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राम जन्मभूमि न्यास को जमीन देकर बीजेपी क्या हासिल करने की उम्मीद कर रही है?

राम जन्मभूमि न्यास की स्थापना विश्व हिंदू परिषद की तरफ से 1993 में की गई है और खास तौर पर इसका मकसद विवादित स्थल पर मंदिर का निर्माण करना था

Updated On: Jan 29, 2019 09:53 PM IST

Suhit K. Sen

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राम जन्मभूमि न्यास को जमीन देकर बीजेपी क्या हासिल करने की उम्मीद कर रही है?

अयोध्या भूमि विवाद पर सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई रद्द होने के एक दिन बाद ही भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) एक बार फिर से चुनावी रंग में रंगी नजर आ रही है. इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में 29 जनवरी को सुनवाई होनी थी. इस सिलसिले में सुप्रीम कोर्ट की तरफ से जारी अधिसूचना में जरूरी कारण से सुनवाई रद्द किए जाने की बात कही गई है.

कोर्ट का कहना है कि पांच जजों की संवैधानिक बेंच में एक जज जस्टिस एस.ए.बोबडे उपलब्ध नहीं हैं, इसलिए सुनवाई रद्द करने का फैसला किया गया है. हालांकि, ऐसा लगता है कि यह घटनाक्रम कुछ जोखिमपूर्ण करने की कोशिश रोकने में सफल नहीं है. बीजेपी सरकार इस पूरे मामले को हर तरह से आगे बढ़ाने में जुटी है, जबकि इससे पहले बीजेपी की अगुवाई वाली सरकार ने मामले को पार्टी और संघ परिवार के अन्य सदस्यों पर छोड़ दिया था.

केंद्र सरकार ने सोमवार को सुप्रीम कोर्ट में इच्छा जताई कि विवादित जमीन (2.77 एकड़) के चारों और मौजूद 67 एकड़ की जमीन से जुड़े पुराने आदेश को वापस ले लिया जाए. सरकार ने 1991 में इस जमीन का अधिग्रहण किया था. केंद्र सरकार की याचिका में कहा गया है कि राम जन्मभूमि न्यास (आरजेएन) ने इस 'अधिक' जमीन को वापस करने की मांग की थी.

सुप्रीम कोर्ट ने 2003 में आदेश दिया था कि 67 एकड़ के मामले में स्थिति कायम रहेगी. अब केंद्र सरकार की दलील है कि इस आदेश को वापस लिया जाए और जमीन इसके 'मूल' मालिकों- न्यास को वापस लौटाई जाए. इस केस के राजनीतिक पहलुओं में जाने से पहले कुछ तकनीकी चीजें साफ होनी चाहिए. केंद्र सरकार ने 1991 में जमीन का अधिग्रहण किया.

राम जन्मभूमि न्यास की स्थापना विश्व हिंदू परिषद की तरफ से 1993 में की गई है और खास तौर पर इसका मकसद विवादित स्थल पर मंदिर का निर्माण करना था. राम जन्मभूमि न्यास ने 67 एकड़ जमीन इसके मूल मालिकों को लौटाने की मांग की थी. भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार इस मांग का समर्थन कर रही है.

हालांकि, अगर समय के हिसाब से घटनाक्रम की बात करें तो राम जन्मभूमि न्यास इस जमीन का मूल मालिक कैसे हो सकता है, जिसका 1991 में अस्तित्व ही नहीं था. दूसरी बात यह कि संयोगवश इस जमीन का अधिग्रहण कांग्रेस की सरकार की तरफ से किया गया. गौरतलब है कि 1991 में केंद्र में कांग्रेस की ही सरकार थी.

इस सरकार (बीजेपी) को अचानक से 28 साल या इतने समय के बाद 15 साल पुराने आदेश को वापस लेने संबंधी आइडिया क्यों सूझा है, जिससे राम जन्मभूमि न्यास को जमीन 'लौटाई' जा सके. अगर कोर्ट इस मांग को किसी तरह से स्वीकार करती भी है, तो भी इस मामले में सरकार को ही सक्रियता दिखानी पड़ेगी.

कोर्ट सिर्फ यथास्थिति वाले अपने आदेश को नए आदेश के जरिए हटाएगी और भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई वाली केंद्र सरकार ही न्यास को जमीन दान में देने जा रही है. इस केस में दलील देते हुए उसे निश्चित तौर पर विशेष रूप से इन बिंदुओं का जिक्र करना होगा, जिस आधार पर यह जमीन राम जन्मभूमि न्यास को दी जानी है या फिर अदालत को इस बात के लिए सहमत करने की खातिर कि राम जन्मभूमि न्यास इस जमीन का 'असली' मालिक है, सरकार को इसके पक्ष में अकाट्य तर्क पेश करने होंगे.

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जाहिर तौर पर यहीं राजनीतिक संदर्भ का मामला सामने आता है. बीजेपी और सरकार चाहती है कि अयोध्या मामले में फैसला आ जाए जिससे आगामी लोकसभा चुनावों में इसका जमकर इस्तेमाल किया जा सके. इसी वजह से केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने सोमवार को कहा कि अयोध्या केस की सुनवाई प्राथमिकता के आधार पर की जानी चाहिए और इसका जल्द से जल्द निपटारा होना चाहिए.

प्रसाद ने यह सफाई भी दी कि वह एक नागरिक के तौर पर अपनी बात रख रहे हैं. हालांकि, जाहिर तौर पर उनकी यह सफाई बकवास है. देश का कानून मंत्री राजनीतिक और न्यायिक रूप से बेहद संवेदनशील इस तरह के मुद्दे पर देश के सामान्य नागरिक के तौर पर अपनी बात नहीं रखता है. प्रसाद इस मामले की सुनवाई रद्द होने के बाद अपनी प्रतिक्रिया दे रहे थे. अब यह पूरी तरह से साफ हो चुका है कि बीजेपी नेतृत्व अपने सांप्रदायिक मुद्दे को आगे बढ़ाने के लिए फैसले का बेसब्री से इंतजार कर रहा है और ऐसा नहीं होने पर उसे मायूसी हो सकती है.

सुनवाई रद्द होने और इसकी अगली तारीख को लेकर अनिश्चितता संबंधी जानकारी दिए जाने के बाद समय पर फैसला दिए जाने की उम्मीद नहीं के बराबर रह गई है. बहरहाल, बीजेपी ऐसा मानकर क्यों चल रही है कि यह फैसला उसकी राजनीतिक परियोजना के लिए अनुकूल होगा, यह एक अलग सवाल है. दरअसल, इस संबंध में फैसले को लेकर बीजेपी की हताशा से कुछ ऐसा प्रतीत होता है कि उसे इसमें कुछ राजनीतिक फायदे की उम्मीद है.

समय पर फैसला नहीं आने की स्थिति में बीजेपी इससे निपटने के लिए किसी भी तरह की रणनीति बनाने को तैयार है. केंद्र सरकार पिछले कुछ महीनों से अयोध्या में खास उसी जगह पर मंदिर बनाने को लेकर दबाव में है, जहां कथित तौर पर राम का जन्म हुआ था. बीजेपी पर राम मंदिर बनाने के लिए कानून बनाने या अध्यादेश लाने की खातिर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और संघ परिवार के अन्य संगठनों, सहयोगी पार्टी शिवसेना के अलावा खुद पार्टी के भीतर काफी दबाव है.

अब उसे शायद लगता है कि यह विशेष मांग का कोई मतलब नहीं है. अयोध्या केस मुख्य रूप से जमीन विवाद है. कुल मिलाकर सुप्रीम कोर्ट इलाहाबाद हाई कोर्ट 2010 के आदेश पर गौर करते हुए दावों पर विचार करते हुए फैसले का ऐलान करेगा. इसे मंदिर या मस्जिद के बारे में कुछ नहीं कहना है. कानून पारित कर या अध्यादेश जारी करने से केंद्र सरकार क्या हासिल करने की उम्मीद कर सकती है? काफी कुछ, कुछ नहीं. वह जमीन का अधिग्रहण कर वहां मंदिर बना सकती है. समस्या यह है कि जब तक सुप्रीम कोर्ट टाइटल के बारे में फैसला नहीं करता, तब तक सरकार जमीन का भी अधिग्रहण नहीं कर सकती है. दरअसल, उसे यह पता नहीं होगा कि इसे किसके लिए और कहां से अधिग्रहण करना है. लिहाजा, बीजेपी और उसकी सरकार दुविधा में है. इसी कारणवश उसने नई याचिका दाखिल की है.

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बीजेपी को लग रहा है कि राजनीतिक रूप से उसकी हालत नाजुक है. बहुमत के साथ सत्ता हासिल करने की उसकी उम्मीदें खत्म हो चुकी हैं. यहां तक कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के बहुमत हासिल करने की संभावना भी काफी दूर नजर आ रही है.

सरकार के खिलाफ विरोध तेज रहा है और पार्टियां क्षेत्रीय गठबंधन बना रही हैं. ऐसे में सत्ताधारी पार्टी की संभावनाओं को लेकर कड़ी चुनौती दिख रही है. भारतीय जनता पार्टी और उसकी सरकार राम मंदिर को चुनावी हथियार के रूप में देखती है. हालांकि, अब ऐसा नहीं लगता कि अयोध्या मुद्दे में उस तरह का आकर्षण है.

हालांकि, अगर कोर्ट यथास्थिति बनाए रखने के अपने आदेश को वापस ले लेती है, तो ऐसी स्थिति में राम जन्मभूमि न्यास को जमीन देकर वह क्या हासिल करने की उम्मीद कर रही है? विवादित स्थल पर कथित राम मंदिर के आधार पर इसके आसपास शायद तमाम तरह के निर्माण कार्य शुरू हो जाएंगे. शायद वहां बड़ी भीड़ इकट्ठा होगी.

साथ ही, बीजेपी यह दावा करने में सक्षम होगी कि मंदिर को लेकर निर्माण कार्य शुरू हो गया है और इस तरह से उसने अपना वादा पूर कर दिया है. यह हताशा भरा दांव और रणनीति है. अगर उनके अनुकूल आदेश मिलता है तो विपक्ष यह बताने में सफल होगी कि यह फर्जी चुनावी प्रतीकात्मकता है. यह एक खतरनाक चाल भी है. बहरहाल, इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि यह समझदार मतदाता को पसंद आएगा.

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