गरीबी, संघ और पिछड़ा वर्ग का कॉम्बिनेशन भाजपा को हमेशा क्लिक करता रहा है. नरेंद्र मोदी, कल्याण सिंह, उमा भारती, शिवराज सिंह चौहान जैसे नेताओं की यह सूची बड़ी लंबी है.
उत्तर प्रदेश में भाजपा ने इस सफल कॉम्बिनेशन पर एक बार फिर दांव लगाया है. प्रदेश भाजपा अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य कोइरी जाति (अन्य पिछड़ा वर्ग) से आते हैं. वे बजरंग दल से जुड़े रहे हैं. विश्व हिंदू परिषद के संगठन में रहे हैं और एक जमाने में चाय बेचते थे.
केशव इलाहाबाद से सटे कौशांबी के सिराथू तहसील के कसया गांव के रहने वाले हैं. जानकार बताते हैं कि किसी जमाने में उनके पिता श्याम लाल की चाय की दुकान थी. केशव भी पिता की चाय की दुकान में मदद करने से लेकर अखबार बेचने का काम करते थे.
इसी दौरान उनकी मुलाकात विहिप नेता दिवंगत अशोक सिंहल से हुई. इसके बाद केशव का रुझान संघ की तरफ हो गया. सिंहल से नजदीकी और अपने जुनून से वे बहुत जल्द संगठन में जिला स्तर तक पहुंचने में सफल हो गए. विहिप कार्यकर्ता के रूप में केशव 18 साल तक गंगापार और यमुनापार में प्रचारक रहे.
हार से की राजनीति की शुरुआत
केशव ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत करीब डेढ़ दशक पहले 2002 विधानसभा चुनाव में भाजपा प्रत्याशी के रूप में की थी. इस चुनाव में इलाहाबाद शहर पश्चिमी सीट से बसपा प्रत्याशी राजू पाल ने जीत हासिल की थी.
केशव तीसरे नंबर पर रहे. 2007 के विधानसभा चुनाव में भी उन्होंने इसी सीट से चुनाव लड़ा. पर इस बार भी हार का सामना करना पड़ा.
2012 के विधानसभा चुनाव में उन्हें सिराथू सीट से जीत मिली. इस सीट पर भाजपा ने पहली बार कब्जा जमाया था. दो साल तक विधायक रहने के बाद केशव ने फूलपुर लोकसभा सीट से जीत हासिल की.
भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के संसदीय क्षेत्र फूलपुर में इससे पहले भाजपा कभी नहीं जीती थी.
अपराध और व्यापार का कॉकटेल
लोकसभा चुनाव के लिए उन्होंने मई 2014 में जो हलफनामा चुनाव आयोग में जमा किया था, उसके अनुसार केशव के खिलाफ 10 आपराधिक मामले हैं. इनमें धारा 302 (हत्या), धारा 153 (दंगा भड़काना) और धारा 420 (धोखाधड़ी) के तहत लगाए गए आरोप शामिल थे.
इसके अलावा हलफनामे में यह भी बताया गया है कि कभी चाय बेचने वाले केशव और उनकी पत्नी करोड़ों के मालिक हैं.
केशव दंपति पेट्रोल पंप, एग्रो ट्रेडिंग कंपनी, लॉजिस्टिक कंपनी आदि के मालिक हैं. साथ ही वे इलाहाबाद के जीवन ज्योति अस्पताल में पार्टनर भी हैं.
चायल विधानसभा सीट से निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ चुके सामाजिक कार्यकर्ता मोहम्मद रूफी कहते हैं, ‘केशव की छवि को मीडिया कैसे भी दिखाए लेकिन इलाहाबाद-कौशांबी में हकीकत सबको पता है. उन्होंने अपराध के सहारे ही अपनी राजनीति चमकाई है.
उन पर मामले इसलिए नहीं दर्ज हुए कि वे राजनीतिक रूप से मजबूत हो रहे थे बल्कि जितना अपराध में वे मजबूत हुए उतना ही राजनीति में उनका कद बढ़ा. गोरक्षा समेत दूसरे अभियान चलाकर उन्होंने हमेशा अल्पसंख्यकों को डराने और बहुसंख्यकों के ध्रुवीकरण की कोशिश की है.’
जुझारू प्रवृति के नेता
कौशांबी भाजपा के जिलाध्यक्ष रमेश पासी कहते हैं, ‘केशव आपराधिक नहीं जुझारू प्रवृति के नेता हैं. वे हमेशा अत्याचार के विरोध में आवाज उठाते रहे हैं. उन पर ज्यादातर मुकदमे कार्यकर्ताओं का साथ देने के चलते दायर हुए हैं. इसमें निजी स्वार्थ नहीं है. मेरा मानना है कि भाजपा कार्यकर्ता अब विपक्ष का अत्याचार बर्दाश्त नहीं करेगा.’
वहीं, कौशांबी के सरसवां ब्लॉक के पूर्व प्रमुख और भाजपा नेता लाल बहादुर कहते हैं, ‘केशव में संगठन को मजबूत करने और सबको साथ लेकर चलने की क्षमता है. संघ और विहिप में रहने के दौरान ही केशव ने अपनी इस प्रतिभा को दिखा दिया था. वे अपने काम को लेकर जुनूनी हैं. उनमें बहुत उत्साह है. जिस दौर में इलाहाबाद में भाजपा से लोग दूर जा रहे थे उस दौर में कार्यकर्ताओं को एकजुट करने का काम उन्होंने किया था.’
योग्यता पर भारी जाति
इलाहाबाद में रहने वाले सामाजिक कार्यकर्ता डॉक्टर प्रदीप सिंह कहते हैं, ‘उत्तर प्रदेश में सपा ने पिछड़ी जातियों को एकजुट करके सत्ता का सफर तय किया है तो इससे पहले बसपा ने ब्राह्मण और दलितों को एकजुट कर सत्ता हासिल की थी. भाजपा यही केशव को अध्यक्ष बनाकर करना चाह रही है.’
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र नेता रमेश यादव कहते हैं, ‘केशव के चुने जाने से यह साफ हो गया है कि भाजपा जाति और गाय की राजनीति से बाहर नहीं निकलने वाली है. इसके अलावा एक दागी छवि वाले व्यक्ति को प्रदेश की कमान सौंपे जाने से सीधे-सीधे यह पता चलता है कि अमित शाह और मोदी की जोड़ी सत्ता पाने के लिए किसी भी हद तक जा सकती है. ’
चुनौती बड़ी, कद छोटा
केशव के सामने चुनौती काफी बड़ी है और उनका कद काफी छोटा है. हालांकि जातीय और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए वह सबसे मुफीद हैं. लेकिन बुंदेलखंड, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, रूहेलखंड, मध्य उत्तर प्रदेश और अवध जैसे अलग-अलग हिस्सों में वे कैसे प्रभाव जमा पाएंगे. यह देखा जाना बाकी है.
पूरे प्रदेश में मिशन 265 का नारा जीत नहीं दिला सकता है. हर जगह अपने स्थानीय मुद्दे और समीकरण हैं जिन्हें साधकर चलना होगा. केशव इसके लिए पर्याप्त नहीं दिखाई पड़ते हैं.
इसके अलावा इतने अनुभवी नेता नहीं हैं कि मायावती या अखिलेश के बराबर खड़े हों. इसलिए बार-बार वह यह दावा कर रहे हैं कि प्रदेश का हर कार्यकर्ता मुख्यमंत्री पद का दावेदार है.
फिलहाल इतना तय है कि उत्तर प्रदेश में अगर भाजपा विधानसभा चुनाव में जीत हासिल करती है तो जीत मोदी और शाह की होगी लेकिन हार होती है केशव को जिम्मेदारी लेनी पड़ेगी.
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