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जम्मू-कश्मीर: राष्ट्रवाद का एजेंडा भले आसमान छुए, कश्मीर वहीं ठिठका रह जाएगा?

बीजेपी के महबूबा मुफ्ती सरकार से अलग होने का फैसला कश्मीर से ज्यादा देश की चुनावी राजनीति पर असर डालेगा

Updated On: Jun 20, 2018 05:27 PM IST

Rakesh Kayasth Rakesh Kayasth

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जम्मू-कश्मीर: राष्ट्रवाद का एजेंडा भले आसमान छुए, कश्मीर वहीं ठिठका रह जाएगा?

बीजेपी ने जम्मू-कश्मीर में जो कुछ किया वह शाह-मोदी की कार्यशैली के एकदम उलट है. बीजेपी अलग-अलग राज्यों में सरकार बनाने को लेकर जिस तरह की आक्रामकता दिखाती आई है, वह अब से पहले कभी देखने को नहीं मिला. कई राज्यों में छोटी पार्टी होने के बावजूद बीजेपी सरकार में है.

गोवा और पूर्वोत्तर के कई राज्यों में सरकार बनाने के लिए पार्टी ने असाधारण राजनीतिक दांव-पेंच दिखाए. ऐसी कुछ कहानी बिहार में भी रही. कर्नाटक में भी बीजेपी ने पूरा जोर लगाया. फिर आखिर क्या वजह है कि जम्मू-कश्मीर में अच्छी भली चल रही सरकार से बीजेपी अलग हो गई और वहां 'राज्यपाल राज' लागू कर दिया गया? इसका जवाब कश्मीर के हालात से कहीं ज्यादा मौजूदा राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य में छिपे हैं.

नुकसान की भरपाई के लिए सरकार से अलग होने का फैसला

कश्मीर हमेशा से बीजेपी के सबसे बड़े चुनावी मुद्दों में एक रहा है. चार साल पहले हुए विधानसभा चुनाव में जम्मू इलाके में क्लीन स्वीप के बाद बीजेपी एक ऐसी स्थिति में आ गई जहां उसकी मर्जी के बिना राज्य में कोई सरकार नहीं बन सकती थी.

बीजेपी ने सरकार बनाने के लिए एक ऐसी पार्टी यानी पीडीपी से हाथ मिलाया जो वैचारिक रूप से एकदम अलग धरातल पर खड़ी थी. बीजेपी की इस बात को लेकर बहुत आलोचना हुई. लेकिन एक मुस्लिम बहुल राज्य में अपना उप-मुख्यमंत्री बनवा लेने को पार्टी ने कार्यकर्ताओं के बीच एक तरह की जीत के रूप में पेश किया. यह सच है कि पिछले चार साल में कश्मीर में हालात लगातार खराब हुए हैं. आतंकवाद और सैनिकों की शहादत की घटनाएं बढ़ी है.

प्रतीकात्मक तस्वीर

प्रतीकात्मक तस्वीर

सड़क पर उतरने वाले प्रदर्शनकारियों की भीड़ बेकाबू है. इस बिगड़ती स्थिति का जिम्मेदार सीधे-सीधे बीजेपी को ठहराया जा रहा है क्योंकि केंद्र के साथ राज्य में भी उसी की सरकार है. ऐसे में पार्टी ने यह महसूस किया कि महबूबा सरकार से अलग होना ही सबसे सही विकल्प है. फैसले लेने में जितनी देरी होगी, नुकसान उतना ही बढ़ेगा और लोकसभा चुनाव आते-आते उसकी भरपाई नामुमकिन हो जाएगी.

लिहाजा काफी माथापच्ची के बाद आखिरकार बीजेपी ने महबूबा को बाय-बाय बोल दिया. अब सवाल यह है कि इस फैसले का बीजेपी को कितना फायदा होगा और इस मामले में उसके जोखिम क्या हैं?

बीजेपी को फैसले से क्या हासिल होगा

सबसे पहला फायदा यह होगा कि वह आनेवाले विधानसभा और उसके बाद 2019 के लोकसभा चुनावों में अपनी चिर-परिचित शैली में बीजेपी राष्ट्रवाद को मुद्दा बना पाएगी. अब तक स्थिति यह थी कि बीजेपी जब राष्ट्रवाद का नारा बुलंद करती थी, विरोधी यही पूछते थे-आप अफजल गुरू को शहीद मानने वालों के साथ मिलकर सरकार क्यों चला रहे हैं?

बीजेपी आहिस्सा-आहिस्ता यह कथानक गढ़ सकती है कि पिछले चार साल में कश्मीर में जिस तरह हालात बिगड़े हैं, उसके लिए सिर्फ पीडीपी जिम्मेदार है. हम अलगवादियों के खिलाफ शुरू से सख्ती करना चाहते थे. लेकिन महबूबा मुफ्ती के मुख्यमंत्री होने के कारण हमारे हाथ बंधे थे. बीजेपी नेता बार-बार यह कह रहे हैं कि राज्यपाल राज में अलगवादियों के खिलाफ सख्ती बढ़ेगी.

बीजेपी की अब तक की कार्यशैली और उसके कोर वोटरों के मिजाज को देखते हुए राज्य सरकार से अलग होने की यह रणनीति फायदे का सौदा लगती है. हालांकि कुछ लोग इसमें मामूली जोखिम भी देख रहे हैं. इस वक्त जम्मू-कश्मीर की सभी छह लोकसभा सीटें एनडीए के पास हैं. जम्मू, उधमपुर और लद्धाख इन तीनों सीटों पर 2014 में बीजेपी के उम्मीदवार जीते थे. कश्मीर घाटी की तीनों सीटें पीडीपी को मिली थीं.

अपनी तीनों सीटों पर बीजेपी बहुत मजबूत है. 2019 में भी इस स्थिति में कोई बदलाव आने की संभावना नहीं है. लेकिन घाटी की तीनों सीटों से एनडीए को हाथ धोना पड़ेगा क्योंकि वहां या तो पीडीपी जीतेगी या फिर नेशनल कांफ्रेंस. लेकिन जम्मू-कश्मीर की सरकार से अलग होने के फैसले से राष्ट्रीय स्तर पर जो राजनीतिक फायदा बीजेपी को दिखाई दे रहा है, उसके मुकाबले यह जोखिम छोटा है.

कांग्रेस की दुविधा बढ़ेगी

कांग्रेस लगातार केंद्र सरकार को गर्वनेंस और आर्थिक मोर्चे पर विफलता के मुद्धे पर घेरने की कोशिश करती रही है. लेकिन कश्मीर में 'राज्यपाल राज' लागू होने के बाद बीजेपी पूरे नैरेटिव को मोड़कर राष्ट्रवाद की तरफ ले जाएगी. मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक हर जगह-जगह पाकिस्तान मुर्दाबाद का नारा बुलंद होगा. इस शोर में कांग्रेस पेट्रोल की कीमत, नोटबंदी, जीएसटी और किसानों की हालत जैसे अपने मुद्दों को राष्ट्रीय विमर्श केंद्र में किस तरह ला पाएगी यह एक बड़ा सवाल है.

'राष्ट्रवाद बनाम बाकी मुद्दे़' की लड़ाई में यकीनन बीजेपी का पलड़ा भारी होगा। कांग्रेस के काम करने के तरीके को देखकर ऐसा लगता है कि बीजेपी की इस रणनीति की काट खोज पाना उसके लिए आसान नहीं होगा. अगर राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस बीजेपी के मुकाबले कमजोर दिखाई देगी तो फिर उसका उसर अपने गठबंधन में उसकी स्थिति पर पड़ेगा. कुल मिलाकर समस्या पूरे विपक्ष की बढ़ेगी.

कश्मीर का क्या होगा

कश्मीर का भविष्य सबसे बड़ा प्रश्न होना चाहिए था लेकिन बदकिस्मती से यह सवाल चुनावी राजनीति के शोर में दबता नजर आ रहा है. कश्मीर को लेकर अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियां इस समय जितनी अनुकूल हैं, उतनी पहले कभी नहीं रही. पाकिस्तान की पीठ से अमेरिकी हाथ हट चुका है. चीन को छोड़कर लगभग पूरा विश्व इस वक्त भारतीय रुख का समर्थन कर रहा है.

इसके बावजूद कश्मीर में हालात बद से बदतर हुए हैं. आतंकवादी वारदात अपनी जगह हैं, लेकिन ज्यादा बड़ी चिंता कश्मीरी युवाओं के बीच बढ़ती भारत विरोधी मानसिकता है. सिर्फ कठोर कार्रवाई इस मसले का हल नहीं हो सकता. बीजेपी-पीडीपी के गठजोड़ की आलोचना के बावजूद कुछ लोग यह मान रहे थे कि यह एलायंस कश्मीर के हालात बदलने में प्रभावी हो सकता है.

पीडीपी अपनी हीलिंग टच पॉलिसी के लिए पहचानी जाती है. आहिस्ता-आहिस्ता नई पीढ़ी की सोच बदलना ही एक कारगर रास्ता हो सकता था, लेकिन दुर्भाग्य से अब वहां कोई चुनी हुई सरकार नहीं है और कश्मीर एक बार फिर अनिश्चिता की तरफ बढ़ रहा है.

Rajnath Singh with Mehbooba Mufti

बीजेपी ने जिस आधार पर महबूबा मुफ्ती सरकार से समर्थन वापस लिया है, उसे देखते हुए यह नहीं लगता कि राज्य में जल्द दोबारा विधानसभा चुनाव होंगे. कम से कम 2019 से पहले इसके आसार बिल्कुल नहीं हैं. क्या सिर्फ सैनिकों की मौजूदगी अलगवाद के रास्ते पर चल पड़े कश्मीरियों को मुख्यधारा में वापस ले आ पाएगी?

एक सवाल यह भी है कि नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी जैसी पार्टियों के आगे का रुख क्या होगा? कश्मीरी वोटर महबूबा मुफ्ती से नाराज है. उसे लगता है कि उनके होते हुए आम नागरिकों पर ज्यादती बढ़ी है. क्या नेशनल कांफ्रेंस को इसका फायदा मिल पाएगा?

पहला टेस्ट 2019 का लोकसभा चुनाव होगा. जैसा कि पहले कहा जा चुका है, बीजेपी और एनडीए को थोड़े से नुकसान की आशंका है, क्योंकि कश्मीर घाटी की तीन सीटों का हाथ से निकलना तय है. ऐसा माना जा रहा है कि 2019 में केंद्र की नई सरकार के गठन एक-एक सीट की गिनती अहम हो सकती है.

तो क्या पीडीपी या नेशनल कांफ्रेंस दोबारा बीजेपी के साथ खड़ी हो सकती हैं? कश्मीरी पार्टियों का इतिहास रहा है कि वे हमेशा उसी ताकत से हाथ मिलाती हैं, जो केंद्र में मजबूत हो. महबूबा ने भी अभी तक बीजेपी को लेकर कोई बहुत तीखा बयान नहीं दिया है. इसलिए 2019 में कश्मीरी पार्टियों के लिए सारे रास्ते खुले हुए हैं. दिल्ली अभी दूर है और झेलम में बहुत पानी बहना बाकी है.

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