के तीन पात
आजादी के बाद तमाम छोटे-बड़े आंदोलन आए जमींदार चले गए, 1965 की भारत पाक लड़ाई के बाद हरित क्रांति आ गई. किसान नेता चौधरी चरण सिंह, भले करीब छह महीने के लिए ही सही, प्रधानमंत्री बन गए. हर बार थोड़े-बहुत सुधार हुए. कभी किसान को जमीन, कभी एमएसपी. पंचवर्षीय योजना दर योजना आई लेकिन किसान का हाल सुधरा नहीं. जोत छोटी होती चली गई. हालत पतली.
इस बीच कई बड़े किसान नेता आए, जैसे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत और महाराष्ट्र में शरद जोशी. जहां शरद जोशी बेहद पढ़े-लिखे खुले बाजार और एफडीआई के समर्थक थे, वहीं चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत एक जाट नेता थे जो गन्ना किसानों के लिए बेहतर मूल्य और अधिक सुविधाएं चाहते थे. दोनों ने सरकारों को हिला दिया, देश को कंपा दिया और राजनीति को प्रभावित करने की पूरी कोशिश की.
नतीजा ढाक के तीन पात. शरद जोशी ने पार्टी बनाई, राजनीति की लेकिन उन किसानों ने उन्हें उतना वोट नहीं दिया जितना उनकी सभाओं और आंदोलनों को साथ दिखे. टिकैत ने जिस पार्टी को समर्थन दिया वो पार्टी हारी. पांच साल उनके समर्थक किसान रहते थे, जिस दिन वोट देना होता था उस दिन वो जाट, मुसलमान, त्यागी, दलित बन जाते थे.
महेंद्र सिंह टिकैत से चोखे नेता निकले अजित सिंह
महेंद्र सिंह टिकैत खेती करने वाले किसान नेता थे लेकिन आईआईटी खड़गपुर और अमेरिका के इलिनॉय से पढ़ने वाले अंग्रेजी बोलने वाले अजित सिंह चोखे जाट नेता थे. इसी तरह शरद जोशी शरद पवार से कई मायनों में कड़े किसान नेता थे, लेकिन शरद पवार उनसे बड़े थे. कारण कि वह किसानों की बात करने वाले मराठा नेता थे.
सीपीएम भूमि सुधारों के साथ सत्ता में आई थी पर किसानों के भूमि अधिग्रहण के कारण सत्ता से चली गई, किसान फटेहाल ही रहा. मध्य प्रदेश में दिग्विजय सिंह ने सरकारी जमीन गरीबों-भूमिहीनों में बांट दी लेकिन चुनाव न बचा और हां किसान को जमीन भी नहीं मिली.
बात यही है. किसान, किसान के साथ जीता है, मरता है, खपता है, कलपता है लेकिन पांच साल बाद वो जाट, यादव, कुर्मी, काछी, जाटव हो जाता है.
और नेताओं से अच्छा ये बात कौन जानता है. इसलिए सरकार में बैठे हुए वो इस सिरदर्द से घबराते हैं लेकिन इतना नहीं. वो व्यापार धंधों को, नौकरीपेशा वालों, दरकिनार करके किसानों के साथ नहीं जाते. वो उन्हें दुलारते हैं, तत्काल राहत देते हैं लेकिन उन्हें मालूम है कि ये किसान खुद के द्वारा फेंकी गई प्याज की तरह होते हैं. ऊपर से एक, अंदर से अलग-अलग.
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